मणिकैलाश पर्वत पर चमकते मणि जैसा उपन्यास
“कैथरीन और नागा साधुओं की रहस्यमयी दुनिया”
नब्बे के दशक में, मुझे वर्ष याद नहीं, अहमदाबाद के साबरमती नदी के तट पर एक मेले का आयोजन हुआ था। उस समय मैं अहमदाबाद के लाल दरवाजा इलाके में एक बहुमंजिला इमारत में स्थित अकाउंटेंट जनरल के कार्यालय में कार्यरत थी। इतना याद है, हम कुछ मित्र मिलकर इस मेले में गए थे। भारी भीड़ के बीच एक कतार में खड़े कुछ नागा साधु सब के लिए आकर्षण का केंद्र बने हुए थे। निर्वस्त्र और जटाधारी इन साधुओं को लोग कनखियों से देख रहे थे। उस समय मुझे नागा साधुओं के जीवन के बारे में कुछ भी पता नहीं था।
डरते हुए मैंने भी उनकी तरफ़ एक निगाह डाली थी और उन्हें देखकर मेरे मन में सिर्फ एक ही विचार आया था कि ये साधु भी किसी न किसी परिवार से आए हैं, किसी माँ के बेटे हैं। उनके जीवन में ऐसा क्या घटा होगा जिस कारण उन्होंने सारे मानवीय रिश्ते नाते तोड़ दिए, सम्पूर्ण संसार को त्याग दिया और प्रकृति के शरण में चले गए? उनके साधु बनने का क्या कारण रहा होगा। इन आधुओं के बारे में जानने का कौतूहल भी हुआ था, लेकिन हम तो रहे संसारी जीव, मेला खत्म होते ही यह बात भुला दी गई।
आज हिन्दी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार आदरणीय संतोष श्रीवास्तव जी का उपन्यास “कैथरीन और नागा साधुओं की रहस्यमयी दुनिया” हाथ में लेते ही मन में एक बार फिर नागा साधुओं का इतिहास जानने की इच्छा बलवत्तर हो गई।
सर्वप्रथम पुस्तक के ‘समर्पण’ पृष्ठ ने ध्यान आकर्षित किया। संतोष जी इस पुस्तक को नागा साधुओं को समर्पित करते हुए लिखती हैं, ‘मेरे देश के नागा साधुओं को जिनका त्याग, तप और शौर्य इतिहास में दर्ज है, जिन्होंने सनातन धर्म और देश के रक्षार्थ शस्त्र और शास्त्र एक कमांडो की तरह उठाए।’ मेरे लिए यह जानना जरूरी हो गया कि साधु और शास्त्र तो ठीक है, लेकिन शस्त्र?
शस्त्रों से नागा साधुओं के संबंध की जानकारी भी इस उपन्यास में मिल गई। मुगल शासन काल में ईश्वर, धर्म और धर्म शास्त्रों के तर्क, शास्त्र और शस्त्र समेत सभी तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा था। ऐसे में आदि गुरु शंकराचार्य ने सनातन धर्म की स्थापना के लिए देश के चार कोनों में चार पीठों का निर्माण किया और सनातन धर्म की रक्षा के विभिन्न संप्रदायों की सशस्त्र शाखा के रूप में अखाड़ों की स्थापना की। उन इन अखाड़ों में प्रशिक्षित वीर विदेशी आक्रमणकारियों से देश की जनता के लिए रक्षा कवच बन गए। इतिहास में ऐसे कई गौरवपूर्ण युद्ध नागा योद्धाओं ने लड़े। भारत की आजादी के बाद
इन अखाड़ों ने सैन्य चरित्र त्याग दिया और भारतीय संस्कृति और दर्शन के सनातनी मूल्यों का अध्ययन, अनुपालन करते हुए संयमित जीवन बिताने का व्रत धारण किया। (पृष्ठ-72)
भारत में नागा साधुओं की परंपरा प्रागैतिहासिक काल से शुरू हुई है। वैदिक साहित्य में भी ऐसे जटाधारी तपस्वियों का वर्णन मिलता है। भगवान शिव इन तपस्वियों के आराध्य देव हैं। 'नागा' शब्द की उत्पत्ति संस्कृत से हुई है, जिसका अर्थ पहाड़ होता है और इस पर रहने वाले लोग 'पहाड़ी' या 'नागा संन्यासी' कहलाते हैं। कच्छारी भाषा में “नागा” का अर्थ “एक युवा बहादुर सैनिक” भी होता है। इस उपन्यास के संदर्भ में मैंने यह जानकारी भी हासिल की।
