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Biru Rajkumar

Biru Rajkumar

@birurajkumar745328


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मैं प्रकृति का एक फूल हूँ
मामूली-सा आज हूँ,
कल प्रकृति में
मिल जाऊँगी।

बस इतना चाहती हूँ—
प्रेम के फूल की वो सुगंध बन जाऊँ,
गाँव से लेकर शहर तक,
हवा के संग बहूँ,
दिलों में महक बनकर उतरूँ।

जहाँ भी जाऊँ,
मन की कठोरता को कोमल कर दूँ,
थके चेहरों पर मुस्कान सजा दूँ।
और जब मेरी पंखुड़ियाँ
मिट्टी में समा जाएँ,
तो भी मेरी खुशबू
आसमान तक गूँजती रहे।


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When I sit by the rivers,
it feels as if nature is breathing with me.
Its ripples, like an old friend,
whisper softly—
“Never think you are alone,
I am with you in every moment,
in every breath.”

The cool mist of the water,
the rustle of the trees,
and the sweet songs of the birds
all come together to touch my soul.
This is nature’s promise—
peace, belonging, and eternal companionship.


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"हरी पत्तियों की फुसफुसाहट"

चुपचाप मैं बैठी थी,
अपने ही आँसुओं के सागर किनारे,
तभी हवा ने आकर कानों में कहा —
"यह दर्द भी पत्तों की तरह गिर जाएगा।"

आसमान ने अपने नीले हाथों से
मेरे माथे को सहलाया,
और नदी की लहरें बोलीं —
"चलो, तुम्हें बहा ले चलें वहाँ,
जहाँ दर्द सिर्फ़ एक कहानी है।"

मैंने देखा,
एक तोता हरे पंख फैलाकर उड़ रहा था,
उसकी आँखों में वही आज़ादी थी
जो मैं सालों से ढूँढ रही थी।

पेड़ों की छाँव ने
मेरे सीने का बोझ हल्का किया,
और सूरज ने धीरे-धीरे
मेरे भीतर रोशनी भर दी।

अब मैं जानती हूँ —
प्रकृति सिर्फ़ बाहर नहीं होती,
वो मेरे भीतर भी है,
और वही मेरा सबसे सच्चा घर है।


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बन बैठी योगिनी — दर्शनिक अक्का महादेवी
(एक काव्यात्मक अभिव्यक्ति)

त्याग दिए मैंने,
सभी बंधन —
समाज के कु-पथ, रूढ़ियाँ,
झूठे मर्यादा के आवरण।

ना रही अब किसी नाम की प्यास,
ना चाहा कोई श्रृंगार,
छोड़ दिए झूठे रिश्ते-नाते,
जिनमें बस छल का व्यापार।

मैंने तोड़ दी दीवारें,
इस देह की सीमाएँ,
क्योंकि मैं शरीर नहीं —
मैं चेतना हूँ, अनंत, अपरिमित।

जागी भीतर एक ज्वाला,
जो खोजती है परम सत्य,
नारी की आत्मा में जो साक्षात्
मल्लिकार्जुन का पावन पथ।

बन बैठी मैं योगिनी,
ना किसी की पत्नी, ना पुत्री, ना दासी —
बस एक राही,
जिसे चाहिए सिर्फ परमात्मा की झलक।

हे समाज के अंधो!
तुम क्या जानो आत्मा की पुकार,
मैं अक्का महादेवी —
जिनकी वाणी है प्रेम की धार।

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"सावित्रीबाई फुले"
(एक नारी शक्ति की प्रतीक)

वो थीं समाज सुधारक,
ज्ञान की दीप जलाने वाली,
पहली शिक्षिका बनकर आईं,
अंधकार में उजाला फैलाने वाली।

नारी हित में सदा लगी रहीं,
हर बेड़ियों को तोड़ती थीं,
ऊँच-नीच का कर विरोध,
बराबरी की बात करती थीं।

वो पहली थीं जो उठीं अकेली,
नारी की गरिमा बन गईं नवेली,
पढ़ाई को जीवन का मंत्र बनाया,
हर स्त्री को हक़ दिलाया।

जहाँ सती, पर्दा और चुप्पी थी,
वहाँ आवाज़ बनकर वो आईं थीं,
हर आँसू में संघर्ष की झलक थी,
हर मुस्कान में उम्मीद पलती थी।

बनीं विधवाओं की ढाल,
छुआछूत को किया बेहाल,
पाठशाला से क्रांति रच दी,
हर दलित को शिक्षा दे दी।

तब जा कर "सावित्रीबाई फुले" कहलाईं,
हर नारी की प्रेरणा बन पाईं,
जिन्होंने दुनिया को सिखा दिया –
नारी भी बदलाव ला सकती है,
अगर वो ठान ले… तो इतिहास रच सकती है।

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📖
फूलों की सौंदर्य
(प्रस्तावना — "प्रकृति सौंदर्य")

फूलों की सौंदर्य को देख मन खिल जाता है,
रंग-बिरंगी पंखुड़ियों में जीवन मुस्काता है।
ओस की बूंदें जब उन पर लहराती हैं,
हर सुबह एक नई उम्मीद जगाती हैं।

