Goa's journey to liberation in Hindi Motivational Stories by Mayuresh Patki books and stories PDF | गोवा मुक्ति का सफर

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गोवा मुक्ति का सफर

गोवा की कहानी भारत के स्वतंत्रता संघर्ष से कहीं पहले शुरू होती है, जब 1510 में पुर्तगाली साम्राज्य ने इस छोटे से तटीय क्षेत्र पर कब्ज़ा किया था। लगभग साढ़े चार सौ वर्षों तक गोवा, दमन और दीव पुर्तगाल की औपनिवेशिक सत्ता के अधीन रहे। भारत 1947 में अंग्रेज़ों से आज़ाद हो गया, लेकिन गोवा पर विदेशी शासन जारी था। आज़ाद भारत के लिए यह बड़ी चिंता का विषय था कि जब पूरा देश स्वतंत्र हो चुका है, तब भी यह हिस्सा यूरोपीय कब्ज़े में कैद है। स्वतंत्रता के बाद भारतीय नेतृत्व ने यह स्पष्ट कर दिया कि उपनिवेशवाद को किसी भी रूप में स्वीकार नहीं किया जाएगा, लेकिन इसके बावजूद पुर्तगाल ने गोवा को भारत को सौंपने से साफ इंकार किया। भारत ने कई बार शांतिपूर्ण बातचीत का रास्ता अपनाया, मगर पुर्तगाली शासन अपनी हठ पर अड़ा रहा और गोवा को अपना अभिन्न भाग बताने की जिद में किसी समझौते के लिए तैयार नहीं हुआ।

भारत ने 1947 से 1961 के बीच कूटनीतिक प्रयास किए, संयुक्त राष्ट्र में मुद्दा उठाया, और पुर्तगाल को समझाने की कोशिश की कि गोवा का भूगोल, संस्कृति और समाज भारत से जुड़ा हुआ है। लेकिन पुर्तगाल सरकार, विशेषकर तानाशाह सलाज़ार के दौर में, उपनिवेशों को छोड़ने के किसी भी सुझाव को अपनी कमजोरी मानती थी। इसलिए गोवा की मुक्ति लगातार टलती रही। इसी बीच गोवा में भी राष्ट्रवादी आंदोलन तेज होने लग गया। गोवा के लोगों ने अपने-अपने स्तर पर कैद, विरोध और आंदोलन झेले, लेकिन पुर्तगाली शासन कठोर बना रहा। कई नेताओं को गिरफ्तार किया गया और प्रदर्शनकारियों पर अत्याचार होते रहे। भारत के भीतर भी यह सवाल उठने लगा कि आखिर कब तक गोवा विदेशी कब्ज़े में रहेगा। देश का आम नागरिक चाहता था कि गोवा अखंड भारत का हिस्सा बने। यह भावना समय के साथ और गहरी होती चली गई।

1950 और 1960 के दशक में अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियां भी बदलने लगी थीं। दुनिया भर में उपनिवेशवाद का अंत हो रहा था और कई देश यूरोपीय शासन से मुक्त होकर स्वतंत्र राष्ट्र बन रहे थे। भारत ने भी गोवा के सवाल को इसी वैश्विक परिवर्तन का हिस्सा बताया, लेकिन पुर्तगाल ने इसका कोई महत्व नहीं दिया। उसने गोवा को “यूरोप का हिस्सा” बताना शुरू कर दिया, ताकि अंतरराष्ट्रीय दबाव से बच सके। इस दावे को कोई भी देश गंभीरता से नहीं ले रहा था, परन्तु पुर्तगाली सरकार उस समय बातचीत के रास्ते बंद कर चुकी थी। गोवा की जनता चाहती थी कि वे स्वतंत्र भारत का हिस्सा बनें, लेकिन उनके जीवन में कोई परिवर्तन नहीं हो रहा था।