जैसे जैसे पन्ने पलटती गई, मैं जैसे आश्चर्य के महासागर में डूबने लगी। नागा संप्रदाय तथा नागा बनने की प्रक्रिया का इतना विस्तृत, रोचक और हृदयस्पर्शी वर्णन संतोष जी की कड़ी मेहनत का परिणाम है। लेखन जगत के में इस अछूते विषय पर लिखने की उनकी उत्सुकता, धैर्य और साहस को मैं सलाम करती हूँ। जिन्हें दूर से देख कर भी हम जैसे आम लोगों के मन में एक अजीब सी अनुभूति होती है, उनके जीवन के बारे में जानने के लिए उनके अखाड़े तक पहुँचना, उनके साक्षात्कार लेना वाकई हैरान करने वाली बात है।
एवरेस्ट पर विजय पताका फहराकर लौट रहे पर्वतारोहियों के एक दल ने नागा साधु नरोत्तम गिरि को देखा। वे उनके पास आए। एक पर्वतारोही के प्रश्न पर डेढ़ साल बाद नरोत्तम गिरि का मौन टूटा और शुरू हुई ये कहानी।
नायक मंगल उर्फ़ नरोत्तम गिरि और नायिका कैथरीन को केन्द्र में रखकर यह कहानी शुद्ध ऊन और शुद्ध रेशम के मिश्रण से बने हस्तनिर्मित कश्मीरी कालीन की तरह बुनी गई है! संतोष जी ने बखूबी कहानी में जानकारी को बुन कर गहराई और जटिलता पैदा की है। दूसरे शब्दों में, कहानी के भीतर चरित्र की यात्रा को अद्भुत तरीके से रेखांकित किया है। कोई भी पाठक इस उपन्यास को सिर्फ पढ़ने के लिए नहीं पढ़ सकता। मन को कहानी के विषय में डुबाना होगा। संतोष जी के शब्दों की असाधारण कारीगरी और जटिल डिजाइन ने इस उपन्यास को इतना आकर्षक रूप दिया है। कहानी में उन सभी रसों का स्वाद है जो इस उपन्यास को क्लासिक बनाता है।
किसी भी विषय पर सटीक लिखने की संतोष जी की कला से मैं सदैव प्रभावित रही हूँ। इस उपन्यास में प्रेम, अध्यात्म और जीवन की परिभाषा व्यक्त करते उनके कुछ वाक्यों ने मेरा ध्यान खींचा, जिन्हें हम नये उद्धरण के रूप में भी ले सकते हैं। उदाहरण के लिए-
1. ‘ना जाने कौन सी स्याही से लिखी वह प्यार की इबारत थी कि लफ्ज़ मिटे भी नहीं और कभी दिखे भी नहीं।’ (पृष्ठ-10)
2. ‘प्रेम करके भूल जाने के लिए नहीं होता। प्रेम बस अंकुरित होता है, जिसकी जड़ें पाताल तक भी पहुँचें तो कम है।’ (पृष्ठ-15)
3. ‘औरत अपनी छठी इन्द्रिय से जान लेती है कि कौन उसे प्यार करता है।’ (पृष्ठ-21)
4. ‘जिंदगी में प्यार न होना और प्यार करके जता न पाना, दोनों ही स्थितियाँ पीड़ादायी हैं।’ (पृष्ठ-25)
5. ‘कौतूहल बुद्धि का विकास करता है।’ (पृष्ठ-30)
6. ‘हम चाहे जितना संसार से भागें खुशियाँ हमें संसार में रहकर ही मिलती है।’ (पृष्ठ-52)
7. ‘हम सोचते कुछ और हैं पर ईश्वर हमारे लिए रचता कुछ और है।’ (पृष्ठ-53)
8. ‘इस संसार में कोई भी सुखी नहीं है सब अपने-अपने दुखों का युद्ध लड़ रहे हैं।’ (पृष्ठ-79)
9. ‘सरल बनना बड़ा ही कठिन होता है।’ (पृष्ठ-87)
10. ‘प्यार करने का सुख केवल पाने में नहीं बल्कि देने में हैं।’ (पृष्ठ-116)
11. ‘प्रकृति स्वयं बंदोबस्त करती चलती है दिन के हर प्रहर का।’ (पृष्ठ-186)
12. ‘यौन शोषण का शिकार लड़कियों के सामने सरस्वती बहुत बड़ा उदाहरण है।‘ (पृष्ठ-173)
13. ‘जीवन में गुरु होना आवश्यक है। जो मनुष्यता के पक्ष में खड़े होने की राह बता सके।’ (पृष्ठ-175)
14. ‘एक शांत मन चुनौतियों के खिलाफ़ सबसे बड़ा हथियार होता है।’ (पृष्ठ-190)
15. ‘जिंदगी की हर बात, हर घटना बर्दाश्त कर लेना नामुमकिन है; लेकिन अगर बर्दाश्त कर लिया तो रूह में फकीरी आती है।’ (पृष्ठ-233)
16. ‘जीवन में हमसे प्यार करने वाले की हमें कद्र करनी चाहिए। प्यार से बढ़कर मूल्यवान संसार में कुछ भी नहीं है।’ (पृष्ठ-239)
