रात का आसमान तारों से भरा था, लेकिन उनमें से कोई भी उस वीरान घाटी की काली सन्नाटी को चीर नहीं पा रहा था। वो जगह “कृष्णगढ़” कहलाती थी — एक पुराना किला, जो सदियों से वीरान पड़ा था। कोई वहाँ नहीं जाता था। कहा जाता था कि वहाँ एक “पिशाच” रहता है — जिसे कभी मौत नहीं मिली, और जिसने अपनी आत्मा किसी अधूरी मोहब्बत में कैद कर रखी थी।
गाँव के लोग उस किले के पास तक नहीं जाते थे, लेकिन हर अमावस की रात वहाँ से बाँसुरी की आवाज़ आती थी — उदासी से भरी, दर्द से लथपथ। कोई नहीं जानता था कौन बजाता है, पर सब कहते थे, “वो पिशाच अब भी अपने प्रेम का इंतज़ार कर रहा है।”
दिल्ली यूनिवर्सिटी की छात्रा आर्या शर्मा को हमेशा से पुराने रहस्यों में दिलचस्पी थी। उसे भूत-प्रेत की कहानियाँ आकर्षित करती थीं, डराती नहीं। उसके प्रोजेक्ट का विषय था — “अमरता के मिथक”। और जब उसे कृष्णगढ़ के बारे में पता चला, तो उसने ठान लिया कि वो वहाँ जाएगी।
गाँव के लोग उसे रोकते रहे। बूढ़ा पुजारी बोला, “बेटी, वहाँ एक श्राप है। वहाँ जाने वाला कोई लौटकर नहीं आता।”
पर आर्या मुस्कराई, “श्राप नहीं, रहस्य है बाबा। और रहस्य हमेशा जवाब चाहते हैं।”
अगले दिन, वो अकेली जीप लेकर किले की तरफ निकल पड़ी। रास्ते में घना जंगल था, हवा में अजीब-सी ठंडक थी। पक्षियों की आवाज़ें भी जैसे कहीं गुम हो गई थीं। सूरज ढलने से पहले वो किले के दरवाज़े तक पहुँच गई।
किला बहुत विशाल था, टूटी दीवारों पर बेलें लिपटी हुई थीं। दरवाज़े के पास दो पत्थर के शेर थे, जिनकी आँखें ऐसे लग रही थीं जैसे किसी को घूर रही हों। उसने अंदर कदम रखा। जैसे ही वो अंदर गई, हवा का एक तेज़ झोंका आया और दरवाज़ा अपने आप बंद हो गया।
उसने टॉर्च जलायी और देखा — दीवारों पर पुरानी तलवारें, चित्र और एक टूटी हुई सिंहासन कुर्सी। सब धूल में डूबा हुआ था। तभी उसे कुछ सुनाई दिया… धीमी-सी धुन।
बाँसुरी की।
वो आवाज़ ऊपर की मंज़िल से आ रही थी। आर्या धीरे-धीरे सीढ़ियाँ चढ़ी। वहाँ एक बड़ा कक्ष था। और उस कक्ष के बीचोंबीच, एक आदमी खड़ा था — लंबा, गहरे काले बाल, गोरा चेहरा, और आँखें… लाल, चमकती हुई आँखें।
“कौन हो तुम?” आर्या ने पूछा।
वो मुस्कराया, “मैं यही सवाल तीन सौ साल से खुद से पूछ रहा हूँ।”
“तुम…”
“अर्जुन। कभी इस राज्य का योद्धा था… अब एक श्रापित आत्मा हूँ।”
आर्या ने अपनी साँस रोकी। “तो वो पिशाच की कहानी… सच है?”
“कहानी नहीं, सज़ा है।”
अर्जुन ने धीरे-धीरे उसके पास आते हुए कहा, “कभी इस किले में एक राजकुमारी रहती थी — मृणालिनी। वो मेरी प्राण थी। लेकिन हमारा प्रेम उस समय के नियमों को तोड़ता था। उसे राजकुमार से ब्याह दिया गया, और मैंने बगावत की। उन्होंने मुझे मौत दी, लेकिन मरने से पहले मैंने कसम खाई — ‘जब तक मेरी आत्मा उसे पा नहीं लेती, मैं इस धरती से नहीं जाऊँगा।’ तबसे मैं हर जन्म में उसकी प्रतीक्षा करता हूँ।”
आर्या की धड़कन तेज़ हो गई। उसने कहा, “अगर ये सच है, तो तुम अब तक यहीं क्यों हो?”
“क्योंकि वो अब तक लौटी नहीं… जब तक मृणालिनी की आत्मा मेरे सामने नहीं आती, मैं मुक्त नहीं हो सकता।”
आर्या ने उसकी आँखों में देखा — और अचानक उसके भीतर कुछ जलने लगा। यादें… पुराने समय की, महल की, युद्ध की, एक राजकुमारी की जो अर्जुन की बाँहों में रो रही थी।
उसने धीरे से कहा, “मृणालिनी…”
अर्जुन वहीं जम गया। “क्या कहा तुमने?”
“मुझे नहीं पता… पर मेरे दिमाग में एक नाम बार-बार गूँज रहा है… मृणालिनी।”
अर्जुन के चेहरे पर दर्द और उम्मीद दोनों उतर आए। “तो तुम वही हो…”
उसने हाथ बढ़ाया, लेकिन जैसे ही आर्या ने उसका हाथ छुआ, एक तेज़ झटका लगा। दीवारें काँप उठीं, हवा घूमने लगी। अर्जुन पीछे हट गया, “नहीं… तुम इंसान हो अभी। अगर मैंने तुम्हें छुआ, तो श्राप तुम्हें भी निगल लेगा।”
आर्या ने उसकी आँखों में देखा — “तीन सौ साल का इंतज़ार अब खत्म होना चाहिए। चाहे मौत में, चाहे मुक्ति में।”
अर्जुन चिल्लाया, “नहीं!”
पर उसने उसका हाथ पकड़ लिया। और उसी क्षण बिजली कड़कने लगी। किले की छत टूट गई। आकाश से नीली चमक नीचे गिरी।
आर्या की आँखों में आँसू थे, लेकिन होंठों पर मुस्कान। उसने कहा, “अब कभी अलग नहीं होंगे।”
अर्जुन ने उसे बाँहों में भर लिया। और अगली ही क्षण — सब कुछ प्रकाश में डूब गया।
जब अगली सुबह गाँव के लोग वहाँ पहुँचे, तो पूरा किला राख में बदल चुका था। पर उस राख के बीच दो पत्थर की मूर्तियाँ खड़ी थीं — एक पुरुष और एक स्त्री की — जो एक-दूसरे को गले लगाए हुए थे।
कहा जाता है कि हर सौ साल बाद, जब अमावस और पूर्णिमा एक ही रात को आती हैं, तो उस घाटी में वही बाँसुरी की धुन फिर से सुनाई देती है। लोग कहते हैं, वो अर्जुन बजाता है — अब पिशाच नहीं, बल्कि प्रेम की आत्मा बनकर।
और कभी-कभी, अगर कोई बहुत देर तक उस धुन को सुने, तो हवा में एक स्त्री की आवाज़ आती है —
“अर्जुन… इस बार हम सदा साथ रहेंगे…”
कृष्णगढ़ अब भी वीरान है, पर हवा में आज भी उस प्रेम की ख़ुशबू है जिसने मौत, श्राप और समय — तीनों को हरा दिया।