dream home in Hindi Human Science by Vijay Erry books and stories PDF | सपनों का आशियाना

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सपनों का आशियाना

सपनों का मंडप
लेखक: विजय शर्मा एरी
शब्द संख्या: लगभग १५००
भाग १ – सपनों की बुनियाद
अजय की नींद टूटी तो उसने देखा कि उसका बिस्तर चारों तरफ से चमकती हुई रोशनी से घिरा हुआ है। वह उठा, खिड़की खोली। बाहर का दृश्य वैसा ही था – छोटा-सा गाँव, कच्ची सड़कें, दूर पहाड़ी पर बनी पुरानी हवेली। लेकिन आज हवा में कुछ अलग था। एक मीठी खुशबू, जैसे चमेली के फूलों की।
अजय ने घड़ी देखी – सुबह के चार बज रहे थे। वह फिर लेट गया, पर नींद नहीं आई। उसका मन बार-बार उसी सपने की ओर खिंचा चला जा रहा था जो पिछले सात दिनों से हर रात उसे दिखाई दे रहा था। सपने में एक मंडप था – सोने-चाँदी का बना, फूलों से सजा, चारों ओर दीप जल रहे थे। मंडप के बीच में एक दुल्हन खड़ी थी, जिसका चेहरा ढका हुआ था। वह दुल्हन हर बार कुछ कहना चाहती थी, पर शब्द उसके मुँह से निकलते ही हवा में घुल जाते।
अजय ने आँखें बंद कीं। आज फिर वही मंडप। आज दुल्हन ने घूँघट हटाया। उसका चेहरा… अजय चौंक पड़ा। यह चेहरा तो उसका अपना था – पर औरत का।
भाग २ – गाँव की रातें
अजय गाँव का इकलौता इंजीनियर था। शहर से लौटकर उसने अपने पिता की पुरानी दुकान को कंप्यूटर की दुकान में बदल दिया था। गाँववालों को उस पर गर्व था, पर रातें उसकी अकेली थीं।
उस रात वह दुकान बंद करके घर लौटा। रास्ते में बूढ़ी अम्मा मिलीं।
“बेटा, आजकल रात को हवेली की तरफ मत जाना।”
“क्यों अम्मा?”
“वहाँ कोई औरत रोती सुनाई देती है। कहते हैं, सपनों का मंडप है वहाँ। जो भी जाता है, उसकी नींद चली जाती है।”
अजय हँसा। “अम्मा, ये सब अंधविश्वास है।”
पर घर पहुँचकर उसने दरवाजा बंद किया तो मन में एक सिहरन दौड़ गई।
भाग ३ – पहली मुलाकात
अगली रात अजय सो नहीं सका। उसने टॉर्च लेकर हवेली की ओर चल दिया। रास्ता अंधेरा था, पर उसकी टॉर्च की रोशनी में कुछ चमक रहा था – जैसे कोई सोने का धागा। वह धागे के पीछे-पीछे चलता गया।
हवेली का दरवाजा खुला था। अंदर एक बड़ा-सा आँगन, बीच में वही मंडप। पर यह मंडप असली था – लकड़ी का, फूलों से सजा, चारों ओर दीप जल रहे थे।
मंडप के नीचे वही दुल्हन खड़ी थी। उसने घूँघट हटाया। चेहरा… अजय का अपना।
“तुम कौन हो?” अजय ने पूछा।
“मैं तुम्हारा सपना हूँ।” दुल्हन की आवाज़ में उसकी अपनी आवाज़ थी। “तुमने मुझे सात साल पहले छोड़ दिया था।”
“क्या बकवास है ये?”
“याद करो। सात साल पहले तुमने एक कहानी लिखी थी – ‘सपनों का मंडप’। तुमने लिखा था कि तुम एक औरत बनकर अपनी शादी देखोगे। फिर तुमने कहानी फाड़ दी। मैं वो फटी हुई कहानी हूँ।”
अजय की साँस रुक गई। सात साल पहले उसने सचमुच एक कहानी लिखी थी। कॉलेज के दिनों में। उसने उसे फाड़कर कूड़े में फेंक दिया था।
भाग ४ – मंडप का रहस्य
“तुम यहाँ क्यों आई?” अजय ने पूछा।
“क्योंकि तुम मुझे पूरा नहीं कर सके। तुमने कहानी अधर में छोड़ दी। अब मैं तुम्हारे सपनों में आती हूँ। जब तक तुम मुझे पूरा नहीं करोगे, मैं यहीं रहूँगी।”
“कैसे पूरा करूँ?”
