🌒 एपिसोड 32 — "वो जो परछाईं बन गया"
हवेली के दरवाज़े पर टंगी नई पेंटिंग अब हवा में हौले-हौले झूल रही थी।
रात की नीली रौशनी अब भी दीवारों से रिस रही थी,
और गुलाब की महक में किसी अधूरी साँस की आहट शामिल थी।
अर्जुन ने पेंटिंग के सामने खड़े होकर अपनी हथेली बढ़ाई।
उसे ऐसा लगा जैसे किसी ने भीतर से उसका नाम पुकारा हो —
“अर्जुन…”
वो आवाज़ रुमी की थी, पर हवा में तैरती हुई… बिना किसी शरीर के।
उसने आँखें बंद कीं, और वही नीली चमक फिर उभरी।
रुमी की परछाई उसके सामने आकार लेने लगी —
धुंधली, पर नज़दीक।
उसकी मुस्कान अब भी वैसी ही थी — जैसे रूह में घुल जाए।
> “तुम लौट आई…” अर्जुन फुसफुसाया।
रुमी बोली —
> “मैं कभी गई ही नहीं अर्जुन…
तुम्हारी रगों में जो रुमानियत बहती है,
वो ही तो मैं हूँ।”
अर्जुन की आँखों से आँसू बह निकले।
वो आगे बढ़ा, मगर उसका हाथ हवा में जा ठहरा।
रुमी की परछाई धीरे-धीरे पीछे हटी, और हवेली की दीवारों पर उभर आई।
अचानक दीवारें कांपने लगीं।
पेंटिंग गिर पड़ी।
और नीचे ज़मीन फट गई —
एक पुरानी लकड़ी की तख़्ती दिखी, जिस पर लिखा था —
“रूहों का द्वार”।
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🌘 2. रूहों का द्वार
अर्जुन ने काँपते हाथों से तख़्ती हटाई।
नीचे सीढ़ियाँ उतरती जा रही थीं — अंधकार में खोई हुई।
वो नीचे उतरा — हर कदम के साथ हवा भारी होती जा रही थी।
नीचे पहुँचते ही उसने देखा —
चारों ओर दीवारों पर वही शब्द लिखे थे — “रुमानियत अमर है।”
बीच में एक दर्पण रखा था — पुराना, टूटा हुआ, पर उससे नीली लपटें निकल रही थीं।
रुमी की परछाई दर्पण में दिखाई दी।
> “अर्जुन, ये वही दर्पण है… जिसमें हमारी रूहें क़ैद थीं।
अब अगर तुम इसे छू लोगे,
तो मैं फिर से तुम्हारे भीतर लौट आऊँगी।”
अर्जुन ने उसकी ओर देखा।
> “पर अगर मैं छू न सका तो?”
रुमी मुस्कुराई —
> “तो मैं हमेशा तुम्हारे शब्दों में रहूँगी… तुम्हारे हर अधूरे वाक्य में।”
अर्जुन ने गहरी साँस ली —
और अपना हाथ दर्पण पर रख दिया।
नीली आग उसकी उंगलियों से फैलती हुई पूरे कमरे में छा गई।
अचानक हवेली के ऊपर बिजली गिरी —
और हवेली के बाहर पुराने पीपल के पेड़ से नीली लपट उठी।
रमाकांत पंडित जो बाहर पूजा कर रहे थे, डर के मारे उठ खड़े हुए।
> “अरे भोलेनाथ… ये तो वही संकेत है!
जब रूह अपनी पहचान पा लेती है!”
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🌕 3. रूह की वापसी
नीली आग अब बुझ चुकी थी।
कमरे में बस धुआँ था और गुलाब की मीठी गंध।
अर्जुन धीरे-धीरे उठा —
उसकी आँखें अब नीली नहीं, सुनहरी थीं।
वो मुस्कुराया…
और उसी क्षण रुमी की आवाज़ भीतर से आई —
> “देखो अर्जुन, अब हम दो नहीं रहे…
मेरी रूह तुम्हारे भीतर बस चुकी है।”
अर्जुन ने अपने सीने पर हाथ रखा।
उसकी धड़कन अब दो लयों में बज रही थी —
एक इंसान की… और एक रूह की।
वो धीरे-धीरे ऊपर आया।
हवेली की दीवारें अब उजली थीं।
पेंटिंग फिर से अपनी जगह लटक गई थी —
पर अब उसमें एक और चेहरा जुड़ गया था —
रुमी और अर्जुन के बीच एक सुनहरी रोशनी का गोला।
रमाकांत ने पेंटिंग को देखा और चौंक पड़े।
> “अब समझा… ये हवेली जब तक अधूरी रूहें रहती हैं,
तब तक चैन नहीं लेती।
लेकिन अब ये दोनों एक हो गए हैं।”
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🌙 4. रुमानियत की गवाही
रात गहराने लगी थी।
हवेली के आँगन में दीपक जल रहे थे।
अर्जुन वहीं बैठा था —
हवा में वही फुसफुसाहट फिर सुनाई दी।
> “अर्जुन… याद है जब मैंने कहा था —
अगर हम बिछड़ गए तो मैं तुम्हारे लिखे शब्दों में जन्म लूँगी?”
अर्जुन ने मुस्कुराकर कहा —
> “हाँ, और अब मैं वही कहानी लिख रहा हूँ —
‘मेरे इश्क़ में शामिल रुमानियत’।”
उसकी कलम अपने आप चलने लगी।
स्याही नीली चमक रही थी,
और हर शब्द के साथ रुमी की हँसी हवा में घुलती जा रही थी।
वो लिखता गया —
“मोहब्बत कभी ख़त्म नहीं होती,
वो बस अपनी जगह बदलती है —
कभी साँस बनकर, कभी रूह बनकर,
और कभी शब्द बनकर।”
उसके चारों ओर दीये बुझने लगे,
मगर एक दीया आख़िर तक जलता रहा —
वो वही दीया था जो रुमी ने आख़िरी रात जलाया था।
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🔥 5. आख़िरी वादा
सुबह की पहली किरण जब हवेली पर गिरी,
तो पेंटिंग के नीचे एक नई लाइन उभर आई —
> “जब रूह और इश्क़ एक हो जाएँ,
तब वक्त भी रुक जाता है।”
अर्जुन ने देखा —
दीवार पर हल्का-सा साया था — रुमी का।
वो मुस्कुरा रही थी।
> “अब मैं चलूँ, अर्जुन।
तुम्हारा लेखन ही अब मेरा संसार है।”
अर्जुन ने धीमे से कहा —
> “और तुम्हारी रूह मेरी साँसों का हिस्सा…”
वो साया हवा में विलीन हो गया।
मगर उसी पल हवेली की दीवार पर सुनहरी रेखा बन गई —
एक हस्ताक्षर — “रुमी”।
अर्जुन ने आख़िरी बार आसमान की ओर देखा —
नीली और सुनहरी रौशनी मिलकर एक नया रंग बना रही थी —
रुमानियत का रंग।
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💫 एपिसोड 31 — हुक लाइन :
अगले दिन दरभंगा की हवेली के बाहर एक नया बोर्ड टंगा था —
> “यहाँ अब सिर्फ़ रूहें नहीं… रुमानियत बसती है।”
और हवेली के भीतर कहीं, एक धीमी फुसफुसाहट सुनाई दी —
> “इश्क़ की कहानी कभी ख़त्म नहीं होती,
वो बस नए जन्म में फिर से लिखी जाती है…” ❤️🔥