कोहिनूर हीरा दुनिया के सबसे प्रसिद्ध हीरों में से एक माना जाता है, लेकिन उसकी चमक के पीछे एक लंबी, जटिल और कभी-कभी दुखद कहानी छिपी है। यह कहानी सिर्फ एक बहुमूल्य हीरे की नहीं है, बल्कि सत्ता, युद्ध, राजनीति, लालच और इतिहास के बदलते दौरों की भी है। भारत की मिट्टी से निकले इस हीरे ने कई साम्राज्यों का उत्थान-पतन देखा और आखिरकार ब्रिटेन की ताजपोशी का हिस्सा बन गया। लेकिन वह सफर कैसे शुरू हुआ और कैसे खत्म हुआ, यह समझना जरूरी है, ताकि कोहिनूर की असली कहानी सामने आ सके।
आज से हजारों साल पहले भारत के गोलकुंडा क्षेत्र, जिसे दुनिया हीरों की जन्मभूमि मानती है, वहीं कोहिनूर मिला था। उस समय हीरों की खानें केवल भारत में थीं, इसलिए यहाँ निकले हीरों की पूरी दुनिया में चर्चा होती थी। कोहिनूर असाधारण था, न सिर्फ आकार में बड़ा बल्कि अपनी आंतरिक चमक, कठोरता और ऐतिहासिक रहस्य के कारण भी। कई प्राचीन पौराणिक ग्रंथों में भी एक ऐसे हीरे का वर्णन मिलता है जो जिसके पास रहता उसे असीम शक्ति मिलती, लेकिन साथ ही उस पर खतरा भी मंडराता। बहुतों का मानना है कि यह वर्णन कोहिनूर के लिए ही था।
भारत की कई राजवंशों ने इस हीरे को अपने खजाने में रखा। माना जाता है कि सबसे पहले यह काकतीय वंश के पास था, जो दक्षिण भारत पर शासन करते थे। यहीं से यह हीरा धीरे-धीरे उत्तर भारत की और बढ़ा। दिल्ली सल्तनत के खिलजी शासक अलाउद्दीन खिलजी ने अपने दक्षिण अभियानों के दौरान इस हीरे पर कब्जा कर लिया। बाद में यह हीरा तुगलक, सैयद और लोदी वंशों से होता हुआ आखिरकार मुगल साम्राज्य तक पहुँचा।
मुगल काल में इस हीरे की प्रतिष्ठा अपने चरम पर पहुँच गई। बाबर से शुरू होकर हुमायूं और फिर अकबर ने इसे साम्राज्य की शोभा के रूप में रखा। शाहजहाँ ने तो इसे मोर सिंहासन में जड़वाया, जो उस समय दुनिया का सबसे खूबसूरत और अनमोल सिंहासन माना जाता था। यह सिंहासन हीरे-मोती, जवाहरात और सोने से बना था, और कोहिनूर उसमें एक चमकते मुकुट की तरह लगा था। शाहजहाँ के समय इस हीरे का महत्व सिर्फ संपत्ति नहीं, बल्कि शक्ति और वैभव का प्रतीक बन गया था।
लेकिन जैसे-जैसे मुगल साम्राज्य कमजोर हुआ, वैसे-वैसे यह हीरा राजनीतिक उथल-पुथल का केंद्र बन गया। 1739 में फारस का शासक नादिर शाह भारत पर आक्रमण करके दिल्ली पहुँचा। उसने मुगल साम्राज्य को भारी नुकसान पहुंचाया और मोर सिंहासन सहित अनंत खजाना अपने साथ ले गया। इसी दौरान कोहिनूर उसके हाथ लगा। माना जाता है कि कोहिनूर का नाम भी नादिर शाह ने ही दिया "कोह-ए-नूर" जिसका अर्थ है "प्रकाश पर्वत" यानी पर्वत जैसी चमक वाला हीरा।
नादिर शाह की मृत्यु के बाद यह हीरा उसके सेनापतियों और उत्तराधिकारियों में घूमता रहा, जब तक कि यह अहमद शाह अब्दाली के पास नहीं पहुँच गया। अब्दाली ने इसे अफगानिस्तान ले जाकर अपने खजाने में रखा। उसके बाद यह हीरा उनके वंशजों के बीच सत्ता संघर्ष का हिस्सा बन गया। उस समय भारत और अफगानिस्तान के बीच लगातार राजनीतिक सम्बन्ध और संघर्ष बने रहते थे।
लगभग 1813 में अफगान शासक शाह शुजा ने सिख साम्राज्य के संस्थापक महाराजा रणजीत सिंह से मदद मांगी। बदले में उसने कोहिनूर उन्हें सौंप दिया। पंजाब का लाहौर दरबार उस समय भारतीय उपमहाद्वीप की सबसे शक्तिशाली राजनीतिक ताकतों में से एक था, और रणजीत सिंह की वीरता तथा दूरदर्शिता का प्रभाव सभी जगह था। कोहिनूर वहाँ राजघराने की प्रतिष्ठा का केंद्र बन गया। यह सिख साम्राज्य के वैभव का प्रतीक माना जाता रहा।
