वो बारिश की शाम थी, जब माया ने पहली बार उसे देखा था।
कनॉट प्लेस के फुटपाथ पर, ठंडी हवा में उसके बाल गीले होकर चेहरे से चिपक गए थे। उसके हाथ में सस्ते फूलों का गुलदस्ता था, जिसे वो हर शाम बेचती थी।
वो यूँ ही अपने छोटे से सपने को जी रही थी — कि तभी सामने एक काले रेंज रोवर की खिड़की धीरे से नीचे गिरी।
"कितने में हैं ये?"
आवाज़ धीमी, पर सख़्त थी।
माया ने पलटकर देखा — सामने बैठा आदमी किसी मैगज़ीन के कवर से निकला लगता था। कोयले जैसी आँखें, पर उनमें अजीब सी ठंडक थी। महँगा सूट, हाथ में घड़ी जो उसकी तीन महीने की कमाई के बराबर थी।
"तीस रुपए के हैं, साहब," उसने धीरे से कहा।
वो मुस्कुराया — एक ऐसी मुस्कान जो डर और आकर्षण दोनों पैदा करती थी।
“नाम क्या है तुम्हारा?”
“माया।”
“अच्छा नाम है… पर तुम्हारी आँखों में तो कोई और कहानी लिखी है।”
कहकर उसने नोट पकड़ा दिया — सौ का, और फूल लिए बिना गाड़ी आगे बढ़ा दी।
उस पल माया को लगा, कोई अजनबी उसके दिल पर नाम लिख गया है।
अगले दिन वो फिर आया, फिर अगले…
हर बार बिना फूल लिए पैसे छोड़ जाता, हर बार बस वही बात — “अपना ख्याल रखना, माया।”
धीरे-धीरे माया उसे पहचानने लगी। आरव राठौड़, दिल्ली का सबसे चर्चित बिजनेसमैन। लोग कहते थे, उसने अपनी सफलता की कीमत किसी को खोकर चुकाई है।
लेकिन उसके लिए, माया एक रहस्य बन चुकी थी —
एक गरीब लड़की, जो उसे हर शाम उस दर्द से दूर रखती थी जिसे वो दुनिया से छिपा नहीं पाता था।
एक दिन जब बारिश बहुत तेज़ हुई, माया किसी छत के नीचे नहीं थी।
वो उसी कोने पर खड़ी थी — ठंड में काँपती हुई।
आरव ने गाड़ी रोकी, दरवाज़ा खोला —
“बैठो।”
“नहीं, साहब… मैं ठीक हूँ।”
“मुझे ज़बरदस्ती करनी आती है, माया,” उसने धीमे से कहा, पर उस आवाज़ में आदेश नहीं था… लाचारी थी।
वो उसके साथ गाड़ी में बैठी, और उस दिन पहली बार उसने महसूस किया —
पैसे और ताक़त के पीछे छिपा एक टूटा हुआ इंसान भी रो सकता है।
उस रात दिल्ली की सड़कों पर दो लोग थे — एक जो कभी हँस नहीं पाया, और एक जो कभी डरना छोड़ नहीं पाई।
लेकिन जब उनकी नज़रें मिलीं, तो दोनों को अहसास हुआ…
कभी-कभी सबसे गहरी मोहब्बत वहीं मिलती है, जहाँ उम्मीद बिल्कुल नहीं होती।
बारिश थम चुकी थी, लेकिन माया का दिल अब भी उसी तूफ़ान में फँसा हुआ था।
गाड़ी के अंदर महक रहा था महँगे परफ्यूम का हल्का-सा असर, और साथ ही आरव राठौड़ की खामोशी।
वो शख़्स जो पूरी दिल्ली के सामने बोलता नहीं था, लेकिन उस वक्त उसकी आँखें बोल रही थीं।
"घर कहाँ है तुम्हारा?" उसने पूछा।
माया ने हल्का-सा मुस्कुराकर कहा, "जहाँ बारिश नहीं टपकती, वही मेरा घर है।"
आरव ने उसकी ओर देखा। “तुम्हें डर नहीं लगता? इस शहर में किसी पर भरोसा करना...”