जैसे जीवन के केन्द्र में प्रेम है, वैसे ही इस उपन्यास के केन्द्र में भी प्रेम है। प्रेम के अलग- अलग रूप भी हैं। इस पैराग्राफ में जो लिखा गया है वह हर मनुष्य के लिए पत्थर की लकीर के समान है, चाहे वह इसे सार्वजनिक रूप से स्वीकार करे या नहीं -
‘प्रथम प्यार, प्रथम छुअन, प्यार का प्रथम एहसास जीवन भर पीछा नहीं छोड़ता। वह बना रहता है हमारी दिनचर्या में। भले ही हम उसके विषय में नहीं सोचते, पर वह मौजूद रहता है हमारे क्रिया कलापों में। पलकों की झपकन में। बरसों बरस... शायद जीवन के अंत तक। कितनी बहारें आकर गुजर जाती हैं, कितने मौसम अपने सौंदर्य या अधिकता की मार से जीवन अस्त-व्यस्त करते हैं। कितनी ही सभ्यताएँ विश्व के नक्शे पर बनती मिटती हैं, लेकिन वह प्रथम प्यार के एहसास की चांदनी, सूरज के प्रकाश में, अमावस के अंधेरे में भी खिली रहती है।’ (पृष्ठ 240)
मंगल से नागा साधु बने नरोत्तम गिरि का दीपा के प्रति एकतरफ़ा प्रेम, रॉबर्ट के साथ आद्या का 'लिव इन रिलेशनशिप' यानी आज के समय को व्याख्यायित करता प्रेम, प्रवीण का विदेशी महिला कैथरीन के प्रति प्रेम, कैथरीन का ‘मोनेर मानुष’ की तलाश में नरोत्तम गिरि के प्रति प्रेम, या वृदधा जानकी देवी का अपने पति दीपक पंत के प्रति प्रेम, प्रेम के विभिन्न रूपों को रेखांकित करते हैं।
नागा बनने की प्रक्रिया से गुजरने के बाद नरोत्तम गिरि ने हिमालय में भोजबासा की गुफा में डेढ़ वर्ष तक तपस्या की, गोमुख ग्लेशियर के कठिन रास्ते से चलकर तपोवन पहुँचे और शिवलिंग पर्वत की चोटी पर साक्षात शिव के दर्शन किए। इस निर्जन और दुर्गम स्थान पर वृद्धा जानकी देवी से उनकी मुलाकात पाठक को उनकी प्रेम कहानी से परिचित कराती है।
जानकी देवी और उनके पति दीपक पंत, गढ़वाल के चार धामों की यात्रा पर निकला एक दम्पति, तपोवन में पत्नी की फोटो लेते हुए दीपक धँसते चले गए बर्फ की पर्त से ढकी खाई में और उसी में समा गए! जानकी देवी का यह वाक्य, ‘मैं आज भी वहीं खड़ी हूँ जहाँ वे मुझे छोड गए।’ (पृष्ठ-53) उन्होंने अपनी अंतरात्मा की आवाज़ सुनी और सभी सांसारिक मोह-माया त्याग कर वहीं बस गईं और अपने पति दीपक को "जानकी देवी चैरिटेबल ट्रस्ट" के काम में जीवित रखा। वे नरोत्तम गिरी उर्फ़ मंगल के दोस्त पवन की मौसी है, यह बात नरोत्तम गिरी के साथ-साथ पाठक को भी चौंकाती है।
मनुष्य के मनुष्य के प्रति प्रेम के अलावा इस उपन्यास में हमें मनुष्य के प्रकृति के प्रति प्रेम, देश के प्रति प्रेम, धर्म के प्रति प्रेम का भी सजीव चित्रण मिलता है। प्रो. शांडिल्य से मिलने लखनऊ आई कैथरीन बताती हैं कि प्रेम क्रांति है। वे कहती हैं, ‘आप प्रेम को व्यक्तिगत स्तर पर देख रहे हैं प्रोफेसर। प्रेम तो जीवन और मनुष्यता का विवेकशील आधार है। क्रांति के बीज उसी में छुपे होते हैं। वहीं से अव्यवस्था और तानाशाही के विरोध की ताकत मिलती है और वहाँ से प्रेम करने वाले अमर हो जाते हैं। वे दुनिया से चले जाते हैं और साहित्यकार उनकी प्रेमगाथा शब्दों में ढलते हैं। (पृष्ठ 177)। मुझे आश्चर्य होगा अगर मैं अनारकली, जिसे सलीम से प्यार करने की सज़ा के तौर पर बादशाह अकबर ने दीवारों में जिंदा चुनवा दिया था, के साथ-साथ देश प्रेम में शहीद हुए भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को याद न करूँ।