“मंडप में आओ। मेरे साथ शादी करो।”
अजय हँसा। “ये पागलपन है।”
“पागलपन नहीं, सच्चाई। तुमने मुझे बनाया था। अब मुझे पूरा करो।”
अजय मंडप की ओर बढ़ा। जैसे ही उसका पैर मंडप में पड़ा, सारी रोशनी बुझ गई। अंधेरा। फिर एक तेज चमक। जब आँखें खोलीं, वह खुद दुल्हन बन चुका था। लाल जोड़ा, मंगलसूत्र, सिंदूर।
भाग ५ – दुल्हन का दर्द
अब अजय दुल्हन था। उसने आईने में खुद को देखा। उसकी आँखें नम थीं।
“तुम्हें कैसा लग रहा है?” उसकी अपनी आवाज़ कहीं से आई।
“डर लग रहा है।”
“यही डर मैं सात साल से महसूस कर रही हूँ। तुमने मुझे बनाया, फिर छोड़ दिया। अब तुम मेरी जगह पर हो।”
अजय (अब दुल्हन) ने मंडप में कदम रखा। वहाँ कोई दूल्हा नहीं था। सिर्फ़ एक खाली कुर्सी।
“दूल्हा कौन है?” उसने पूछा।
“तुम खुद।”
भाग ६ – शादी का दिन
अगली रात फिर मंडप। इस बार दूल्हा भी था – अजय का पुरुष रूप। दोनों एक-दूसरे के सामने खड़े थे।
“तुम्हें याद है तुमने कहानी में क्या लिखा था?” दूल्हे ने पूछा।
“हाँ। मैंने लिखा था कि दुल्हन अपने सपनों का मंडप खुद बनाएगी। कोई उसे बाँधेगा नहीं।”
“तो अब करो।”
दुल्हन (अजय) ने मंडप की सारी सजावट अपने हाथों से उतारी। फूल फेंके। दीप बुझाए। फिर उसने अपना घूँघट उठाया।
“मैं तुम्हारी गुलाम नहीं। मैं तुम्हारा सपना हूँ, पर तुम्हारा नहीं।”
उसने मंगलसूत्र तोड़ा। सिंदूर पोंछा।
भाग ७ – मुक्ति
जैसे ही मंगलसूत्र टूटा, मंडप हवा में उड़ने लगा। सोने-चाँदी के खंभे पिघलने लगे। दूल्हा गायब हो गया। दुल्हन फिर अजय बन गया।
पर अब वह मंडप में अकेला नहीं था। चारों ओर गाँव के लोग खड़े थे। अम्मा, उसकी माँ, पिता, दोस्त। सब चुप।
“ये क्या था?” अजय ने पूछा।
“तुम्हारा सच।” अम्मा ने कहा। “तुम हमेशा अपने सपनों से डरते थे। तुमने अपनी कहानी फाड़ दी क्योंकि तुम डर गए थे कि लोग क्या कहेंगे। आज तुमने उसे पूरा किया।”
भाग ८ – नया मंडप
अगली सुबह अजय उठा तो उसका बिस्तर वैसा ही था। कोई रोशनी नहीं। कोई खुशबू नहीं। पर उसका मन हल्का था।
उसने अपनी पुरानी डायरी निकाली। फटी हुई कहानी के टुकड़े अभी भी थे। उसने उन्हें जोड़ा। फिर नया पेज खोला।
लिखा:
“सपनों का मंडप कोई सोने-चाँदी का नहीं होता। वह दिल में बनता है। जहाँ डर नहीं, प्यार है। जहाँ बंधन नहीं, आज़ादी है।”
उसने कहानी पूरी की। इस बार दुल्हन ने शादी नहीं की। उसने मंडप जलाया। और राख से एक नया पौधा उगाया।
भाग ९ – गाँव की सुबह
अजय दुकान खोलने गया। रास्ते में बच्चे दौड़ रहे थे। उसने एक बच्ची को अपनी कहानी की कॉपी दी।
“ये पढ़ो। अपने सपने कभी मत छोड़ना।”
शाम को गाँव में उत्सव था। अजय ने मंडप बनवाया – बांस का, सादा। कोई सजावट नहीं। सिर्फ़ एक मेज़, उस पर उसकी कहानी।
लोग आए। पढ़ा। कुछ हँसे। कुछ रोए।
रात को अजय सोया। कोई सपना नहीं आया। बस एक हल्की-सी हवा। जैसे कोई कह रहा हो – “शुक्रिया।”
भाग १० – अंत
सपनों का मंडप अब गाँव का हिस्सा बन गया। बच्चे वहाँ बैठकर कहानियाँ लिखते। कोई डरता नहीं। कोई छोड़ता नहीं।
अजय की डायरी में आखिरी पंक्ति थी:
“सपने पूरे करने के लिए नहीं, जीने के लिए होते हैं।”
समाप्त
(शब्द गणना: १४९२)