स्थिति तब और बिगड़ी जब पुर्तगाल ने गोवा में सैन्य बल बढ़ाना शुरू किया और भारत-विरोधी रुख और कठोर कर दिया। भारतीय नेतृत्व को यह समझ में आने लगा कि शांतिपूर्ण प्रयासों की सीमा पूरी हो चुकी है। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, जो हमेशा युद्ध से बचने के पक्षधर रहे थे, अब इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि गोवा की मुक्ति के बिना भारत का एकीकरण अधूरा है। इस निर्णय में सुरक्षा संतुलन और राष्ट्रीय गौरव दोनों जुड़े थे। जब यह स्पष्ट हो गया कि पुर्तगाल अपने सैनिक नहीं हटाएगा और गोवा को भारत को सौंपने की कोई संभावना नहीं है, तब भारत ने सैन्य अभियान की तैयारी शुरू की और इसे “ऑपरेशन विजय” नाम दिया।

18 दिसंबर 1961 को भारतीय सेना, नौसेना और वायुसेना ने गोवा की सीमाओं पर निर्णायक कार्रवाई की। यह अभियान तेज, संगठित और रणनीतिक तरीके से चलाया गया। भारतीय सैनिकों को निर्देश था कि सामान्य नागरिकों को कोई नुकसान न पहुंचे। पुर्तगाली सेना संख्या में कम होने के बावजूद कुछ इलाकों में प्रतिरोध करती रही, पर भारतीय सेना की योजना इतनी मज़बूत थी कि केवल 36 घंटों में पुर्तगाली शासन का अंत हो गया। 19 दिसंबर 1961 को पुर्तगाली वाइसरॉय ने आत्मसमर्पण कर दिया और गोवा आधिकारिक रूप से भारत का हिस्सा बन गया। यह क्षण भारत के इतिहास में एक बड़ी उपलब्धि के रूप में दर्ज हुआ। लोग सड़कों पर उतरकर खुशियां मनाने लगे, गोवा में भारतीय तिरंगा फहराया गया और लंबे समय बाद गोवा के लोगों ने विदेशी शासन से मुक्ति की सांस ली।

गोवा की मुक्ति केवल एक सैन्य विजय नहीं थी, बल्कि यह भारत की उस प्रतिबद्धता का प्रतीक थी जिसमें देश ने घोषित किया था कि उपनिवेशवाद किसी भी रूप में स्वीकार नहीं होगा। यह भारत की राष्ट्रीय एकता की दिशा में अंतिम बड़ा कदम था। गोवा, दमन और दीव को पहले केंद्रशासित प्रदेश का दर्जा दिया गया और बाद में गोवा को राज्य का दर्जा प्राप्त हुआ। आज गोवा भारत का महत्वपूर्ण पर्यटन केंद्र और सांस्कृतिक धरोहर है, लेकिन इसकी कहानी केवल समुद्र, तट और पर्यटन तक सीमित नहीं है। इसकी गहराई में एक लंबा संघर्ष, कूटनीति की विफलताएं, जनता का आत्मसम्मान और अंततः भारत का दृढ़ संकल्प छुपा हुआ है।

गोवा की मुक्ति ने दुनिया को एक और संदेश भी दिया कि जब किसी राष्ट्र की एकता, स्वाभिमान और सुरक्षा से जुड़ा मसला हो, तो शांतिपूर्ण प्रयासों के बाद अंतिम निर्णय लेने की क्षमता भी ज़रूरी होती है। यह कदम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की स्थिति को और मजबूत करता है। आज भी जब 19 दिसंबर को "गोवा मुक्ति दिवस" मनाया जाता है, तब यह केवल युद्ध की जीत नहीं मानी जाती, बल्कि यह स्वतंत्रता, साहस और राष्ट्रीय एकता की जीत के रूप में याद किया जाता है। चार सौ पचास वर्षों के विदेशी शासन का अंत और भारत के तिरंगे की छाया में आया नया गोवा उन लोगों के संघर्ष की भी जीत है जिन्होंने वर्षों तक आज़ादी की लौ अपने दिल में जलाई थी।