“डर तो हर किसी को लगता है, पर डर के बिना जीना भी तो नहीं आता,” माया ने कहा, और उस जवाब ने आरव के दिल की दीवार में दरार डाल दी।
वो उसे अपने घर ले आया — वो घर जो काँच के महल जैसा था, लेकिन भीतर खालीपन से भरा।
माया के कदमों की आहट उस घर की दीवारों को पहली बार ज़िंदा कर रही थी।
उसने धीरे से कहा, “अगर मैं कहूँ कि मुझे हर शाम तुम्हारा इंतज़ार रहता है?”
माया ने उसकी ओर देखा, कुछ पल चुप रही, फिर बोली,
“शायद इसलिए क्योंकि मैं तुम्हें किसी चीज़ की याद दिलाती हूँ।”
आरव ने धीमे स्वर में कहा, “हाँ… किसी ऐसे एहसास की, जो अब मेरे पास नहीं है।”
वो पास आया — बहुत पास।
उसकी साँसें माया के चेहरे से टकरा रहीं थीं।
पर उस पल में न वासना थी, न ज़बरदस्ती — बस एक अधूरापन, जो दोनों में बराबर था।
“तुम चाहो तो चली जाओ,” आरव ने कहा। “लेकिन अगर रुक गई... तो मेरी दुनिया बदल सकती है।”
माया ने उसकी आँखों में देखा — वहाँ डर था, लेकिन साथ ही एक वादा भी।
“मैं भागने नहीं आई थी, आरव… शायद अब भाग नहीं पाऊँगी।”
उस रात दिल्ली फिर से सो नहीं पाई।
एक गरीब लड़की और एक टूटा हुआ अमीर आदमी — दोनों की तकदीरें एक-दूसरे में उलझ चुकी थीं।
सुबह की हल्की धूप शीशे की दीवारों से टकराकर आरव के चेहरे पर गिर रही थी।
वो उसी जगह बैठा था — वही कॉफी, वही खामोशी, पर आज उसके सामने माया थी।
वो सफ़ेद शर्ट में थी, बाल खुले हुए, आँखों में वो मासूमियत थी जो सबसे बड़ी शांति भी बेचैन कर दे।
“आप पूरी रात नहीं सोए?” उसने पूछा।
आरव ने कॉफी कप नीचे रखते हुए कहा, “आदत है… नींद से ज़्यादा मैं काम को चाहता हूँ।”
“या फिर किसी याद को भूलना चाहते हैं?” माया ने शांत स्वर में कहा।
आरव ने सिर उठाया — जैसे किसी ने उसकी रूह को छू लिया हो।
वो कुछ नहीं बोला, बस उसकी ओर बढ़ा और धीरे से बोला,
“तुम्हें कैसे पता कि मैं क्या भूलना चाहता हूँ?”
माया ने मुस्कुरा कर कहा, “क्योंकि मैं भी हर दिन कुछ भूलने की कोशिश करती हूँ।”
आरव कुछ पल तक बस उसे देखता रहा।
फिर उसकी आवाज़ भारी हुई — “माया, अगर मैं कहूँ कि मेरी ज़िंदगी में पहले से कोई थी, और उसकी मौत की वजह शायद मैं हूँ… तो क्या तुम फिर भी रुकोगी?”
कमरे की हवा अचानक थम गई।
माया ने धीरे से उसकी ओर कदम बढ़ाए, और बोली,
“हर किसी के अंदर एक अँधेरा होता है आरव… पर फर्क ये है कि कौन उसे स्वीकार करता है।”
वो और करीब आई — इतनी करीब कि आरव की साँसें उसके होंठों को छूने लगीं।
“और अगर मैं उस अँधेरे को छू लूँ… क्या तब भी तुम मुझे रोकोगे?”
आरव ने गहरी साँस ली, उसकी आँखों में एक खतरनाक सुकून था।
“शायद तब मैं खुद को रोक नहीं पाऊँगा।”
उसकी उंगलियाँ माया के गालों से फिसलती हुई उसकी गर्दन तक आईं।
उस पल में न वक़्त था, न सोच — बस एक जलता हुआ एहसास था जो दोनों को खींच रहा था।
फिर अचानक आरव पीछे हट गया।
उसकी आँखों में वही दर्द लौट आया।
“तुम नहीं जानती माया… मेरे करीब आना, खुद को खतरे में डालना है।”
माया ने शांत स्वर में कहा, “तो फिर खतरा मुझे मंज़ूर है।”
आरव ने एक पल उसे देखा — और बस देखता रह गया।
कभी-कभी किसी का डर ही किसी का सबसे गहरा इश्क़ बन जाता है।