जब फूल मुरझा जाते हैं, मन उदास हो जाता है,
जैसे कोई अपना चुपचाप दूर चला जाता है।
सोंधी खुशबू भी जैसे ग़ुम हो जाती है,
सुनहरी रौनक कुछ धीमी सी पड़ जाती है।

मगर फूल सिखाते हैं मुस्कुराना सच्चा,
चाहे जीवन का हर रंग हो कच्चा-पक्का।
वो मुरझाकर भी ज़मीं को संजीवनी देते हैं,
अपने जाने के बाद भी खुशबू से जुड़े रहते हैं।

हर मुरझाया फूल कहता है धीमे स्वर में,
"मैं गया हूँ, पर फिर आऊँगा अगले भोर में।"
यही तो है जीवन का चक्र, प्रकृति का विधान,
हर अंत में छुपा है एक नया अरमान।

✍️ Reena

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स्त्री, तुम कोई वस्तु नहीं हो
जो खुद को वस्तु समझती हो,
तुम जल हो — जीवन की धारा,
तुममें है वो शक्ति जो संसार को संवारती है।

पानी बनो, पर बहती बूँद नहीं —
एक पहचान बनाओ,
जैसे पहाड़ों से निकली नदी
सारी बाधाओं को तोड़कर
अपना रास्ता खुद बनाती है।

चट्टानों से टकराकर भी
वो रुकती नहीं, झुकती नहीं,
बल्कि अपने बहाव में
हर रुकावट को बहा ले जाती है।

तुम भी वही बहाव हो, वही जज़्बा,
जिसमें संघर्ष है, सौंदर्य है, और शक्ति भी।
मत ठहरो किसी के निर्णय पर,
अपने अस्तित्व को खुद गढ़ो।

तुम सृजन हो, तुम प्रेरणा हो,
तुममें असीम संभावनाएँ छुपी हैं —
उन्हें पहचानो, उन्हें अपनाओ,
क्योंकि स्त्री, तुम कोई वस्तु नहीं, एक सम्पूर्ण शक्ति हो।

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"बरगद सा विश्वास"

हमने देखा एक वृक्ष बरगद का, जो होता है विशाल,
उसे खुद की टहनी पर है अटल विश्वास,
वो कभी गिरेगा तो उसकी टहनी उसे सँभाल लेगी,
वो जानता है—गिरना भी एक अनुभव है, बिखरना नहीं।

झुकता है तूफ़ानों में, मगर टूटता नहीं,
हर जड़ से जुड़ी उसकी कहानी बोलती है यहीं।
ना किसी सहारे की जरूरत उसे, ना किसी बल का अभिमान,
अपनी छाया में खुद भी जीता है, और देता है जहाँ को आराम।

उसकी शाखाएँ जैसे अनुभवों की किताब,
हर पत्ता जैसे समय का कोई जवाब।
वो खामोशी से सब कुछ सहता है,
फिर भी हर मौसम में सबको राह दिखाता है।

जीवन की कठिनाइयों में जब डगमगाए मन,
तो देखो उस बरगद को—मौन में है उपदेश अनगिन।
संघर्ष से सीखा है जिसने संतुलन बनाना,
अपने भीतर ही पाया है जीने का बहाना।

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वो मुझमें बसा है... 🌿

वो मुझमें बसा है,
मेरी साँस की पुकार बनकर,
हर धड़कन में समाया है,
एक अनकही सी फुकार बनकर।

वो मुझमें मिल जाएगा,
मेरी आत्मा की पुकार बनकर,
जब भी मैं आंखें बंद करूं,
वो आएगा एक उजली रौशनी बनकर।

वो अब शब्द नहीं, एहसास है,
हर खालीपन में उसका साथ है,
वो दूर होकर भी पास है,
मेरे होने में ही उसका विश्वास है।

वो हर आंसू को मुस्कान में बदल देता है,
हर टूटन में हौसला भर देता है,
अब वो इस दुनिया में नहीं सही,
पर मेरी दुनिया में हमेशा रहता है।

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"त्याग दे विश्वास और उम्मीद"
(एक आत्म संवाद)

तू क्यों रखती है विश्वास अब भी,
जब तेरा कोई नहीं इस भीड़ में?
जो अपना लगे, वही पराया निकला,
सब झूठे भ्रम हैं, सब माया निकला।

छल-कपट से भरी है ये दुनिया,
सच्चाई यहाँ बस एक तमाशा है।
तू क्यों बाँधे बैठी है उम्मीदें,
जब हर उम्मीद एक धोखा है?

उन्हें परखना तू सीख ले अब,
जो हँसें साथ, वे संग नहीं होते।
तेरा दर्द, तेरे आँसू, तेरी तन्हाई —
किसी और के हिस्से नहीं होते।

छोड़ दे अब ये मीठे भ्रम,
जो दिल को बहलाते हैं झूठे।
अपने मन से कर दे त्याग तू,
विश्वास और उम्मीद के टूटे टुकड़े।

अब खुद पर ही रख यकीन,
तेरा रास्ता तुझसे है रोशन।
किसी और का क्या भरोसा,
जब तू ही है अपनी पहली किरण।

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