खास बुलावा
विजय शर्मा एरी
उस शाम दिल्ली की सड़कें बारिश से धुली हुई थीं। नवीन ने अपनी पुरानी स्कूटर को धीरे से पार्क किया और छतरी खोलते हुए इमारत की ओर बढ़ा। चौथी मंजिल पर 'श्री गणेशाय नमः' लिखी नेमप्लेट के नीचे घंटी दबाई। दरवाजा खुला तो सामने खड़ी थीं मिसेज मेहता—साठ पार कर चुकीं, पर आँखों में अब भी सत्रह साल की चमक।
"आइए नवीन बाबू। आज बहुत देर कर दी आपने।" उनकी आवाज में हल्की झिड़की थी, पर होंठों पर मुस्कान।
"ट्रैफिक था आंटी।" नवीन ने जूते उतारते हुए कहा।
अंदर का माहौल हमेशा की तरह था—अगरबत्ती की हल्की खुशबु, दीवार पर पुरानी तस्वीरें, और बीच में रखा वह पुराना तांबे का डिब्बा जो आज भी नवीन के लिए रहस्यमयी था।
"चाय?" मिसेज मेहता ने पूछा।
"बस एक कप। आज जल्दी जाना है।"
"जल्दी? अरे, आज तो खास बुलावा है।" उन्होंने रहस्यमयी ढंग से मुस्कुराते हुए कहा।
नवीन का दिल धक से रह गया। पिछले पाँच सालों से हर महीने की पहली तारीख को वह यहाँ आता था। मिसेज मेहता उसे कोई न कोई पुरानी कहानी सुनाती थीं—कभी उनके पति की, कभी अपने बचपन की। पर 'खास बुलावा' शब्द आज पहली बार सुना था।
"क्या मतलब?" नवीन ने पूछा।
"बैठिए पहले।" उन्होंने सोफे की ओर इशारा किया।
चाय के साथ बिस्किट आए। नवीन ने कप उठाया तो देखा कि उसकी उँगलियाँ काँप रही थीं। मिसेज मेहता ने गौर किया।
"डरिए मत। आज मैं आपको अपनी सबसे कीमती कहानी सुनाने जा रही हूँ। जिसके लिए मैंने पचास साल इंतज़ार किया।"
नवीन चुपचाप सुनने लगा।
"साल था 1972। मैं तब बाईस साल की थी। शिमला में हमारे घर के पास एक पुराना बंगला था—'हिल व्यू'। मालिक थे कर्नल साहब, रिटायर्ड आर्मी ऑफिसर। उनकी पत्नी की मौत हो चुकी थी, बेटा विदेश में। वह अकेले रहते थे।"
मिसेज मेहता की आँखें दूर कहीं चली गईं।
"हर शाम कर्नल साहब अपने बगीचे में बैठते थे। उनके पास एक पुराना रेडियो था, जिससे सिर्फ़ एक ही स्टेशन चलता था—ऑल इंडिया रेडियो का शिमला केंद्र। रात के दस बजे एक खास प्रोग्राम आता था—'खास बुलावा'।"
नवीन ने भौंहें चढ़ाईं।
"हाँ, यही नाम था। प्रोग्राम में कोई गाना नहीं बजता था, कोई बातचीत नहीं। सिर्फ़ एक आवाज़ आती थी—गहरी, धीमी, जैसे कोई बहुत दूर से बुला रहा हो। 'आइए... यहाँ आइए... मैं इंतज़ार कर रहा हूँ...' बस इतना।"
"किसी को पता नहीं था यह आवाज़ किसकी थी। कर्नल साहब कहते थे कि यह उनकी मर चुकी पत्नी की आवाज़ है। हर रात दस बजे वह रेडियो चालू करते और सुनते। कभी-कभी रोते भी।"
नवीन के रोंगटे खड़े हो गए।
"एक दिन मैंने उनसे पूछा, 'कर्नल साहब, यह आवाज़ सच में आपकी पत्नी की है?'"
