RAGHVI SE RAGINI - 4 in Hindi Short Stories by Asfal Ashok books and stories PDF | राघवी से रागिनी (भाग 4)

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राघवी से रागिनी (भाग 4)

राघवी दी का आश्रम से बहिर्गमन देख काव्या का मन अस्थिर हो गया था। क्योंकि उसने भी प्रेम में धोखा खाकर आश्रम की शरण ली थी। सत्र समाप्ति के बाद जब वे लोग चले गए, रात को आश्रम से चुपके से निकल वह भी रागिनी-मंजीत के ठिकाने की ओर चल पड़ी। उस गहरी रात में चाँद की मद्धिम रोशनी उसे रास्ता दिखा रही थी। उसका इरादा केवल यह देखना था कि क्या वह प्रेम, जो उसने अपने जीवन में खो दिया था, राघवी दी और मंजीत के जीवन में जीवित है? वह समझना चाहती थी कि- क्या प्रेम वाकई जीवात्मा का जीआत्मा से संगम है, जैसा बड़ी माता जी और राघवी दी अपने प्रवचनों में बताया करती थीं या उससे भिन्न जो संसार में दो व्यक्तियों के बीच दिखता है...।

नदी घाट पर अपनी पृथक कुटिया डालकर रह रहीं बुजुर्ग साध्वी निर्मलमति ने उसे रात में यों निपट अकेले जाते देखा तो अचानक टोक दिया, 'काव्या कहाँ जा रही हो, ऐसी सर्द रात में?'

'राघवी दी से मिलने!' उसने सहमते हुए कहा।

'क्यों?'

'देखने कि- क्या प्रेम वाकई आत्मिक है जो राघवी दी अपने प्रवचनों में बताती रहीं...!'

'बताने से क्या, करेगी तब पता चलेगा...'

'क्या! यह भी कोई जोखिम है...?'

'जोखिम नहीं, साक्षात दुर्घटना... प्रेम औरत को विवश कर देता है...उसमें वह घोड़ी तक बन जाती है।'

'औरत घोड़ी बन जाती है...' उसने अचरज से मुंह फाड़ा।

'हाँ!' निर्मलमति प्रवचन के मूड में आ गईं। वे बताने  लगीं कि “एक बार की बात है, भगवान विष्णु वैकुण्ठ लोक में लक्ष्मी माता के साथ विराजमान थे। उसी समय वहाँ उच्चैश्रवा नामक अश्व पर सवार होकर रेवंत का आगमन हुआ। उच्चैश्रवा की सुंदरता की तुलना किसी अन्य अश्व से नहीं की जा सकती थी। वह समुद्र मंथन से प्रकट नवरत्नों में से एक था। लक्ष्मी जी ने पहली बार देखा तो उस अश्व की शोभा देखती रह गईं। जब विष्णु ने लक्ष्मी को उस अश्व को दत्तचित्त देखते पाया तो उन्होंने उनका ध्यान अश्व की ओर से हटाना चाहा। लेकिन लक्ष्मी जी तो अश्व को देखने में मगन थीं...। विष्णु द्वारा बार-बार झकझोरने पर भी उनका ध्यान अश्व पर से नहीं हटा तो उन्हें क्रोध आ गया और उन्होंने लक्ष्मी को शाप दे दिया, तुम इस अश्व के सौंदर्य में इतनी खोई हो कि मेरे द्वारा बार-बार झकझोरने पर भी तुम्हारा ध्यान इसी में लगा रहा, अतः तुम अश्विनी हो जाओ!

इतना सुनते ही लक्ष्मी जी के पैरों के नीचे की जमीन खिसक गई। वे तुरन्त क्षमा माँगते विष्णु से प्रार्थना करने लगीं कि- मैं तो आपके बिना एक पल भी जीवित नहीं रह पाऊँगी...मुझ पर दया करें, अपना शाप वापस ले लें।पर विष्णु ने कहा कि- अब आपको कुछ समय तो अश्व की योनि में रहना ही होगा...जब आपकी कोख से पुत्र उत्पन्न हो जाएगा तब उस योनी से मुक्ति मिलेगी।

सुनकर लक्ष्मी ने सिर पीट लिया कि, हे प्रभु! ये कैसा दंड..."

कहकर उन्होंने एक उसाँस भरी और काव्या को देखा, जिसके मुख पर हवाइयाँ थीं। आगे निर्मलमति ने बताया कि- "इस तरह माता लक्ष्मी पृथ्वी पर अश्व की योनी में जीवन व्यतीत करने आ गईं। यहाँ आकर उन्होंने काफी समय तक भगवान शिव की आराधना की और उन्हें अपने तप से प्रसन्न भी कर लिया! पर शिव जी ने कहा कि- शाप जिसने दिया, निवारण तो वही कर पायेगा, इसलिए आप भगवान विष्णु की आराधना करें। ...तो लक्ष्मी ने विष्णु की आराधना आरंभ कर दी। तब कुछ समय बाद भगवान विष्णु ने स्वयं अश्व रूप में अवतार लिया और माता लक्ष्मी के साथ अश्व योनी में समय व्यतीत करने लगे।”

यह सुन काव्या ने घने कौतूहल से पूछा, 'क्या सचमुच!'