उपन्यास की नायिका विदेशी महिला कैथरीन का चरित्र एक अलग ही आकर्षण पैदा करता है। ऑस्ट्रेलिया के सिडनी में रहने वाली कैथरीन का परिचय प्रवीण से गोल्फ खेलते हुए वहीं पर होता है। नवीन लखनऊ से सिडनी व्यापार के सिलसिले में गया था और वहीं बस गया है। कैथरीन पढ़ने की शौकीन है, तो प्रवीण बीजनेसमैन के साथ लेखक भी है। प्रवीण की दो किताबें प्रकाशित होने की बात सुनकर कैथरीन आश्चर्य व्यक्त करती है, ‘आप बीजनेसमैन भी है और लेखक भी हैं?’ ‘विरोधाभास लगा न?’ प्रवीण के इस उत्तर में वह कहती है, ‘नहीं, राइटर होना कोई प्रोफेशन थोड़ी है कि दूसरे प्रोफेशन के संग किया न जा सके।‘ (पृष्ठ 92) यह वाक्य हमें एक लेखक के रूप में सोचने पर मजबूर करता है।
कैथरीन एक ऐसी स्त्री जो विवाह सूत्र में बंधना नहीं चाहती। प्रवीण से प्रेम करती है। प्रवीण शादीशुदा है जान कर भी उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। वह उसके परिवार के साथ भी घुलमिल जाती है। प्रवीण पत्नी शेफालिका की मृत्यु के बाद, कैथरीन, प्रवीण को उसकी कजीन लॉयेना से शादी करने के लिए मना लेती है। वह खुद एक बहती हुई नदी की तरह है, जीवन में उसके लक्ष्य अद्भुत हैं और उसका मानना है कि वह घर बसाने के लायक नहीं है। लॉयेना से प्रवीण की शादी के बाद वह प्रवीण की बेटी जास्मिन को अडॉप्ट कर लेती है और उसे नया नाम देती है, ‘आद्या’।
कैथरीन को ज्ञान के लिए इतना गहरा लगाव है कि वह विश्व के विभिन्न धर्मों को जानना चाहती है। हिंदू आध्यात्मिक ग्रंथ उसका आकर्षण हैं। सारे भारतीय उपनिषद, वेद और ग्रंथों को पढ़ना चाहती है। उन्हें ओरिजिनल रूप में पढ़ने के लिए वह संस्कृत सीखती है।
वह ये भी जानना चाहती है कि भारत में लोग सन्यासी क्यों बनते हैं? क्या वजह है? प्रेम में हार, रिश्तो की बेकद्री, कभी मंजिल पाने में असफलता या फिर केवल जिज्ञासा? खुद को समाप्त करके विश्व के कल्याण की कामना करना इसमें कितना सत्य है? उसके मतानुसार समाज में कितने ही ऐसे स्त्री-पुरुष हैं जो बिना साधना तपस्या के भी तप में लीन हैं। कैथरीन की जिज्ञासा मुझे ब्रिटिश भारतीय युवा लेखक जय शेट्टी की किताब “थिंक लाइक अ मोंक” तक ले गई। जिसमें उन्होंने इसी बात को अपने जीवनानुभवों से साबित किया है कि संसार में रहकर भी हम सन्यासी जैसा जीवन बिता सकते हैं।
भोजबासा से कैथरीन महाकाल गिरि, अष्टकौशल गिरि और नरोत्तम गिरि से नागा पंथ, अघोर पंथ और भारत में स्थित शक्तिपीठों पर बहुत सारी जानकारी लेकर सिडनी लौटती है। ‘नरोत्तम गिरि हम शीघ्र मिलेंगे। दुनिया इतनी भी बड़ी नहीं।’ कहते हुए उसने नरोत्तम गिरि के दोनों हाथ पकड़कर माथे से लगा लिए। थोड़ी देर मानो पत्ता भी नहीं खड़का। थोड़ी देर मानो सृष्टि थम गई। यह कैसा एहसास था जो नरोत्तम गिरी के लिए कैथरीन के हृदय में हो रहा था। यही शायद सृष्टि का वह चरम बिंदु है जिसमें चराचर जगत समय हुआ है। आदि अंत से परे। (पृष्ठ-135)
भारत में उसकी यात्रा के दौरान नागा साधु नरोत्तम गिरि से मिलने के बाद वह उसके दिव्य चुंबकीय व्यक्तित्व की ओर आकर्षित होती है। वह चकित है कि भारत वर्ष में एक ऐसा पंथ भी है जिस पंथ के अनुयायी लाखों नागा साधु है! नरोत्तम गिरि के उज्ज्वल चेहरे के सामने उसे प्रवीण का चेहरा धुंधला नजर आता है। वह सोचती है कि क्या प्रवीण ने उससे सचमुच प्रेम किया है? अगर ऐसा है तो फिर वह लॉयेना से पुनर्विवाह की बात पर इतनी जल्दी सहमत कैसे हो गया?
