अनोखी चाय
लेखक: विजय शर्मा एरी
शब्द संख्या: लगभग १५००
गाँव का नाम था चंदनपुर। पहाड़ों की गोद में बसा यह गाँव सुबह-सुबह बादल के आगोश में लिपटा रहता। धुंध के उस पर्दे के पीछे से सूरज जब झाँकता, तो लगता जैसे कोई शरारती बच्चा माँ की साड़ी से खेल रहा हो। ठंडी हवा में चाय की भाप उड़ती, और हर घर से एक ही गंध फैलती—अदरक, इलायची और चायपत्ती की।
पर आज कुछ अलग था।
रामलाल चाचा की दुकान पर सुबह सात बजे भी ताला लटक रहा था। गाँव के लोग हैरान। चाचा पिछले पैंतीस साल से सुबह छह बजे दुकान खोलते थे। उनकी चाय के बिना गाँव की सुबह अधर में लटक जाती थी।
“क्या हुआ होगा?” बूढ़ी अम्मा ने पूछा।
“शायद बीमार हैं,” मुंशीजी ने अटकल लगाई।
“या चायपत्ती खत्म हो गई,” छोटू ने मज़ाक किया।
पर सच कुछ और था।
रामलाल चाचा घर के आँगन में बैठे थे। सामने एक पुराना ताँबे का केतली। उसमें पानी उबल रहा था, पर चायपत्ती नहीं डाली थी। उनकी आँखें दूर पहाड़ों पर टिकी थीं।
“चाचा, दुकान नहीं खोलोगे?” पड़ोस की राधा ने दरवाजे से झाँकते हुए पूछा।
“आज नहीं, बेटी। आज कुछ और बनाना है।”
राधा समझी नहीं, पर चली गई।
दोपहर तक गाँव में खुसुर-फुसुर शुरू हो गई। कोई कहता, चाचा ने लॉटरी जीत ली। कोई कहता, उनकी बेटी शहर से लौट रही है। पर कोई नहीं जानता था कि रामलाल चाचा पिछले तीन दिन से एक पत्र पढ़ रहे थे।
पत्र उनकी माँ का था।
माँ, जो पैंतीस साल पहले गुज़र गई थीं।
पत्र में सिर्फ़ दस लाइनें थीं:
“बेटा, मेरे जाने के बाद एक बार ‘अनोखी चाय’ ज़रूर बनाना। वो चाय नहीं, याद है। वो चाय नहीं, दुआ है। वो चाय नहीं, वक़्त है। जब मन भारी हो, जब यादें चुभें, तब बनाना। सामान मेरे बक्से में है।”
रामलाल चाचा ने बक्सा खोला। उसमें एक मिट्टी का डिब्बा था। डिब्बे पर लिखा था—अनोखी चाय।
अंदर थीं:
एक मुट्ठी सूखी गुलाब की पंखुरियाँ
दो लौंग
एक दालचीनी की छड़ी
तीन इलायची
एक चुटकी केसर
और एक छोटा कागज़, जिस पर लिखा था: “पानी में यादें उबालो, चाय में आँसू मत डालना।”
चाचा समझ गए।
शाम ढलते-ढलते रामलाल चाचा ने केतली चढ़ाई। पानी उबला। गुलाब की पंखुरियाँ डालीं। लौंग, इलायची, दालचीनी। केसर। चीनी नहीं। दूध नहीं।
चाय तैयार थी। रंग गुलाबी। सुगंध ऐसी कि आँगन में बैठी बिल्ली भी मुड़कर देखने लगी।
चाचा ने एक प्याली ली। घूँट भरा।
और रो पड़े।
पर ये आँसू दुख के नहीं थे।
उसी शाम गाँव के चौक पर हलचल थी। पंचायत थी। मुंशीजी ने बताया कि शहर से एक कंपनी आ रही है। गाँव की ज़मीन खरीदने। चाय बागान लगाने। पुराना जंगल काटना पड़ेगा। स्कूल बंद करना पड़ेगा। नदी का रास्ता बदलना पड़ेगा।
