- By Tanya Singh
1. रूहानी नगर की खिड़की
रूहानी नगर — नाम में ही एक रहस्य था। यह शहर पुराना था, पर उसकी गलियों में एक अजीब सुकून भी था।
यहाँ एक बिल्डिंग थी — “राज निलय।” चार मंज़िलों की, जर्जर दीवारें, लोहे की पुरानी रेलिंगें और खिड़कियाँ जो अब जंग खा चुकी थीं।
सब कुछ सामान्य था, बस एक खिड़की को छोड़कर — तीसरी मंज़िल की।
वो खिड़की कभी बंद नहीं होती थी।
लोग कहते थे, उसे बंद करने की कोशिश करने वाले या तो बीमार पड़ जाते हैं या शहर छोड़कर भाग जाते हैं।
कहते हैं, वो खिड़की खुद साँस लेती है।
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2. अनामिका का आगमन
नीचे वाले फ्लैट में रहने आई थी अनामिका, एक फ्रीलांस आर्टिस्ट।
उम्र लगभग अट्ठाईस, आँखों में गहराई और चेहरे पर थकान का साया।
वो अकेली थी — लेकिन अकेलापन उसे डराता नहीं था।
वो कहती थी — “भीड़ में ज्यादा शोर होता है, अकेले में खामोशी कम बोलती है।”
उसके मन में हलचल थी — इसलिए उसने एक शांत कोना ढूँढा, और यह बिल्डिंग उसे सस्ती भी मिली और शांत भी।
पहली रात, जब उसने सामान जमाया और बाहर बालकनी में आई — ठंडी हवा चल रही थी।
उसने ऊपर देखा — तीसरी मंज़िल की वही मशहूर खिड़की।
वहाँ किसी ने जैसे हाथ हिलाया।
वो मुस्कुरा दी — “शायद कोई पुराना किराएदार होगा।”
पर जब दोबारा देखा — खिड़की के पार कोई नहीं था।
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3. पुराना घर, नई छायाएँ
अगले दिन मकान मालिक मिश्रा जी आए किराया लेने।
सफेद बाल, झुकी चाल, पर आँखों में एक सतर्क चमक।
“बेटी, रात कैसी बीती?” उन्होंने पूछा।
“अच्छी थी, बस ऊपर की खिड़की खुली थी।”
मिश्रा जी का चेहरा अचानक फीका पड़ गया।
उन्होंने धीरे से कहा —
> “तीसरी मंज़िल बंद है बेटी, कोई नहीं रहता वहाँ।”
“तो वो खिड़की खुली क्यों रहती है?” अनामिका ने सहजता से पूछा।
वो कुछ देर चुप रहे, फिर बोले —
> “कभी बंद करने की कोशिश मत करना।”
अनामिका हल्के से हँस दी —
“आप तो डराते हैं।”
मिश्रा जी ने हल्की साँस ली, जैसे कई सालों का बोझ उनके शब्दों में उतर आया हो —
> “डर नहीं… चेतावनी है।”
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4. आवाज़ें जो कोई और नहीं सुनता
रात के करीब ग्यारह बजे अनामिका अपनी नई पेंटिंग बना रही थी।
कैनवास पर एक अधूरी तस्वीर थी — आसमान में धुंधली सी आकृति।
तभी खिड़की की दिशा से कोई धीमी आवाज़ आई —
> “अनामिका…”
वो चौंक गई। ब्रश उसके हाथ से गिर पड़ा।
उसने खिड़की की तरफ देखा —
नीचे सड़क थी, और चारों तरफ सन्नाटा।
पर खिड़की अब थोड़ी खुली थी।
एक ठंडी हवा का झोंका कमरे में आया और उसके बाल उड़ गए।
जब उसने अपनी पेंटिंग की ओर देखा —
चेहरे के उस अधूरे हिस्से में अब किसी की आँखें बन चुकी थीं।
गहरी, खाली, और पहचान सी लगने वाली।
वो घबरा गई। “ये मैंने बनाया कब?”
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5. डॉक्टर की सलाह
अगले दिन वो डॉ. आदित्य के पास गई — एक मनोचिकित्सक, जो शहर में नए आए थे।
“आप hallucination से जूझ रही हैं,” डॉक्टर ने कहा।
“कभी-कभी जब मन बहुत कुछ दबा लेता है, तो वो हमें आवाज़ों के रूप में सुनाई देता है।”
अनामिका ने धीमे स्वर में कहा —
> “अगर subconscious इतना ज़ोर से बोले कि सुनाई देने लगे, तो क्या वो भी भ्रम है?”
