Prakruti ka aalap in Hindi Poems by Namita Gupta books and stories PDF | प्रकृति का आलाप

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प्रकृति का आलाप

प्रकृति का आलाप

क्रम संख्या

1.वाद ही वाद

2.सूरज के तेवर

3.प्रकृति का कहर

4.बौनी होती आस्था

5.घाटी का दर्द

वाद ही वाद

आतंकवाद, सामंतवाद, समाजवाद,

नस्लवाद, भाई–भतीजावाद ,

कही भ्रष्टाचार, गरीबी, महंगाई,

इन सबको हमें गिराना है ---

एक चीत्कार से ---

घबराए नेता जी के शब्द

हलक में ही अटक गए

घूमकर देखा तो सहम गए

रो रही थी धरती माँ !

करुणा से कातर हो-

पुत्र !–

मैंने तो तुम सबको जीवन दिया

धन , दौलत अकूत सम्पदा दी

धरती पर स्वर्ग बनाया ,

पर तू ना सहेज पाया

विकास की अंधी दौड़ ने

इसे और भी कुरूप बना दिया |

न खेत बचे , न खलिहान बचे,

न खनिज सम्पदा ,जंगल बचे ,

न हिम रहा ,न हिमालय रहा,

न धरा रही ,न गगन रहा,

फिर भी तू कितना मगन रहा |

तब्दील हुई नदिया-नद में,

छलनी करके ,छाती मेरी

कंक्रीटों के जंगल में

बैठा है तू किस मद में ।।

धरती से लेकर नम तक

हर जर्रा-जर्रा प्रदूषित है ।

घुट रहा इसमें दम मेरा

गंगा भी कितनी कुलषित है ।।

तू स्वयं हुआ है भ्रष्ट,

कैसे भ्रष्टाचार मिटाएगा ।

बोकर बीज बबूल के

फिर फल कैसे तू खाएगा |

हे! नारकीय! हे! नराधम ,

मेरी अस्मिता को तूने तार-तार किया

लहराती सतरंगी चूनर को बेजार किया ।

हे! सठ मूर्ख इन आपदाओं को

तूने ही आमंत्रण दिया ।

फिर क्यूँ इतना चिल्लाता ?