“हम मना कर देंगे,” सरपंच बोले।
“पर पैसा बहुत दे रहे हैं,” मुंशीजी ने कहा।
“पैसा सब कुछ नहीं,” अम्मा ने चिल्लाकर कहा।
बच्चे चुप थे। वो समझते नहीं थे, पर डरते थे।
तभी रामलाल चाचा वहाँ पहुँचे। हाथ में केतली। प्यालियाँ।
“चाय पीजिए,” उन्होंने कहा।
सब हैरान।
“चाचा, ये क्या?” सरपंच ने पूछा।
“अनोखी चाय।”
एक-एक प्याली बँटी। कोई चीनी नहीं पूछी। कोई दूध नहीं माँगा।
पहला घूँट।
मुंशीजी की आँखें बंद हो गईं। उन्हें अपनी माँ की गोद याद आई। वो दिन जब वो पहली बार स्कूल गए थे।
अम्मा ने प्याली मुँह से लगाई। उन्हें अपनी शादी की सुबह याद आई। जब उनके पति ने पहली बार उनके लिए चाय बनाई थी।
सरपंच को अपना बचपन याद आया। जब वो इसी चौक में गिल्ली-डंडा खेलते थे।
छोटू को उस दिन की याद आई, जब उसने पहली बार साइकिल चलाई थी। गिरा था। रोया था। पर फिर उठा था।
हर किसी को अपनी कोई याद आई। कोई खोई हुई। कोई भूली हुई।
चाय खत्म हुई।
चुप्पी थी।
फिर सरपंच बोले, “ये ज़मीन नहीं बिकेगी।”
मुंशीजी ने सिर हिलाया। “पैसे से यादें नहीं खरीदी जा सकतीं।”
अम्मा ने कहा, “ये जंगल हमारी साँसें हैं।”
फैसला हो गया।
रात को रामलाल चाचा फिर आँगन में थे। केतली खाली। पर मन भरा हुआ।
तभी दरवाजे पर दस्तक हुई।
राधा थी। उसके साथ गाँव के सारे बच्चे।
“चाचा, वो चाय फिर बनाओगे?”
चाचा मुस्कुराए। “सामान खत्म हो गया।”
“तो फिर?” छोटू ने पूछा।
“तो अब तुम बनाओगे।”
चाचा ने बच्चों को बुलाया। सबको एक-एक चीज़ दी।
“ये गुलाब की पंखुड़ी—ये प्यार है।”
“ये लौंग—ये दर्द है।”
“ये दालचीनी—ये याद है।”
“ये केसर—ये उम्मीद है।”
और फिर बोले, “अब तुम बताओ, तुम्हारी चाय में क्या डालोगे?”
एक बच्चे ने कहा, “मैं अपनी माँ की हँसी।”
दूसरे ने कहा, “मेरा पहला स्कूल का दिन।”
तीसरे ने कहा, “वो दिन जब मैंने पहली बार पतंग उड़ाई।”
चाचा ने कहा, “बस यही है अनोखी चाय। जो तुम्हारे पास है, वही डाल दो।”
अगली सुबह दुकान फिर खुली। पर अब सिर्फ़ चाय नहीं बिकती थी।
लोग आते। अपनी यादें लाते। कोई कहता, “मेरी बेटी की पहली साइकिल।” कोई कहता, “मेरे पिता का आखिरी पत्र।”
रामलाल चाचा केतली में पानी उबालते। यादें डालते। चाय बनाते।
और गाँव फिर से हँसने लगा।
कंपनी आई। बात की। मिन्नत की। पर गाँव ने मना कर दिया।
कंपनी चली गई।
पर चाय रह गई।
अब चंदनपुर में हर घर में एक डिब्बा है। उस पर लिखा है—अनोखी चाय।
और हर शाम, जब सूरज डूबता है, गाँव में एक ही सुगंध फैलती है।
गुलाब। लौंग। दालचीनी। केसर।
और यादें।
समाप्त
(शब्द संख्या: १५०२)