वह जिस किताब के आंकड़े जुटाने भारत आई थी। भारत से ऑस्ट्रेलिया लौटते समय उसे उपन्यास का रूप देने का मन बना लेती है। जिसका नायक नरोत्तम गिरि होगा। 'आपके जरिए दुनिया को बताऊंगी कि भारतवर्ष में ऐसा भी एक पंथ है जिस पथ के अनुयायी लाखों नागा हैं। अनुभूति, कामेच्छा और भोग ऐश्वर्य से परे। लेकिन फिर भी मानव।' (पृष्ठ–78) वह अपनी संवेदना और जिजीविषा को अपने उपन्यास में उंडेल देना चाहती है।
सिडनी लौटकर कैथरीन ने बेटी आद्या के सामने नरोत्तम गिरि का वर्णन किया और आद्या ने कैनवास पर हूबहू नरोत्तम गिरि को उतार दिया। कैथरीन ने दूर देश के नागा साधुओं पर किताब लिखने कलम उठाई। कैथरीन की किताब लिखने की क्रिया चल रही है, जिसमें बस वह और नरोत्तम है; और बीच में लोग संसार है जिसके दरवाजे कैथरीन के कौतूहल प्रेम और शांति की ओर खुलती हैं। उसका नाम रखा है, "दिव्य पुरुष नरोत्तम नागा"
लगभग चार वर्ष के बाद चारों वेद, विष्णु पुराण पढ़ने के बाद कैथरीन अपनी पालिता बेटी आद्या के साथ फिर से भारत के महाकुंभ मेले में आती है। पहले ही दिन उसका नरोत्तम गिरि से मिलना अनोखी घटना है। नरोत्तम गिरि के प्रति कैथरीन का प्रेम हमें एक नए आयाम पर पहुँचा देता है जहाँ प्रेम का अर्थ सिर्फ प्रेम है, सारे बंधनों से मुक्त।
भले ही नरोत्तम ने उसके हृदय में एक खास जगह बना ली थी, लेकिन कैथरीन अगले ग्यारह साल तक नरोत्तम से नहीं मिलती। उसमें ऐसी कोई व्याकुलता भी नहीं थी कि वह नरोत्तम गिरि के पास चली जाए। वह इसी दिव्य प्रेम में जीना चाहती है।
नरोत्तम गिरि के प्यार की कहानी बिल्कुल अलग है। नरोत्तम गिरि यानि मंगल का दीपा के प्रति एकतरफ़ा प्यार और उसी का भाभी के रूप में जिंदगी भर के लिए उसी के घर आना! मन ही मन दीपा को भुलाने की, जीवन में आई प्रेम की भूलभुलैया के उलझाव से बचने की कोशिश, और एक दिन ऐसी घटना घटी कि दिल में बसी दीपा की मूर्ति टुकड़े टुकड़े हो गई। वह अपना घर छोड़कर बाहर निकल आया उसकी दुनिया ही बदल गई। मित्र पवन की मदद से पहले हिप्पीओं अड्डे पर और फिर नागा साधुओं के अखाड़े तक पहुँच गया। कुंभ के रास्ते जैसे उसे अपना मार्ग मिला जहाँ प्रेम का बदलता रूप है। वह जैसे बुद्ध बन गया। अब बोधि वृक्ष की तलाश ही उसका उद्देश्य है।
नरोत्तम गिरि जो कभी इसरो का वैज्ञानिक बनना चाहता था। सफल जिंदगी जीने की चाह उसे कहाँ से कहाँ ले गई कि वह नागा साधु बन गया लेकिन पूर्ण नागा नहीं बन पाया, क्योंकि कैथरीन को देखकर उसके मन में फिर प्रेम का एक नन्हा अंकुर फूटा। उसे लगा कोई कमी रह गई थी उसकी साधना में या फिर तपश्चर्या में?