"उन्होंने लंबे समय तक मेरी ओर देखा। फिर कहा, 'बेटी, यह आवाज़ मेरी पत्नी की नहीं है। यह मेरी अपनी आवाज़ है—जो मैंने तीस साल पहले रिकॉर्ड की थी।'"
नवीन का मुँह खुला का खुला रह गया।
"कर्नल साहब ने बताया कि 1942 में वह जापान के खिलाफ़ लड़ रहे थे। बर्मा की जंगलों में। उनकी टुकड़ी घिर गई थी। रेडियो ऑपरेटर मारा गया। कर्नल साहब ने आखिरी मैसेज भेजा था—'आइए... यहाँ आइए... मैं इंतज़ार कर रहा हूँ...' यह मदद की पुकार थी।"
"पर मदद नहीं आई। पूरी टुकड़ी मारी गई। सिर्फ़ कर्नल साहब बच गए—चमत्कारिक ढंग से। जब वह भारत लौटे तो उन्हें पता चला कि उनका मैसेज रिकॉर्ड हो गया था। ऑल इंडिया रेडियो के आर्काइव में।"
"हर साल उसकी सालगिरह पर वह मैसेज बजाया जाता था—'खास बुलावा' के नाम से। कर्नल साहब जानते थे कि वह आवाज़ उनकी अपनी है। पर फिर भी हर रात सुनते थे। जैसे अपनी गलती की सज़ा।"
मिसेज मेहता ने गहरी साँस ली।
"1980 में कर्नल साहब की मौत हो गई। रेडियो स्टेशन बंद हो गया। 'खास बुलावा' हमेशा के लिए खामोश।"
नवीन चुप था। कमरे में सिर्फ़ घड़ी की टिक-टिक सुनाई दे रही थी।
"पर कहानी यहीं खत्म नहीं होती।" मिसेज मेहता ने आगे कहा।
"कर्नल साहब की मौत के बाद मैंने उनका बंगला खरीद लिया। पुराना रेडियो भी मेरे पास आया। एक रात मैंने उसे चालू किया। सालों बाद। दस बज रहे थे।"
"और फिर वही आवाज़ आई—'आइए... यहाँ आइए... मैं इंतज़ार कर रहा हूँ...'"
नवीन की साँस रुक गई।
"मैं डर गई। रेडियो बंद कर दिया। पर अगली रात फिर वही। हर रात। मैंने रेडियो फेंक दिया। पर आवाज़ नहीं गई। वह मेरे दिमाग में बस गई।"
"फिर एक दिन मुझे समझ आया। यह आवाज़ कर्नल साहब की नहीं थी। न मेरी। यह उस रात की आवाज़ थी—जब कोई मदद के लिए पुकार रहा था और कोई नहीं आया।"
मिसेज मेहता ने नवीन की ओर देखा। उनकी आँखें नम थीं।
"आज पचास साल बाद मैं आपको यह कहानी सुना रही हूँ क्योंकि कल रात फिर वही आवाज़ आई। पर इस बार कुछ अलग था।"
"क्या?"
"इस बार आवाज़ ने नाम लिया। आपका नाम। 'नवीन... आइए... यहाँ आइए... मैं इंतज़ार कर रहा हूँ...'"
नवीन का चेहरा सफेद पड़ गया।
"मैंने पूछा, 'कौन?'"
