Baat bus itni si thi - 2 in Hindi Moral Stories by Dr kavita Tyagi books and stories PDF | बात बस इतनी सी थी - 2

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बात बस इतनी सी थी - 2

बात बस इतनी सी थी

2

अगले दिन मिस मंजरी लंच टाइम में मेरे केबिन में आयी । लेकिन आज वह खाली हाथ नहीं थी । उसके हाथों में लंच बॉक्स था । आते ही उसने लंच बॉक्स मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा -

"घर का बना हुआ है, खा लेना !"

कहते हुए वह मेरे केबिन से बाहर निकल गयी । मैंने उसके हाथ से लंच बॉक्स लेते हुए उसका व्यवहार देखकर उसके चेहरे के भाव पढ़ने की कोशिश की थी और उसकी तरफ आश्चर्य तथा प्रश्नात्मक मुद्रा में देखा था, लेकिन मेरी ओर देखे बिना ही वह सीधे अपने केबिन में चली गई और अपना टिफिन खोलकर खाना खाने के लिए बैठ गयी । मैं कुछ मिनट तक उसको एकटक देखता रहा और सोचता रहा कि उसके लंच बॉक्स में से निकालकर खाना खाऊँ या नहीं खाऊँ ?

लगभग दस मिनट बाद मैं उसके लाये हुए लंच बॉक्स से खाना निकालकर खाने लगा । खाना बहुत ही स्वादिष्ट था । मिस मंजरी के दिये हुए लंच बॉक्स के खाने ने मेरे पेट की भूख से ज्यादा मेरे दिल की चाहत को शांत किया था । खाना खाकर धन्यवाद करने के लिए मैं खाली लंच बॉक्स लौटाने के लिए उसके केबिन में गया और इस बहाने उससे मुलाकात करने और उसके नज़दीक आने की राह मुमकिन हो सकी ।

ऐसा केवल उस दिन ही नही हुआ, उस दिन के बाद भी मिस मंजरी हर रोज लंच टाइम में मेरे लिए लंच बॉक्स लेकर मेरे केबिन में आती और इतनी जल्दी मेरे केबिन से बाहर निकल जाती कि मैं धन्यवाद तक न कह पाता । इससे धन्यवाद देने के लिए हर रोज मुझे उसके केबिन में जाने का मौका मिल जाता ।

एक तो घर का बना हुआ स्वादिष्ट-पोष्टिक भोजन और दूसरे मिस मंजरी खुद मेरे केबिन में आकर मुझे देती थी, यह सब मुझे दो-चार दिन बहुत अच्छा लगा था । लेकिन कुछ दिन के बाद धीरे-धीरे मैडम के उस रूखे व्यवहार से मैं बेचैन हो उठा । मुझे एहसास होने लगा कि मेरी मंजिल मात्र घर का बना हुआ स्वादिष्ट-पोष्टिक खाना खाना नहीं, कुछ और है । वह कुछ और है - मेरी अपनी माता जी के लिए एक अदद बहू और मेरे लिए एक जीवन साथी की तलाश ।

अपने मन की यह बात मैं जल्दी-से-जल्दी उसको समझा देना चाहता था । अपनी मंजिल को याद करके कि, मैं अपनी बात मिस मंजरी तक पहुँचाने के लिए हर एक पल ऐसा कोई उपाय खोजने लगा, जिससे उसको मेरे साथ करने वाले अपने रूखे व्यवहार का एहसास हो सके ।

एक दिन ऑफिस में प्रवेश करने से पहले ही मैंने निर्णय कर लिया था कि आज उसका दिया हुआ लंच बॉक्स स्वीकार नहीं करूँगा । लंच टाइम होते-होते मेरी धड़कने बढ़ने लगी और मेरा मन दो टुकडों में विभाजित होकर खुद से ही संघर्ष करने लगा । मेरे दिल से दो परस्पर-विरोधी आवाजें आने लगी थी। एक आवाज कह रही थी -

"जो मिल रहा है, उसी में संतोष कर ले !" दूसरी आवाज का संकेत था -

"जो तू चाहता है, बाधाओं की परवाह किए बिना उसे हासिल करने की दिशा में कदम आगे बढ़ाए जा !"

पहला संकेत मेरे भौतिक लाभ को किसी सीमा तक सुनिश्चित करता था, भले ही वह मेरी आशा और अपेक्षा की तुलना में बहुत कम था । जबकि दूसरा संकेत मुझे मेरी मंजिल की कोई गारंटी दिये बिना ही वर्तमान में मिल रहे सीमित लाभ से भी वंचित करता था । फिर भी, मेरा मन दूसरे संकेत के ज्यादा करीब था ।

सोचते सोचते वह समय आ गया, जब मिस मंजरी ने हर रोज की तरह ही मेरे केबिन में प्रवेश किया और खाने का डिब्बा मेरी ओर बढ़ाकर कहा -

"खा लीजिएगा !" कहते हुए खाने का डिब्बा मेज पर रखकर वह हमेशा की तरह बहुत जल्दी मेरे केबिन से बाहर निकलने लगी ।

"नहीं-नहीं ! आज रहने दीजिए !" मैंने मेरे केबिन से बाहर निकलती हुई मिस मंजरी से कहा ।

"क्यों ?"