वह शिवजी से पूछता है। उत्तर मिलता है- प्रेम पूरे ब्रह्मांड में समाया है। ब्रह्मांड भी उसकी विशालता के आगे छोटा है। तुम गलत नहीं हो नरोत्तम। तुम्हारी साधना भी प्रेम है, तपस्या भी प्रेम है, नागा होना भी प्रेम है, सम्पूर्ण जगत प्रेम की नींव पर टिका है। भ्रमित मत हो। तुम प्रेम की राह पर हो। पूर्ण नागा।' (पृष्ठ 165) इससे सुंदर प्रेम की परिभाषा और क्या हो सकती है, संतोष जी!
नरोत्तम से दीपा के बारे में और दीपा के बेटे विशाल सिंह का भी नागा साधु बनने की बात सुनकर कैथरीन का नरोत्तम गिरि के स्नेहिल परिवार से मिलने जाना। दीपा का इकरार कि मंगल के प्रति उसका आकर्षण सिर्फ देह का था। फिर भी उसे आज तक पछतावा है कि उसके कारण ही मंगल उर्फ नरोत्तम गिरि का आबाद परिवार उजड़ गया। ये बातें हमें प्रेम को समझने पर विवश करती है।
अक्सर हम प्रेम और सेक्स के बीच फर्क नहीं कर पाते। ओशो की भाषा में कहें तो प्रेम शरीर के तल पर नहीं, चेतना के तल पर घटने वाली घटना है। शरीर के तल पर जब प्रेम को हम घटाने की कोशिश करते हैं, तो प्रेम आब्जेक्टिव हो जाता है। कोई पात्र होता है प्रेम का, उसकी तरफ हम प्रेम को बहाने की कोशिश करते हैं। वहाँ से प्रेम वापस लौट आता है, क्योंकि पात्र शरीर होता है जो दिखायी पड़ता है, जो
स्पर्श में आता है। यदि प्रेम को एक आत्मिक घटना बनानी है, यदि हम प्रेम की, चेतना पैदा करते हैं, तो प्रेम आब्जेक्टिव नहीं रह जाता, सब्जेक्टिव हो जाता है। तब प्रेम एक संबंध नहीं, चित्त की एक दशा है, स्टेट आफ माइंड है।
एक लड़की से अगाध प्रेम के कारण ही संसार से पलायन कर गए नायक मंगल की मंगल से नरोत्तम गिरि बनने की यात्रा का वर्णन इतना जीवंत है कि नजर के सामने सारे दृश्य बनते जाते हैं। मंगल तीन साल तक अखाड़े के गुरुओं की सेवा, गुरुओं से प्राप्त धर्म दर्शन कर्मकांड की समझ प्राप्त करने के बाद चौथे वर्ष हरिद्वार में लगे अर्ध कुंभ मेले में सुबह चार बजे उठकर नित्य क्रिया से निवृत्त होकर गंगा किनारे आता है और नागा बनने की कठिन प्रक्रिया से गुजरता है। पहले उसका मुंडन, फिर कड़कड़ाती ठंड में गंगा के बर्फीले पानी में एकसौ आठ बार डुबकियाँ। पूरा शरीर जैसे ग्लेशियर ठंडा और दृढ़। वह गंगामय हो गया और उसका अतीत जैसे गंगा में समा गया!
