RAGHVI SE RAGINI - 5 in Hindi Short Stories by Asfal Ashok books and stories PDF | राघवी से रागिनी (भाग 5)

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राघवी से रागिनी (भाग 5)

 बाहर लगे सार्वजनिक हेण्डपम्प से पानी भरकर लौटने के बाद मंजीत ने घर का दरवाजा बंद कर लिया। बाल्टी उसने रसोई के पास कच्ची मोरी पर रख दी और राघवी के साथ बर्तन धुलवाने लगा।

चाँद की हल्की रोशनी में मोरी का यह दृश्य बड़ा मनोरम था।

स्टील के बर्तन चांदनी रात में चाँदी से चमक रहे थे। रागिनी का दुपट्टा सीने से सरक गया था, जिसे देखती मंजीत की आंखें वहीं टिकी थीं। और बर्तन मलने से उसकी चूड़ियाँ हल्के-हल्के खनक रही थीं तो वातावरण में एक जलतरंग-सा बज रहा था।

शायद, असावधानी-वश उसकी पजामी की मोहरी गीली हो गई थी, और जूड़ा लगभग खुल चुका था। जब वह बाल समेट कर जूड़ा फिर से बांध रही थी, मंजीत ने शरारत कर उसके चेहरे पर पानी छिड़क दिया।

ठंड से सिहरते रागिनी ने उसको घूरा जरूर पर उस नजर में शिकायत नहीं, मोहब्बत भरी मुस्कान थी। प्यार भरा बदला लेने उसने जैसे ही पानी में हाथ डाल चुल्लू भरा, मंजीत ने उसकी कलाई पकड़ ली और हल्के से खींच लिया तो दो पल को दोनों एक-दूसरे के इतने करीब आ गए कि साँसें साँसों से टकराने लगीं। फिर रागिनी ने हँसते हुए खुद को छुड़ा लिया और बर्तन की डलिया पर झुक गई।

काव्या होती तो यह दृश्य एकटक देखती रह जाती। यह दुर्लभ पल इतना कीमती था कि उसका मन अपने खोये हुए प्रेम को बरबस याद करने लगता।

बर्तन धुलने के बाद मंजीत और रागिनी ने झुककर डलिया उठाई और उसे किचन में ले आए। लेकिन डलिया फर्श पर रख जब उठ रहे थे चेहरे आपस में टकरा गए और उसी क्षण मंजीत ने अनायास उसके माथे पर एक चुंबन अंकित कर दिया— इतना हल्का कि रागिनी को पहले लगा शायद हवा का झोंका था। पर जब उसने आँखें उठाईं तो मंजीत की नजरें उस पर जमी मुस्कुरा रही थीं। रागिनी ने उसके कंधे पर अपनी ठुड्डी टिका ली। प्रेम में पगी उस वक्त वह इतनी मासूम और भोली लग रही थी कि विशुद्धमति देखतीं तो उसे बाहों में भरकर अपनी दहकती छाती ठंडी कर लेतीं।

बर्तन रसोई में जमाने के बाद मंजीत छत पर रावी तट का नजारा देखने चला गया। रागिनी कमरे में जाकर दर्पण के आगे अपनी चोटी संवारने लगी। उसने परांदा निकाला, लाल रेशमी वाला, जो आज शाम ही मंजीत ने लाकर दिया था। जब मंजीत वापस लौटा और उसने दरवाजे पर हल्की खटखट की, उसने मुस्कुराते हुए दरवाजा खोल दिया।

उस वक्त रेशम की हल्की पीली मैक्सी पहने और पीठ पर लटकती काली चोटी में लाल परांदा बांधे वह दीये की रोशनी में इतनी ख़ूबसूरत लग रही थी कि मंजीत की नजरें जमी रह गईं! फिर उसका चेहरा अपनी हथेलियों में भर लिया उसने। और फिर आवेग में उसका चमकता रुखसार इतनी जोर से चूम लिया कि चुंबन की मधुर ध्वनि पूरे घर में भर गई।

तब लाज से सुर्ख हुए अपने गाल लिए रागिनी ने दरवाजा ऐसे झटके से बंद कर लिया, जैसे कोई देख न ले! दो पल बाद हौले से मुस्कुराते हुए वह बुदबुदाई, 'तुम्हारा जोश अब भी कम नहीं हुआ…'

गोया पीडीए क्वार्टर की वह घटना याद हो आई थी, जब सुस्त से बड़े मंजीत ने उसे आते ही उछल कर अपनी बाहों में भर बेसाख्ता चूम लिया था।

रागिनी की बुदबुदाहट सुन मंजीत का जोश और बढ़ गया। उसके ओठों पर अपने बेसब्र ओठ रख वह भी बुदबुदाने लगा, 'हुन तां वड्डी माता जी ने चोला तिआगण दी इजाज़त दे नाल प्राइश्चित मंत्र वी दे दित्ता है!'