'हाँजी, पुराणों में लिखा है!' निर्मलमति ने विश्वास दिलाया, “उन्होंने यमुना और तमसा के किनारे कुछ काल तक रमण किया जिससे लक्ष्मी ने कुछ समय बाद एकवीर नामक पुत्र को जन्म दिया।”

अब उसका आश्चर्य सातवें आसमान पर... नेत्र चौड़ाकर बोली, 'अरे- गजब!' गोया विश्वास नहीं हो रहा था कि राघवी दी प्रेम में पड़कर घोड़ी बन जाएंगी! तब निर्मलमति यह कह अपनी साधना में लग गईं कि- 'न मानो तो देख आओ, जाके!' 

...

काव्या की जिज्ञासा अब और तेज हो गई थी। तेज कदमों से वह आगे बढ़ चली। नहीं जानती थी कि यह रास्ता उसे कहाँ ले जाएगा, लेकिन वह एक खोज में निकल पड़ी— एक ऐसी खोज, जो शायद उसे खुद से दोबारा मिला दे।

गाँव की गलियों में भटकते पूछते उसने मंजीत के घर के पास पहुँच कर देखा कि खिड़की से हल्की रोशनी बाहर आ रही थी। वह दबे पांव बढ़ गई और खिड़की के किनारे खड़ी हो, भीतर झाँकने लगी। भीतर, दीदी और मंजीत रसोई में साथ खड़े नजर आ रहे थे। मंजीत ने ट्राउजर और एक ढीली-ढाली कुर्ती पहन रखी थी। केस जो अब तक उसने देखे ही नहीं थे क्योंकि वे सलीके से सिर पर बंधी पगड़ी में छुपे रहते, आज उसकी पीठ और कंधों पर लहरा रहे थे। दाढ़ी भी खुली हुई। और इन सबके बीच उसका सौम्य मुखड़ा प्रौढ़ता की सुंदर छवि प्रतीत हो रहा था।

दीदी ने भी एक सूती छोटी बाँह की ढीली-ढाली कुर्ती-पजामी पहनी हुई थी और बाल मानो जल्दबाजी में सिर ऊपर बेतरतीब जूड़े की शक्ल में बांध रखे थे, जिनकी कुछेक लटें उनकी कनपटियों और पीछे गर्दन तक लटक रही थीं। इस वेशभूषा में आज वे नितांत एक साधारण घरेलू महिला लग रही थीं, न कि निर्धारित ड्रेसकोड वाली असाधारण साध्वी।

न जाने किन अनकही बातों में मशगूल मंजीत आटा गूँथ रहा था और दी सब्जी काट रही थीं। काव्या यह दृश्य किसी अचंभे की तरह देख रही थी। तभी न जाने क्या बात हुई कि राघवी दी ने मंजीत के गाल पर आटे का एक टीका लगा दिया!

'अरे, रागिनी! तू तो रोटी से ज्यादा मेरे दिल को जलाती है...' मंजीत ने मजाक में कहा और हँसते हुए उन्हें अपनी बाहों में खींच लिया, तो दीदी ने भी उसकी छाती पर एक हल्का-सा मुक्का मार दिया और हँसते हुए कहने लगीं, 'बस, वड्डी देर हो गई मेरे शेफ! अब झट रोटी बना, पेट विच चूहे कूद रहे ने…'

काव्या यह देख स्तब्ध थी। यह साधारण पल कितना गहरा था— उनका साथ, उनकी हँसी, एक-दूसरे के प्रति सहज स्नेह, यह चुहलबाजी।...वह खड़ी रही उन्हीं पैरों, अपने अतीत को याद करती हुई। समय जाने कितना गुजर गया! जब ध्यान टूटा, उसने देखा— दोनों साथ बैठकर खाना खाने लगे थे। मंजीत ने दी के लिए एक कौर बनाया और उन्हें खिला दिया, दी ने भी वही किया, और दोनों की आँखों में एक-दूसरे के लिए अपार प्रेम झलक उठा। वह ताज्जुब में थी कि बिना बिजली के इस घर में, केवल दिये की रोशनी के सहारे वे कैसे प्रसन्नता पूर्वक जीवन-यापन कर रहे थे...। काव्या को अपने खोए हुए प्रेम की याद आई, लेकिन इस बार दुख की जगह एक अजीब सी तसल्ली थी। दी जब बर्तन समेट आंगन में बनी मोरी पर पहुंच गईं, मंजीत बर्तन धुलवाने बाल्टी उठा घर के बाहर लगे हैंडपंप से पानी भरने चला गया। निर्मलमति का कयास सरासर झूठ साबित हो रहा था कि पुरुष के प्रेम में पड़कर स्त्री घोड़ी बन जाती है, यहां तो वह मंजीत को ही उल्टा गदहा बना देख रही थी! सोच रही थी कि, जैन शास्त्र हो या कोई अन्य धर्म शास्त्र, स्त्री को नीचा दिखाने से नहीं चूकता। लगता है, शास्त्रकारों और प्रवचनकारों ने इन कहानियों में अपने ही अनुभव भर दिये हैं। जबकि हकीकत में तो आज यही पाया उसने कि दुनियाभर की आफ़तों के बावजूद प्यार में कितनी हिलोर, कितना अनिर्वचनीय सुख है!

गली से निकलते-निकलते उसने निश्चय कर लिया कि, अतीत के दुख को अब सदा के लिए अलविदा कह देगी। क्योंकि आज उसने जान लिया कि प्रेम केवल दुख या धोखा नहीं; बल्कि विश्वास, साथ, और अन्तरात्मा की एकता भी है। मंजीत और राघवी का प्रेम उसके लिए एक सबक बन गया था। 

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