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Jatin Tyagi

Jatin Tyagi Matrubharti Verified

@jatintyagi05
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ठिठुरती दीवारों में जलता था विश्वास,
नन्हे हृदय में था धर्म का उजास।
उम्र छोटी थी, पर साहस विराट,
इतिहास झुका, देख उनका प्रताप।। 1

ज़ोरावर की आँखों में सत्य की ज्योति,
फतेह की वाणी में वाहेगुरु की मोती।
ना झुके, ना डरे, ना मांगी शरण,
आस्था ही थी उनका सबसे बड़ा वरण।। 2

ईंटों में चुनी गई उनकी साँसें,
पर डिगीं नहीं आत्मा की आशाएँ।
मृत्यु भी ठिठकी उस क्षण अपार,
जब बाल हृदय बने धर्म की दीवार।। 3

मैं स्वयं से पूछता हूँ, इस युग में आज,
कहाँ खो गया वो तेज, वो नैतिक साज?
सुविधा के आगे झुकता हर विचार,
और बच्चों ने समझा दिया जीवन का सार।। 4

हे समाज, रखो उन साहिबज़ादों को स्मरण,
जिनका बलिदान सिखाता प्रेम, सत्य और चरण।
धर्म शब्द नहीं— चरित्र का प्रकाश है यही,
वीर बालों से सीखो— निर्भीक प्रेम ही सच्ची रही।। 5

— जतिन त्यागी (राष्ट्रदीप)

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इक्कीस से सत्ताईस—तारीख़ नहीं, तपस्या का काल,
जब भारत की आत्मा ने ओढ़ा था बलिदान का जाल।
आनंदपुर से निकले गुरु, आँधी में अडिग मशाल,
धर्म नहीं, मनुष्यता बचाने को दिया हर प्रतिकाल।। 1

चमकौर की गढ़ी में गूँजा, इतिहास का सिंहनाद,
अजीत सत्रह का, जुझार चौदह का—अदम्य स्वाभिमान।
थोड़े थे, पर सत्य के संग—वह युद्ध नहीं था हार,
वह था यह घोषणा-पत्र कि भय से बड़ा है विचार।। 2

उधर ठंडी बुर्ज में बैठी, हिम-सी शांति की छाया,
माता गुजरी की आँखों में ईश्वर स्वयं समाया।
कँपकँपाती देह ने बच्चों को यह मंत्र सिखाया—
“धर्म अगर छूट जाए, तो जीवन अर्थ खो जाता है साया।।” 3

जोरावर आठ का, फतेह छह का—कद भले ही छोटे थे,
पर निर्णय उनके पर्वत थे, संकल्प अडिग, अटल थे।
दरबार ने लालच, भय दिखाए, ताज और आराम,
पर बच्चों ने चुन ली ईंटें—सच के लिए बलिदान।। 4

दीवारों में चिन दिए गए, पर विचार नहीं मरे,
सरहिंद की मिट्टी ने देखे, इतिहास के सूरज उगे।
उनकी चीख़ नहीं, मौन बोला—सदियों तक, काल-काल,
कि धर्म बचाने को बालक भी बन सकता है ढाल।। 5

जब यह समाचार पहुँचा, माँ ने मौन वरण किया,
चार दीप जलाकर आँचल ने स्वयं को अर्पण किया।
माता गुजरी का जाना—वियोग नहीं, संकल्प था,
एक माँ नहीं, भारत की चेतना ने देह त्यागा था।। 6

चार साहिबज़ादे, गुरु गोविंद—यह कथा किसी पंथ की नहीं,
यह भारत की आत्मकथा है, जो झुकना जानती नहीं।
शहीदी सप्ताह पूछता है—याद रखोगे या भूल जाओगे?
इतिहास कहता है स्पष्ट—पहचान उसी से पाओगे।। 7

— जतिन त्यागी (राष्ट्रदीप)

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एक दीप जला था मौन रात में,
न मंच था, न कोई शोर।
बस “राष्ट्र प्रथम” का प्रण लिए,
संघ चला — निडर, निष्ठ और कठोर।। 1