ब्रह्मचारी से महापुरुष बनने के बाद अवधूत बनाए जाने की प्रक्रिया, जनेऊ संस्कार और गुरुओं द्वारा सन्यासी नागा जीवन की शपथ दिलाना। शपथ के बाद स्वयं का पिंड दान करना। सांसारिक बंधनों से मुक्ति, उसका नया जन्म और गुरुजी ने नाम दिया नरोत्तम गिरि। इसके बाद दंडी संस्कार। भोर होते ही विजया हवन के बाद गंगा में फिर से एकसौ आठ बार डुबकियाँ। निर्वस्त्र होकर चौबीस घंटे तक अखाड़े के ध्वज के नीचे खड़ा रहना।
कैथरीन सोचती है कि कैसे नरोत्तम का प्रेम ही उससे सब कुछ छीनता चला गया। वह नागा बनने की गहरी वेदना से गुजरता गया। ऐसा करते हुए वह ईश्वर के और नजदीक होता गया। पर वह मार्ग कंटकाकीर्ण था और वह लहूलुहान होता रहा। वह तपता रहा और तपकर स्थिर हो गया।
हिमालय पर्वत श्रृंखला की चोटी में लगातार शून्य से भी कम तापमान ने तप करते हुए नरोत्तम गिरी का देह पत्थर सा बन गया था। उन्हें प्रशिक्षण केंद्र में नए नागाओं के प्रशिक्षण का काम सौंपा जाता है। गुरुजी कहते हैं कि नागा योद्धा तैयार करो। उन्हें धर्म के कमांडो बनाओ। राष्ट्र और धर्म के रक्षकों की फौज तैयार करो। देश को कभी भी हमारी जरूरत पड़ सकती है। (पृष्ठ 137) ऐसा ही आह्वान पृष्ठ-185 पर भी मिलता है।
आगे भी कहा गया है, ‘हालाँकि अब वो समय नहीं रहा, जब नागाओं का युद्ध कौशल देश की राजनीति पर कमान रखता था। अब तो नागा साधु राजनीति में भी सक्रिय भूमिका निभाते हैं। लैपटॉप मोबाइल भी रखने लगे हैं। (पृष्ठ 139) प्रशिक्षण के दौरान ही उन्हें यह उपलब्ध कराया जाता है ताकि उन्हें गुरुजी की सारी सूचनाएँ मिल सके। नरोत्तम गिरी उन्हें न केवल वैज्ञानिक दृष्टिकोण से बल्कि सनातनी दृष्टिकोण से भी शिक्षा देते हैं। जूना अखाड़े में चार लाख नागा हैं, और अन्य 100 लड़कों को ट्रेनिंग जा रही है। ‘एक कमांडो की भी इतनी कठोर ट्रेनिंग नहीं होती, जितनी नागाओं की।’ (पृष्ठ 146) इस ट्रेनिंग का रोचक वर्णन हमें उपन्यास के आठवें भाग में मिलता है।
यहाँ पर मैं एक विचार भी रखना चाहूंगी जो मेरे मन में आया है। हमारे देश में नागा साधुओं की इतनी बड़ी संख्या है। वर्तमान में पढ़े-लिखे युवा भी इस संप्रदाय के अनुयायी बन रहे हैं। इतना बड़ी रकम का फंड उनके लिए देश-विदेश से आता है। उनके पास फोन, लैपटॉप जैसे तकनीक के साधन भी हैं। आज भी वे देश की रक्षा के लिए उसी कठोर प्रशिक्षण से गुजरते हैं, तो देश को फिर से उनकी सेवाएँ लेने पर ध्यान देना चाहिए या नहीं। भारतीय सीमा पर जहाँ हमारी सेना को अत्यधिक ठंड के कारण काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, वहाँ हम जरूरत पड़ने पर उनकी सेवाएँ ले सकते हैं। खैर, यह मेरी व्यक्तिगत सोच है।
नरोत्तम गिरि के विचार से हमें भी सहमति जतानी पड़ती है। अगर नागाओं के लिये देश सर्वोपरि है और धर्म का स्थान बाद में आता है तो फिर उन्हें आतंकवादी गतिविधियों के खिलाफ सशस्त्र अभियानों में शामिल क्यों नहीं किया जाता?
नागा बनने की एक प्रक्रिया “लिंग भंग संस्कार” ने मुझे बुरी तरह झकझोरकर रख दिया। उफ्फ़! इस संस्कार कर बारे में पढ़ने के बाद जो सवाल मेरे मन में आया, वही सवाल भोजबासा गुफा में बैठी कैथरीन ने पुरोहित जी के उत्तर के संदर्भ में पूछ ही लिया-
‘लिंग भंग संस्कार हर नागा का होता है। कोई भी नागा इससे अछूता नहीं है। यह ईश्वर की ओर बढ़ने की प्रथम सीढ़ी है। स्वयं का त्याग करो। त्याग से तप और तप से ईश्वर की प्राप्ति। बड़ा दर्दनाक होता है माता यह संस्कार।‘ पुरोहित जी के कहने पर कैथरीन पहले चकित फिर रोष में आ गई।
"यह कैसा संस्कार? यह तो अमानवीय ही नहीं बल्कि ईश्वर का अपमान भी है। ईश्वर ने जिसे पुरुष बनाया उसे नपुंसक बनाना क्या प्रकृति और ईश्वर का अपमान नहीं है? आप एक अच्छे खासे व्यक्ति के पूर्णत्व को अपूर्णता में बदल देते हैं। लाचार कर देते हैं उसे। क्या आप तप से अपनी इंद्री को वश में नहीं रख सकते? क्या ऐसा करके आपके तप की ओर बढ़े कदम लड़खड़ा नहीं जाते? यह कैसा तप?"