गर भूल गया धरती माँ को,

फिर खुद को कैसे बचाएगा |

अब भी वक़्त है प्यारे,

स्वयं अलख जगा दे,

सारे वाद के साथ

पर्यावरण संरक्षण वाद लगा दे ।

धरा का अस्तित्व बचा ले ।।

सूरज के तेवर

देखो गर्मी आई रे भइय्या,

सूखे पोखर ताल तलैया |

सूरज दादा हुए प्रचंड,

धरती चटकी खंड ,खंड |

सूखे खेत, खाली खलिहान,

खाली हाथ न एक रुपैया |

काले मेघा पानी बरसा,

प्यासी धरती प्यास बुझा |

भरी दोपहरी लू चले भारी,

अब छाव भी ना दे मडय्या |

फ्रिज, टीवी, ए.सी. बेकार,

बिन पानी के सब लाचार |

कट गए सारे बाग़-बगीचे,

किसके छाव में बैठे गइय्या ||

नेताओं के दावे हुए काफूर,

बूंद-बूंद को तरसे लातूर |

सूरज दादा मत झुलसाओ,

त्राहिमाम करें यह दुनिया ||

प्रकृति का कहर

प्रकृति तेरी महिमा

कितनी निराली,

पहाड़ों पे बरसा पहाड़ों का पानी,

जहां ख्वाब लेते थे अंगड़ाई,

जहां वादियों में प्रेम की अमराई |

जहां धरा अपना आँचल,

फैलाएँ लुटाती थी खुशियाँ,

जहां श्वेत मुकुट गौरव है उसका,

जहां झील में तैरते सैकड़ों जुगनू,

इठलाते थे ,अपने अप्रतिम सौन्दर्य को निहारते,

न थकता था मन, कभी |

प्रकृति ने मचाया क्रूर तांडव,

मेघों ने ढाया ऐसा कहर,

समाती जाती ज़िंदगी हर लहर,

हर लहर कर रही दर-बदर,

उड़ गए जुगनू,

टूट गए तारे,

गगन से बरपा है कहर,

धारणी का सीना हुआ चूर-चूर,

जिधर भी देखो,

बन गए दरिया समंदर ||

(कश्मीर में आई भयंकर बाड़ को समर्पित(

बौनी होती आस्था

मेरे घर के सामने,

सड़क के उस पार पार्क में,

बरगद का एक विशाल पेड़,

जिसकी जटाओं में

बच्चे झूला झूलते,

औरतें पति की दीर्घायु के लिए

उसकी पूजा करती |

हर कोई उस बूड़े बरगद को

श्रद्धा से शीश झुकाता,

पथिक भी उसकी ठंडी छाँव में,

कुछ देर अपनी थकान मिटाता |

शाम होते ही बच्चों के झुंड

क्रीडा, परिहास करते |

सैकड़ों पक्षीयों का बना यह रैन बसेरा,

मुझे भी यह बेहद सुकून देता,

ठंडी हवा के झोंके,

और लोगों का कोलाहल,

मुझे बरबस अपनी और खींच लेता |

सैकड़ों का यह आशियाना

मुझमें भी जीवन भर देता,

इसकी गौरव, महिमा से मेरा सिर

श्रद्धा से झुक जाता है |

सबकी आस्था का

यह पावन प्रतीक हो गया,

एक रात किसी ने इसकी

जड़ पर प्रहार कर दिया,

प्रातः ही यह आग पूरे शहर में

फैल गयी,

धर्म, संप्रदाय से जोड़कर

इसको खूब हवा दी |

बह गयी खून की नदियाँ,

बढ़ गयी दिलों में दूरियाँ |

जो सबको जीवन देता था,

जो सबका सहारा था,

आज वही बेसहारा हो गया |

सोंचती हूँ –

कि क्या हमारी आस्था इतनी बौनी है ?

कि उसमे कोई भी समा नहीं सकता ||

घाटी का दर्द

मैं घुप्प अंधेरे में चुप मौन खड़ा हूँ,

हर तरफ पसरा मौत का सन्नाटा,

हाहाकारी दैत्य का,

विनाशकारी अट्टाहस दहलाता है |

भूख से तड़पते लोग,

दूध को बिलखते बच्चे,

जीवन की जद्दोजहद में,

आकाश ताकते लोग,

कतरा-कतरा आँसू,

समंदर बन गया,

तैर रहें उसमे आशा और सपने |

आशियाने खंडित हुए

कागज की नाव जैसे,

पुल-दरख्त और मकान,

ढह गए तिनके से,

यह सपने बिखेर,

अब सवर नहीं पाएंगे |

दहशत की जद से,

उबर नहीं पाएंगे |

दुःख, दर्द के आग़ोश में सहमा पड़ा हूँ,

कल तलक तो सब इसके दीवाने थे,

फूलों की घाटी और शाही चश्मे,

बच्चों के किलकारी और कोलाहल से,

रोशन जमाना था |

इन खूबसूरत घाटियों और वादियों में,

कितनों ने गाए थे तराने,

चिनार के दरख्तों में

सजे सपने सुहाने |

इस झील में चलते-फिरते घर,

गुनगुनाते अफसाने,

मैं भी अपने सबसे शीर्ष आसान पर,

रजत मुकुट को धारण कर,

पुलकित, गौरान्वित होता |

उस जन्नत से सुन्दर,

ये धरती कि जन्नत है |

पर,

उसके कहर ने ऐसा सितम ढाया,

यह धरती का स्वर्ग,

हताहतों से कराह उठा है,

अपने प्यारो की पीड़ा से,

रक्तरंजित हो दोज़ख में पड़ा हूँ |

कल कि जन्नत,

आज जहन्नुम बन गया,

अपने अस्तित्व को बचाने को,

मैं खुद से लड़ रहा हूँ ||

(कश्मीर घाटी के आपदा में घायलो को समर्पित)

-नमित प्रकाश