"जवाब आया, 'वह जिसे तुम हर महीने की पहली तारीख को याद करते हो।'"
नवीन के दिमाग में बिजली कौंध गई।
"मेरे पिता..." उसकी आवाज़ काँप रही थी।
मिसेज मेहता ने सिर हिलाया।
"आपके पिता 1972 में शिमला आए थे। कर्नल साहब से मिले थे। उन्होंने मुझे बताया था कि उनका बेटा नवीन एक दिन जरूर आएगा। 'खास बुलावा' लेकर।"
नवीन की आँखें भर आईं। उसे याद आया—हर महीने की पहली तारीख को उसके पिता कहा करते थे, "चल बेटा, शिमला चलते हैं। किसी को मिलना है।" पर कभी ले नहीं गए। उनकी मौत हो गई थी।
"आपके पिता ने कर्नल साहब से वादा किया था। कि जब समय आएगा, उनका बेटा आखिरी 'खास बुलावा' पूरा करेगा।"
"क्या करना होगा?" नवीन ने पूछा।
मिसेज मेहता ने तांबे का डिब्बा खोला। अंदर था एक पुराना टेप रिकॉर्डर।
"यह 1942 का आखिरी मैसेज है। असली वाला। कर्नल साहब ने मुझे दिया था। कहा था कि जब सही व्यक्ति आएगा, उसे सुनाना।"
उन्होंने प्ले दबाया।
पहले शोर। फिर वही गहरी आवाज़—
"आइए... यहाँ आइए... मैं इंतज़ार कर रहा हूँ..."
पर इस बार आवाज़ में कुछ और था। एक नाम।
"नवीन..."
टेप खत्म हुआ। कमरे में सन्नाटा।
"अब?" नवीन ने पूछा।
"अब आपको जवाब देना है।" मिसेज मेहता ने कहा।
"कैसे?"
"उसी तरह जैसे आपके पिता ने दिया था।"
उन्होंने एक कागज निकाला। उस पर लिखा था—
"मैं आ रहा हूँ। इंतज़ार मत करो।"
"यह आपके पिता का जवाब था। जो वह कर्नल साहब को देने आए थे। पर देर हो गई।"
नवीन ने कागज लिया। उसकी उँगलियाँ फिर काँप रही थीं।
"अब आपको पूरा करना है।" मिसेज मेहता ने कहा। "रात के दस बजे। पुराने रेडियो स्टेशन पर।"
नवीन ने घड़ी देखी। नौ बजने वाले थे।
"मैं..." उसकी आवाज़ भारी थी।
"जाइए। यह खास बुलावा है। आपका।"
नवीन उठा। दरवाजे पर रुका।
"आंटी, अगर मैं न जाऊँ?"
मिसेज मेहता ने मुस्कुराते हुए कहा, "तो कल फिर वही आवाज़ आएगी। हर रात। जब तक कोई जवाब न दे।"
नवीन बाहर निकला। बारिश फिर शुरू हो गई थी।
शिमला का पुराना रेडियो स्टेशन अब खंडहर था। नवीन दस बजे वहाँ पहुँचा। अंदर अंधेरा। सिर्फ़ एक पुराना ट्रांसमीटर चमक रहा था।
उसने कागज निकाला। माइक के पास खड़ा हुआ।
गहरी साँस ली।
फिर बोला—
"मैं आ गया। इंतज़ार खत्म।"
आवाज़ पूरे स्टेशन में गूँजी।
फिर सन्नाटा।
अचानक ट्रांसमीटर पर लाइट जली। एक पुराना स्पीकर चालू हुआ।
वही आवाज़ आई—पर इस बार खुशी से भरी हुई।
"शुक्रिया बेटा। अब मैं जा सकता हूँ।"
लाइट बुझ गई।
नवीन बाहर निकला। बारिश रुक चुकी थी। आकाश साफ। तारे चमक रहे थे।
उसके फोन पर मैसेज आया। मिसेज मेहता का।
"बधाई हो। खास बुलावा पूरा हुआ। अब कोई इंतज़ार नहीं।"
नवीन ने फोन जेब में डाला। स्कूटर स्टार्ट की।
घर पहुँचते-पहुँचते सुबह हो गई थी।
उस रात उसने पहली बार चैन की नींद सोया।
और दिल्ली की सड़कों पर कभी फिर कोई पुरानी आवाज़ नहीं गूँजी।
(शब्द गणना: 1492)