"रोज-रोज मेरे लिए ऐसे आपका खाने का डिब्बा लाना मुझे असहज करता है !"

मेरा नकारात्मक उत्तर सुनकर वह पलटी, उदास दृष्टि से मुझे घूरकर देखा और उदास मन से भोजन का डिब्बा वहीं छोड़कर मेरे केबिन से बाहर निकल गयी।

उस दिन मंजरी ने अपने केबिन में जाकर जल्दी-जल्दी अपना भोजन का डिब्बा खोलकर लंच नहीं किया, जैसे हमेशा करती थी । वह यूँ ही गर्दन झुकाये उदास बैठी रही । लगभग पन्द्रह मिनट तक चोर-नज़रों से मैं उसको देखता रहा । उसका वह चेहरा, जो पिछले कई दिन से खुशी से दमकता हुआ दिखता था, आज मुरझा गया था । उसके मुरझाये चेहरे की वजह मैं उसके साथ मेरे व्यवहार को महसूस करके मैं ग्लानि से भर गया था । इसलिए मैं उठा और खाने का डिब्बा उठाकर सीधे उसके कैबिन में जाकर सॉरी कहते हुए बैठ गया । कुछ क्षणों के बाद मैंने खाने का डिब्बा खोलकर भोजन का आधा भाग उसकी मेज पर रख दिया और दूसरे आधे भाग को मैंनै खुद खाना शुरू करते हुए कहा-

"आप खाना बहुत स्वादिष्ट बनाती हैं !"

मेरे मुँह से पहली बार अपनी प्रशंसा सुनकर उसने मुझे कठोर नजरों से घूरकर देखा । उसके मन के भाव को समझते हुए मैंने फिर कहा -

"दरअसल, मुझे एक साथी की तलाश है, जो मुझे समझ सके ; मेरे साथ दोस्ताना रिश्ता रखते हुए रिश्तों की गरिमा को समझ सके !"

"जब तक आप खुद दूसरों को समझने में समर्थ नहीं है, आप किसी दूसरे से इस तरह की आशा-अपेक्षा रखने का अधिकार नहीं रख सकते, मैं ऐसा समझती हूँ !"

"मैडम, मैं दूसरों को समझने की सामर्थ्य रखता हूँ, इसलिए अपनी सीट से उठकर आपके कैबिन तक आया हूँ !"

शायद मेरे उत्तर से वह आश्वस्त हो गयी थी । उसको एहसास हो रहा था कि मैं इतना भी बेगैरत इंसान नहीं हूँ, जितना वह समझ बैठी थी । बातें करते-करते मैं खाना खा रहा था और मेरे आग्रह पर उसने भी भोजन करना आरंभ कर दिया था । भोजन करते-करते मैंने फिर कहना शुरू किया -

"मैं इतना भी बुरा नहीं हूँ, जितना बुरा समझकर आप मुझसे नाराज हो गयी थी ! दरअसल, इन दिनों मैं मेरी माता जी का बहुत अधिक दबाव झेल रहा हूँ ! वे चाहती हैं, मैं जितनी जल्दी हो सके, शादी कर लूँ और उनके जीते-जी उनकी वंशबेलि को आगे बढ़ाने का अपना फर्ज पूरा करूँ !"

"इसमें कौन-सी नई बात है ! सभी के माता-पिता यही चाहते हैं ! उनके माता-पिता ने भी उनसे यही चाहा होगा !"

"हाँ, इसमें तो कोई नयी बात नहीं है, मैडम ! उनके माता-पिता ने भी यही चाहा होगा ! लेकिन मेरा मामला कुछ अलग है !"

"अच्छा ! वह कैसे ?"

"मुझसे जो आशाएँ-अपेक्षाएँ आज मेरी माता जी की हैं, बीते कुछ दिन पहले मुझसे यही आशाएँ-अपेक्षाएँ मेरे पिता जी की थी । मैं उनकी अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतर सका और वे अपनी अधूरी इच्छाऔं के साथ इस दुनिया को छोड़कर चले गये !"

"ओह ! यह तो बहुत दुख की बात है ! ईश्वर उनकी आत्मा को शान्ति प्रदान करे !"