शाखा की मिट्टी, लाठी की सीख,
प्रार्थना में पलता विश्वास।
व्यक्ति गढ़ा, चरित्र बना,
यहीं से जागा राष्ट्र-प्रकाश।। 2

न सत्ता चाही, न सिंहासन,
न यश का कोई व्यापार।
जहाँ संकट आया सबसे पहले,
संघ बना जनता की ढाल-दीवार।। 3

सीमा पर वीर, गाँव में शिक्षक,
नगर-नगर सेवक रूप।
हर वेश में एक ही संकल्प,
भारत माता का दिव्य स्वरूप।। 4

आंधियाँ आईं, प्रतिबंध लगे,
कलंक, कारागार, प्रहार।
पर सत्य झुका नहीं एक क्षण,
संघ चला — और हुआ और अपार।। 5

यह सौ वर्ष नहीं, यह संकल्प है,
पीढ़ी-दर-पीढ़ी ज्वाला जीवित।
जहाँ “मैं” गलकर “हम” बनता,
वहीं राष्ट्र होता है निर्मित।। 6

अब अगली शताब्दी पुकार रही,
युवक, उठो — यह समय तुम्हारा।
संघ नहीं केवल इतिहास है,
संघ ही भारत का भविष्य सारा।। 7

– ©️जतिन त्यागी (राष्ट्रदीप)

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दैनिक शाखा जाने से क्या होगा, यह प्रश्न मन में आता है,
उत्तर हर कदम पर मिलता है, जब स्वयं से सामना होता है।
अमर बनेगा जीवन अपना, चरित्र जब गढ़ जाता है,
राष्ट्र प्रथम की भावना से, हर स्वार्थ बिखर जाता है।।

गौरवशाली देश बनेगा, जब नागरिक सजग होंगे,
श्रम, अनुशासन, सेवा में, हर दिन हम तत्पर होंगे।
शाखाओं का तंत्र बढ़ेगा, विचारों का विस्तार होगा,
व्यक्ति से समाज बनेगा, यही सच्चा संस्कार होगा।।

त्यागमय परिवेश बनेगा, जब अहं को त्यागेंगे,
अपना समय, अपना सुख, राष्ट्रहित में बाँटेंगे।
मैं नहीं, हम की भावना, मन-मस्तिष्क में छाएगी,
तभी सशक्त भारत की नींव, सच में रखी जाएगी।।

जन-जन तक हम पहुँचेंगे, यह केवल नारा नहीं,
आचरण से, व्यवहार से, बनना है हमें सही।
सुंदर सा संदेश बनेगा, कर्मों की भाषा बोले,
जहाँ शब्द कम पड़ जाएँ, वहाँ जीवन स्वयं डोले।।

इसी तथ्य को विश्व पटल पर, पहुँचाने का सरल ढंग,
न दिखावा, न आडंबर, बस जीवन में राष्ट्र-रंग।
सेवा, समर्पण, संस्कार, जब हर घर में आएँगे,
भारत के विचार स्वयं ही, विश्व को राह दिखाएँगे।।

यही संघ, यही संघ है, हम सब इसका मान हैं,
पीढ़ी-पीढ़ी जो जले, वही विचारों की शान हैं।
हम सब इसके अमर अंग हैं, यह गर्व नहीं वरदान,
कर्तव्य का बोध यही है, यही हमारा अभियान।।

मैंने देखा, मैंने जाना, शाखा केवल स्थल नहीं,
यह जीवन गढ़ने की पाठशाला, इससे बढ़कर कुछ पल नहीं।
जो इसे जी लेता है, वह इतिहास रच जाता है,
साधारण सा व्यक्ति भी, मुझ जैसा, राष्ट्रदीप बन जाता है।।
— ©️ जतिन त्यागी (राष्ट्रदीप)

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वन्दे मातरम्, तेरी गूँज अमर है,
हर धड़कन में तेरा ही स्वर है।
तूने सिखाया मिट्टी की महक को,
माँ! तेरी ममता का नहीं कोई उत्तर है।।