सुनकर रागिनी की साँसें पहले तेज हुईं, फिर रुक-सी गईं। उसने आँखें बंद कर लीं और खुद को उसके हवाले कर दिया।

तब मंजीत ने धीरे से उसे दीवार से सटा लिया और मैक्सी का एक-एक हुक खोलने लगा।

हरेक खुलते हुक के साथ रागिनी की साँसें और भारी होती गईं। और होंठ कंपकंपाहट से भरते चले गये।

"मंजीत..." उसने दूर से आती-सी आवाज़ में कहा, जैसे- दरो-दीवार से काव्या की जासूसी का पता चल गया हो, "धीरे... कोई सुन लेगा।"

"इस वक्त यहाँ कोई नहीं है..." वह फुसफुसाया, और उसके गले की नस पर अपने होंठ रख दिए। मानो उसे भी काव्या के आकर लौट जाने की खबर मिल गई थी!

नस पर ओठों की थरथराहट से रागिनी की मदहोश गर्दन पीछे की ओर लुढ़क गई। मैक्सी कंधों से सरक कर कमर तक आ चुकी थी और गोरी देह दीये की मद्धिम रोशनी में चाँदी-सी चमक उठी थी। और इससे मुतासिर मंजीत ने ब्रा का हुक खोल, होंठ उसकी छाती पर उतार दिए। तब थोड़ी देर में ही रागिनी की देह-दहलीज पर एक अनोखी दस्तक होने लगी। कमर उसकी कमर से सटाते पीठ कलाइयों में बांध ली उसने। चूड़ियां छिदने लगीं तो मंजीत बाहुपाश खुलवाते बुदबुदाया, 'लाओ उहनां नूं कढ दियां।' 

'किउं?’ लंबे बैराग के बाद चूड़ियां उसने आज ही तो पहनीं!

‘हुणे तां युद्ध होणा ऐ ना, चूर-चूर हो जाणगियां!’ उसने शरारत से कहा।

'सानूं तां पता सी, बारां सालां तोँ काह्नू पीछे लग्गे फिरदे सी...' रागिनी फुसफुसाई।

'इसी वास्ते...तां!' मंजीत ने शरारत से हँसते, अपनी छाती उसकी पीठ से चिपका, हाथ हाथों में ले चूड़ियाँ निकाल ताख पर रख दी। फिर उसे उल्टा ही उठा लिया और जोश में होश खो घुमाकर शैया पर ला गिराया!

वह तो सजग रागिनी अपनी कोहनियों-घुटनों के बल सध गई वरना चोट लग जाती...। उसने गर्दन मोड़ मंजीत को शिकायती नजरों से घूरा। पर उसकी आँखों में न डर था, न लाज, बस एक उद्दंड मुस्कान थी...।

काव्या तो चली गई थी पर निर्मलमति का कथन अब चरितार्थ होने जा रहा था... क्योंकि शैया पर रागिनी लक्ष्मी मानिंद अश्विनी बनी नजर आ रही थी और उसकी पिछाड़ी थामे फर्श पर खड़ा मंजीत हैहय अवतारधारी विष्णु!

हल्की चीख, लम्बी सिसकारी और फिर तख्त की चूलें हिल उठीं तो थरथराते ओठों से प्रार्थना-सी कराह निकल उठी।  

बाहर चाँद अब पूरी तरह खिल चुका था। रावी की लहरें दूर किनारे से टकरा रही थीं। और कमरे में दो प्रेमी, प्रायश्चित मंत्र बुदबुदा रहे थे, “जो मे जीवा हिंसिया, ते सव्वे जीवा खमंतु मे। मिच्छामि दुक्कडं॥”

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