"मैडम मंजरी ! यही तो प्रॉब्लम है ! जब तक घर में उनकी बहू नहीं होगी और उनके पोते-पोती की किलकारियाँ नहीं गूँजेगी, तब तक मेरी माता जी की आत्मा इस लोक में और पिता जी की आमा उधर स्वर्ग में तड़पती रहेगी ।!"

"तो आप शादी कर क्यों नहीं लेते ?"

"दरअसल, मेरी सोच आजकल के युवाओं से मेल नहीं खाती है ! इसलिए जब भी मैं शादी करने के बारे में सोचता हूँ, मेरी खुद की सोच ही बाधा बन जाती है ! चालीस साल का हो गया हूँ, लेकिन मैं आज तक मैं मेरे दिल की रानी नहीं ढूँढ पाया !"

"आपकी सोच क्या है, जो आजकल के युवाओं के साथ मेल नहीं खाती ?"

"मैंने बचपन से देखा है, जब कभी मेरी दादी का दादा जी के साथ झगड़ा होता था ; नोक-झोंक होती थी, तब दादी तुनककर मायके चली जाती थी और एक-दो दिन या अधिक से अधिक एक सप्ताह के अंदर पापा जाकर उन्हें ही वापिस ले आते थे । या पापा का इन्तजार किए बिना ही वे खुद अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों की चिंता करके घर वापिस लौटा आती थी । इसी तरह जब मम्मी का पापा के साथ झगड़ा होता था, तो मम्मी भी नानी के घर चली जाती थी । अपने घर -परिवार की चिन्ता करके वे भी एक-दो दिन में ही वापिस लौट आती थी । लेकिन, पिछले कुछ दिनों से मैं समाज में देख रहा हूँ कि जरा सा मनमुटाव होते ही रिश्ते मिट्टी के घड़े की तरह चटककर टूट रहे हैं । अब एक बार टूटने के बाद ये रिश्ते अपने पुराने रूप में नहीं आ पाते हैं ! मैंने देखा है, आजकल पति-पत्नी छोटी-छोटी बातों पर एक दूसरे से अलग होकर नया जीवन-साथी तलाश लेते हैं ! यह नया रिश्ता कुछ दिन तक टिका रह सकता है, इसकी भी कोई गारंटी नहीं है ! यही नहीं, नई पीढ़ी के बच्चे भी इतने उग्र हो रहे हैं कि बहुत छोटी-छोटी बात पर क्रोध से आग बबूला होकर वे अपने दोस्तों को चोट पहुँचाते हैं ; कभी-कभी तो हत्या तक कर देते हैं !"

मेरी इतनी लम्बी व्यथा कथा सुनकर उसने झुँझलाकर मुझसे कहा -

"मुझसे क्या चाहते हैं आप ?"

"कुछ नहीं ! आप मेरे लंच बॉक्स लेने से मना करने के रूखे व्यवहार से नाराज हो गयी थी, मैं अपने उस व्यवहार के लिए आपसे क्षमा याचना करने के लिए आया था ! अपनी व्यथा-चिंता में डूबे हुए मैंने अनजाने में ही ... !" कहते हुए मैं उठा और उसके केबिन से बाहर आने लगा । उसी समय उसने पीछे से मुझे पुकारा -

"मुझे भी एक साथी, मेरे कहने का मतलब है, एक जीवन-साथी की तलाश है । ऐसा साथी, जो रिश्तों को इलास्टिक की तरह लचीला बनाना जानता हो ! सूखी-कठोर लकड़ी की तरह न हो, जो जरा सा मोड़ आते ही टूट जाए और उसके टूटे हुए छोर अपने आस-पास वालों और संपर्क में आने वालों को घाव देते रहें !"

"इस विषय में मुझसे क्या चाहती हैं आप ?"

"यह बताना चाहती हूँ कि आपके व्यवहार से नाराज होकर मैं अपने कैबिन में नहीं आई थी ! आपके विषय में मैंने जो सोचा था, कुछ क्षणों के लिए उसके विपरीत परिणाम आने पर निराश हो गई थी ! और यह भी बताना चाहती हूँ कि अब मुझे कुछ-कुछ विश्वास होने लगा है कि आप शायद मेरी आशाओं-अपेक्षाओं के अनुरूप मेरे जीवन-साथी हो सकते हैं ! शायद ...!"

"मैडम मंजरी ! आपके द्वारा बोले गये 'कुछ-कुछ' और 'शायद' जैसे शब्दों ने रिश्ता जुड़ने से पहले ही उसके टूटने का डर मेरे मन में बिठा दिया है !"