जब-जब दुश्मन ने नजरें उठाईं,
तेरे लालों ने जान लुटाईं।
तेरे नाम पर हँसते-हँसते चढ़े फाँसी,
हर पीढ़ी ने तेरी इज़्ज़त बढ़ाई।।

तेरे शब्दों से जोश मिला रणभूमि में,
हर सैनिक ने शपथ ली तेरी छवि में।
तेरे चरणों की धूल हमारा तिलक है,
तेरी जयगाथा लिखी हर शिविर की वीथि में।।

आज भी तेरी पुकार दिलों में है,
हर भारतवासी के क़रार में है।
तेरे गीत से उठता है एक नया सवेरा,
तेरा नाम ही हमारी पहचान में है।।

आओ फिर वही जोश जगाएँ,
तेरे नाम का दीप जलाएँ।
कभी न थमे “भारत माता की जय”,
वन्दे मातरम् के स्वर गगन तक गाएँ।।
— ©️ जतिन त्यागी

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चोटियाँ छोड़ी, टोपी छोड़ी, पगड़ी भी भूल गए।
तिलक चंदन मिटा के, अब नकाब चेहरे पे धूल गए।।

कुर्ता छोड़ा, धोती छोड़ी, यज्ञोपवीत भी छूट गया।
संध्या-वंदन, राम नाम से, जैसे सबका मन रूठ गया।।

गीता-पाठ, रामायण कथा, अब घरों में कहाँ रहे?
लोरी, श्लोक, संस्कृत की ध्वनि, किताबों में सिमट कर रह गई।

नारी ने रूप बदला, साड़ी-चूड़ी सब छोड़ दिया।
दुपट्टा, चुनरी, मांग-बिंदी—पश्चिमी रंग ओढ़ लिया।।

बच्चे अब आई की गोद में पलते, माँ का समय कहाँ?
संस्कारों का दीपक बुझा, घर में अब वो दम कहाँ?

सुबह-शाम की राम-राम, पांव छूना भी भूल गए।
संयुक्त परिवार का मंदिर, अब छोटे कमरे में सिमट गए।।

पूछो खुद से—कौन हो तुम?
भारतीय, सनातनी या बस नाम मात्र रह गए तुम?

गुरुकुल की शिक्षा खो गई, यज्ञ-शास्त्र कहाँ गए?
मंदिर की घंटियाँ सुनकर भी, मन क्यों अब मौन रहे?

बौद्ध ने सिर मुंडाया, सिक्ख ने पगड़ी रखी सदा।
मुसलमान नमाज़ न छोड़े, ईसाई चर्च जाता ज्यों ज्यों बढ़ा।।

पर हम?—हमने खुद ही छोड़ी, अपनी पहचान पुरातन।
संस्कार, वेद, परंपरा सब, भूले आधुनिक जीवन।।

अब भी वक़्त है, जागो फिर से।
अपना धर्म, अपना गौरव थामो फिर से।।
ज्योति जलाओ, दीप बनो।
“जयति सनातन” गूंज उठे हर मन में फिर से।।

जयतु भारतं, जय श्रीराम,
फिर गूंजे घर-घर नाम।

— ©️ जतिन त्यागी

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म्हारी धरती, म्हारा मान,
हरियाणा सै दिल का गान।
दूध-दही का सादा खाना,
पर जज्बा सै लोहा ठाना।

उननीस सौ छियासठ की बात,
बना हरियाणा — मिट्टी की सौगात।
पचपन सालां सै अब उन्नीस जोड़,
५९ साल का गौरव छोड़।

खेती, खेल, हिम्मत, शान,
हर घर में उठे अरमान।
ना डर, ना छल, बस सच्चाई,
हर दिल में हरियाणवी भाईचारा भाई।

ट्यूबल नीचे न्हाणा सवेरा,
गीत गावे गाँव का चेहरा।
छोटे गाँव, पर दिल बड़ा,
हर शब्द में हरियाणा खड़ा।

जवानां नै जोश, किसानां नै मान,
छोरियां भी अब ना रह गुमनाम।
ओलंपिक तगमे लावे शान,
“मिट्टी से मेडल तक” — ये सै पहचान।

बोली में मिठास, इरादे सख्त,
मेहनत में सै हरियाणवी तक्त।
जहाँ घमंड ना, बस गर्व की बात,
हर छोरा छोरा — देश की औकात।

मैं, जतिन त्यागी, कहूं दिल से यार,
हरियाणा सै प्यार अपार।
चलो मनावां, मिलके खास,
जय हरियाणा — सदा रहे आस!