डॉक्टर मुस्कुराए, पर उनकी आँखों में गंभीरता थी —
> “कभी-कभी भ्रम ही सच होता है, अनामिका।”
वो कुछ देर खामोश रही, फिर कहा —
> “आप जानते हैं, वो खिड़की अब हर रात खुल जाती है… अपने आप।”
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6. तीसरी मंज़िल की सच्चाई
उस रात उसने तय किया — अब सच्चाई जाननी होगी।
बारह बजे, टॉर्च लेकर वो धीरे-धीरे सीढ़ियाँ चढ़ने लगी।
हर कदम के साथ हवा भारी होती जा रही थी।
तीसरी मंज़िल का दरवाज़ा बंद था, पर खिड़की पूरी खुली हुई।
टॉर्च की रोशनी जब कमरे में पड़ी — वहाँ कोई नहीं था।
बस दीवार पर एक पुराना फोटो फ्रेम टँगा था।
उसमें एक लड़की की तस्वीर थी — वही चेहरे की बनावट, वही आँखें…
वो हू-ब-हू अनामिका जैसी थी।
फ्रेम के नीचे लिखा था —
> “29th October 1999.”
और स्याही से उभरा एक वाक्य —
“वो लौट आई है।”
उसका शरीर सिहर गया।
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7. डायरी का रहस्य
टेबल पर धूल जमी एक पुरानी डायरी रखी थी।
उसने पहला पन्ना खोला —
> “मैं अनामिका हूँ, मैं यहाँ रहती हूँ… पर कोई मुझ पर यकीन नहीं करता।”
वो हक्की-बक्की रह गई।
अगले पन्नों पर बार-बार वही तारीख़, वही खिड़की, वही डर।
हर शब्द जैसे किसी अनदेखे दर्द की गवाही दे रहा था।
आख़िरी पन्ने पर लिखा था —
> “अगर कोई यह पढ़ रहा है, तो मैं मर चुकी हूँ।
और अब तुम मेरी जगह ले चुकी हो।”
उसके हाथ काँपने लगे।
नीचे पन्ने पर ताज़ी स्याही से लिखा था —
> “29th October, 2025.”
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8. पहचान का खेल
अचानक हवा का तेज़ झोंका आया।
खिड़की धड़ाम से बंद हो गई।
लाइट बुझ गई।
आईने में उसने अपना चेहरा देखा —
गाल पर चोट का निशान… जो पहले कभी नहीं था।
आईने के पार, धुंधली रोशनी में वही पुरानी लड़की मुस्कुरा रही थी।
> “अब मेरी बारी खत्म… तुम्हारी शुरू।”
अनामिका चीख पड़ी — पर उसकी आवाज़ किसी ने नहीं सुनी।
कमरा अंधेरे में डूब गया।
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9. नए किराएदार
कुछ हफ्तों बाद, “राज निलय” में नया किराएदार आया।
वो मकान मालिक से बोला —
“तीसरी मंज़िल की खिड़की खुली है, क्या वहाँ कोई रहता है?”
मिश्रा जी ने खामोश नज़रों से ऊपर देखा।
हवा में वही ठंडक थी।
फिर उन्होंने धीमे से कहा —
> “नहीं बेटा, अब वहाँ अनामिका रहती है।”
उसने फिर पूछा —
“पर सर, नीचे लिखा है — ‘फ्लैट फॉर रेंट’?”
मिश्रा जी बस मुस्कुराए,
> “रूहें कभी किराए पर नहीं जातीं… बस नया चेहरा चुन लेती हैं।”
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10. अंतिम फुसफुसाहट
रात के सन्नाटे में तीसरी मंज़िल की खिड़की फिर खुल गई।
हल्की हवा आई — और किसी ने जैसे धीमे स्वर में कहा —
> “स्वागत है…”
नीचे नया किराएदार करवट बदलता रहा।
उसकी पेंटिंग के कैनवास पर धीरे-धीरे एक चेहरा बनने लगा —
अनामिका का।
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कभी-कभी कुछ खिड़कियाँ न खुले तो बेहतर होता है — क्योंकि हर हवा ज़िंदगी नहीं, कुछ रूहें भी लाती हैं।