"मैं भी इस भय की शिकार होकर अपनी जिंदगी के पैंतीस बसंत पार कर चुकी हूँ और आज इसी निष्कर्ष पर पहुँची हूँ कि जो रिश्ता जोड़ा जाए, छोटी-छोटी बातों पर उसे तोड़ने से बचना चाहिए ! उस रिश्ते के लिए अपनी हर छोटी-बड़ी जिम्मेदारी का बोझ उठाना चाहिए ! मैंने मेरी बुआ को देखकर जाना-समझा है कि जब कोई रिश्ता टूटता हैं, तब वे लोग भी टूटते हैं, जो उस रिश्ते में बन्धे होते हैं ! ये टूटे हुए लोग एक रिश्ते से निराश होकर जिन्दगी-भर कहीं दूसरी जगह किसी दूसरे के साथ रिश्ता जोड़कर खुद को जोड़ने की कोशिश करते रहते हैं, पर कभी भी कहीं भी किसी से जुड़कर पूर्णता प्राप्त नहीं कर पाते हैं ! ये टूटे हुए लोग अन्त में अपनी पूरी जिन्दगी आधे-अधूरे रहकर ही बिता देते है !" उसने गम्भीर होकर कहा ।

"तो बेहतर यह रहेगा कि जब तक हमारे दोस्ती के रिश्ते में प्रेम और विश्वास की पूर्णता न आए, तब तक हम साथी ही रहें,, जीवन-साथी नहीं बनें ! इस विषय में आपका क्या मत है ?"

"मैं तो आपके मत से सहमत हो सकती हूँ, लेकिन शायद आपकी माता जी आपके इस मत से सहमत नहीं होंगी !"

कहते हुए वह व्यंग्यात्मक और परिहासपूर्ण मुद्रा धारण कर चुकी थी । मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि मेरे मनःमस्तिष्क पर से मेरा खुद का नियंत्रण छूटता जा रहा है और मेरे दिल-दिमाग के साथ मेरी नजर उसके साथ एकात्म हो रहा है । इसी क्रम में मेरे मुँह से अनायास ही निकल गया -

"शायद !" कहकर मैं ठहाका लगाकर हँस पड़ा और लगातार काफी देर तक हँसता रहा ।

जब से मैं अपने मम्मी-पापा का कथित समझदार बेटा बना हूँ, या यह कहूँ कि जब से मैंने इस दुनिया के नियमों-कानूनों को समझने का दावा किया है, आज तक कभी इस तरह खुलकर नहीं हँसा, जैसे आज मैं जी-भर हँसा था ; मर्यादा की सारी सीमाएँ तोड़कर हँसा था ! मुझे इस प्रकार हँसता हुआ देखकर मंजरी भी खुद को हँसने से नहीं रोक पायी और वह भी मेरे साथ हँसने लगी थी । शायद वह भी समझदार होने के बाद आज पहली बार नासमझ हो गयी थी । इतनी नासमझ कि ऑफिस की मर्यादा की सारी सीमाओं को भूल गयी थी ।

"हा-हा-हा-हा-हा-हा.!!!"

हम दोनों तब तक हँसते रहे, जब तक थककर चूरचूर नहीं हो गये । हम थक गये थे, किन्तु हमारा हँसना जारी था ।

अचानक उसका हँसना बन्द हुआ और उसने धीमे स्वर में कहा -

"हम ऑफिस में हैं !"

"शायद !" उसके 'शायद' कहते ही न जाने क्यों ? मैं फिर हँसने लगा ।

निरन्तर हँसते हुए आज मुझे अनोखे सुख की अनुभूति हो रही थी, जैसी आज से पहले कभी नहीं हुई । ऐसा लग रहा था, जिस अनचाहे बोझ को मैं वर्षों से ढोता आ रहा था, आज मैंने वह बोझ एक ही झटके में उतार फेंका है ।

लेकिन, इस बार वह नहीं हँसी । मैंने देखा, उसके चेहरे पर लज्जा और असमंजस के मिले-जुले भाव, आँखों में एक अनजाना-सा डर और प्रसन्नता तथा होंठों पर कोमल मुस्कुराहट थी । वह अब भी चुप थी । उसके मौन संकेत और जीवंत भाव-भंगिमा को पढ़कर मैं स्वयं से बाहर आया, तो मैंने देखा, केबिन के बाहर हमारे सहकर्मियों की भीड़ हमें निशाना बनाकर एकटक घूर रही थी ।

उसी समय एक चपरासी से मुझे हमारे वरिष्ठ अधिकारी का मैसेज मिला कि मैं उनके केबिन में जाकर उनसे मिलूँ । मैसेज मिलते ही मैं अधिकारी के केबिन की ओर चल दिया और बुलाए जाने के कारण का अनुमान लगाते हुए मैंने मन-ही-मन निश्चय कर लिया -

"मैं नौकरी छोड़ दूँगा, लेकिन, कथित समझदारी का बोझ अब दुबारा अपने कंधों पर नहीं ओढूँगा !"

क्रमश..