लेखक: जतिन त्यागी

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"प्रेम नहीं, छल का जाल है ये"

तुम जिस मोह में फँस बैठी हो,
प्रेम नहीं—छल का जाल है ये,
जिसे भगवान मान रही तुम,
दरअसल वह घड़ियाल है ये।

क्यों भूल गई माँ की ममता,
पिता का चेहरा याद नहीं,
कैसा अंधा मोह है तुझको,
सच्चे रिश्तों का मोल नहीं।

धर्म बदलकर प्रेम का वादा,
सच्चाई कहाँ मिली इस खेल में?
सीमा–श्रद्धा कितनी बलि चढ़ी,
ना जाने कितनी जली इस मेले में।

न कोई जन्मो का बंधन इसमें,
बस खिलौना समझेगा तुझको,
जब उसका जी भर जाएगा,
तब अब्बा के नीचे सुलाएगा तुझको।

ये झूठे सपनों की दुनिया,
तेरे जीवन को छल बनाएँगे,
चाचा–मामा–भाई–बंधु,
तुझे रखैल बनाकर मिटाएँगे।

– ©️ जतिन त्यागी (राष्ट्रदीप)... ✍️

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" शहीद-ए-आज़म : भगत से अमरता तक "

पग-पग पर जाग उठी थी क्रांति की पुकार,
नन्हे से मन में थे सपनों के भंडार।
मां की गोद में सुनी गुलामी की आहें,
जन्म लिया वीर ने तोड़े बंधन की राहें।।


किताबों में ढूँढा इतिहास का नूर,
मन में जगी ज्वाला, आँखों में दूर।
कलम से निकले शब्द, तलवार बने,
विचारों के रण में वो अग्रसर बने।।


लाहौर की गलियों में जोश था प्रचंड,
हर सांस कहे – "आज़ादी अनंत।"
संगियों के संग गढ़ा इंकलाब का गीत,
युवा लहू में धड़कन बनी असीम प्रीत।।


लाठी-गोली सहकर भी हँसता रहा,
दर्द को भी उसने प्रण में कसता रहा।
मौत से खेलना मानो जीवन हो गया,
हर लम्हा वतन का परचम हो गया।।


अदालत में गूंजा सत्य का ऐलान,
"इंकलाब जिंदाबाद" बना उसकी पहचान।
जेल की दीवारें भी कांप उठीं रात,
शब्द बने बिजली, मिटा गए अंधकार।।


गुरुद्वारे की वाणी, माँ की दुआएँ,
संग चलती रहीं उसकी सच्ची लगाएँ।
फाँसी का फंदा भी माला सा लगा,
मुस्कुराकर शहीद-ए-आज़म कहलाया।।


आज भी जब देखता हूँ उसका चेहरा,
लगता है जैसे जी रहा हूँ सवेरा।
जतिन का प्रण है – न झुकेगी ये क़लम,
भगत की राह पर चलूँ, रहे अमन।।

– ©️ जतिन त्यागी

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संघ है क्या?
संघ सबसे पहले और सबसे गहरा अर्थ महोपनिषद की इस सूक्ति से प्रकट होता है—

"अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्॥"

अर्थात – "यह अपना है, वह पराया है" – ऐसी संकीर्ण सोच तो छोटे मन वालों की होती है।
उदार हृदय वाले लोग तो पूरी वसुधा को ही अपना परिवार मानते हैं।

संघ वही है—
जहाँ सब नदियाँ आकर मिलती हैं, वही महासिंधु है।
जहाँ सारे मत, विचार, भाव और संस्कृतियाँ एकजुट होकर बहती हैं, वही संघ है।
हम वही हैं जो पूरी दुनिया को कुटुंब मानते हैं।
और यही भाव है – "हम हिंदू हैं। – जतिन त्यागी

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