लेकिन 1839 में रणजीत सिंह की मौत के बाद सिख साम्राज्य तेजी से कमजोर हुआ। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी पहले ही पूरे भारत पर कब्जा जमा चुकी थी और पंजाब उनकी आखिरी बाधा था। 1849 में हुए दूसरे सिख युद्ध में ब्रिटिशों ने लाहौर पर नियंत्रण कर लिया। इसके बाद 1849 की लाहौर संधि में केवल आठ वर्षीय महाराजा दिलीप सिंह को मजबूर किया गया कि वह कोहिनूर ब्रिटिश महारानी को सौंप दें। इस संधि पर दिलीप सिंह की सहमति वास्तविक नहीं थी, क्योंकि वह बच्चे थे और ब्रिटिश शासन उन्हें नियंत्रित कर रहा था। इसी कारण आज भी यह सवाल उठता है कि क्या ब्रिटेन ने यह हीरा कानूनी रूप से लिया या यह जबरन छीना गया।
1850 में कोहिनूर को एक खास जहाज़ से इंग्लैंड भेजा गया और 1851 में इसे लंदन के "ग्रेट एक्सहिबिशन" में जनता के सामने प्रदर्शित किया गया। वहाँ इसे देखने हजारों लोग रोज आते थे। हालांकि हीरे की चमक उसमें कटिंग की कमी के कारण उतनी प्रभावी नहीं थी, इसलिए महारानी विक्टोरिया ने इसकी पुनः कटिंग करवाई। इससे इसका आकार काफी छोटा हो गया, लेकिन चमक कई गुना बढ़ गई। बाद में यह हीरा ब्रिटिश शाही मुकुट का हिस्सा बनाया गया और आज भी इसे इसी रूप में देखा जाता है।
आज कोहिनूर ब्रिटेन के टॉवर ऑफ लंदन में शाही संग्रहालय का हिस्सा है और वहीं सुरक्षित रखा गया है। इसकी वर्तमान कीमत का अंदाज़ा लगाना मुश्किल है क्योंकि यह एक ऐसा खजाना है जिसकी आर्थिक कीमत से ज्यादा सांस्कृतिक और ऐतिहासिक कीमत है। इसे अरबों डॉलर से भी ज्यादा मूल्यवान माना जाता है।
भारत, पाकिस्तान, ईरान और अफगानिस्तान सभी देशों ने अलग-अलग समय पर इस हीरे पर अपना दावा किया है। भारत का दावा सबसे मजबूत माना जाता है, क्योंकि यह भारत की भूमि से निकला था और मुगल व अन्य भारतीय राजवंशों के खजाने का हिस्सा रहा। भारत का तर्क है कि ब्रिटेन ने इसे जबरदस्ती लिया था और इसे वापस किया जाना चाहिए। ब्रिटेन अक्सर यह तर्क देता है कि ये घटनाएँ उस समय के कानूनों और समझौतों के अनुसार हुईं और उस समय की राजनीतिक स्थिति को आज के मानकों से नहीं तौला जा सकता। इस पर बहस आज भी जारी है।
कोहिनूर हीरा केवल एक कीमती पत्थर नहीं, बल्कि भारत के गौरव, उसके वैभव और उसके संघर्षों का प्रतीक है। यह हमें याद दिलाता है कि कैसे भारत सदियों तक दुनिया को धन-संपदा देता रहा, और कैसे उपनिवेशवाद के दौर में उसकी असंख्य धरोहरें विदेशों तक पहुँच गईं। कोहिनूर का सवाल सिर्फ एक हीरे की वापसी का नहीं, बल्कि एक देश की सांस्कृतिक स्मृति और न्याय की मांग से भी जुड़ा है।
लाख कोशिशों के बावजूद उसकी वापसी आज भी एक राजनीतिक मुद्दा बनी हुई है। कई बार यह सवाल उठता है कि क्या कभी ऐसा दिन आएगा जब कोहिनूर वापस भारत की विरासत में शामिल हो जाएगा? यह प्रश्न अनुत्तरित है, लेकिन एक बात निश्चित है, कोहिनूर की कहानी उस इतिहास का हिस्सा है जिसे दुनिया कभी भूल नहीं पाएगी। उसकी चमक में सिर्फ सोना और हीरा नहीं, बल्कि भारत की खोई हुई धरोहर का दर्द भी चमकता है।