इस बात पर कभी विचार ही नहीं किया था उन्होंने। कैथरीन ही उन्हें द्विधा से उबार लेती है, ‘खैर, यह नागा संस्कार से जुड़ा कर्म है। इस पर अधिक प्रश्न, अधिक संदेह ठीक नहीं है। धर्म से जुड़ी हर अमानवीय घटना पर अपने आप ताला लग जाता है। मुस्लिम धर्म में सुन्नत, अफ्रीकी देशों में स्त्रियों की अमानवीय तरीके से की गई सुन्नत, सभी को धर्म में शामिल कर लिया गया है। मैं इन सभी अमानवीय स्थितियों का विरोध करती हूँ। विरोध मेरा अपना है। जरूरी नहीं कि वह किसी संप्रदाय पर आरोपित हो। चलिए एक छोटा सा सवाल, भूख, प्यास जो नैसर्गिक जरूरत है वह क्यों नहीं सताती आपको?" (पृष्ठ 61,62)
कैथरीन ने धर्म से जुड़े अमानवीय संस्कार पर सवाल रूप जो प्रहार किया उस पर हमें जरूर विचार करना चाहिए। धर्म की स्थापना या धर्म की रक्षा के लिए क्या और कोई पथ नहीं? मेरा मन बंगाल के बाउल संप्रदाय की ओर चला गया। बाउल साधना का मूल मंत्र है- जाति, धर्म, नस्ल से ऊपर मनुष्य से
मनुष्य का प्रेम। प्रेम तत्त्व ही उनकी साधना का केन्द्र है। उनका ध्यान, मंत्र, साधना मानव समाज को वैश्विक भाईचारे का संदेश देता है। देश की रक्षा करना हमारा पहला कर्तव्य है, लेकिन वर्तमान समय में जब पूरा विश्व एक गाँव में तब्दील हो गया है, तब देश के हर संप्रदाय को भारतीय संस्कृति और दर्शन के पारंपरिक मूल्यों की रक्षा करने के साथ-साथ वैश्विक भाईचारे का संदेश भी सहज-सरल तरीके से ही फैलाना चाहिए।
उपन्यासकार संतोष श्रीवास्तव जी प्रसंगानुसार कहानी के बीच-बीच में अनेक प्रकार की जानकारियों से पाठक को लाभान्वित करती चलती हैं। मसलन, नागा साधुओं के कितने भेद हैं और क्यों हैं? उन भेदों के अन्तर्गत भी उनके उपभेद क्या-क्या हैं। उनके दायित्व अथवा कर्तव्य क्या-क्या हैं? वैराग्य, ध्यान, सन्यास और धर्म की दीक्षा कैसे दी जाती है आदि। संतोष जी की भाषा मुझे हमेशा आड़म्बर-रहित, बहुत ईमानदार नजर जाती है। जैसे- शाम आसपास के गहने दरख्तों पर उतर आई थी। बाँस के झुरमुट में हवा का प्रवेश होते ही बाँसुरी सी बजने लगती। गहराते शाम के अंधेरे में जंगल भयभीत कर रहा था। (पृष्ठ- 38)
उपन्यास के पाँचवें भाग में भगवान शिव को अपना गुरु मानने वाले अघोर पंथ का जीवंत वर्णन पढ़कर हर पाठक हैरत में डूब जाएगा। अघोरी से नागा साधु बने अष्टकौशल गिरी की बातें सुनकर नायिका कैथरीन पर जो प्रभाव पड़ता है, वही रोंगटे खड़े कर देने वाला समान प्रभाव प्रत्येक पाठक पर पड़ेगा। एक-दो बातों का ही उल्लेख करूंगी। जुगुप्सा भरा जीवन जीने वाले अघोरी, भले ही मानवता, धर्म और देश के लिए जीते हैं, लेकिन इंसानों के शव खाने से भी नहीं कतराते। तांत्रिक प्रक्रिया के तहत ये शवों के साथ शारीरिक संबंध स्थापित करते हैं।
छठे भाग में मौरी आदिवासियों की जीवन शैली को दर्शाती जापुकाय की हजारों साल पुरानी अबॉर्जिनल संस्कृति के आर्ट एंड कल्चर म्यूजियम की रसप्रद बातें भी इस उपन्यास का एक महत्वपूर्ण अंश है। इस भाग में कैथरीन के भारत आने और कुछ ज्योतिर्लिंगों की मुलाकात लेने की बात भी है। इस बारे में पढ़ते हुए मुझे भारत के बारह ज्योतिर्लिंगों का भी स्मरण हो आया। जिस प्रकार माता सती के देह के टुकड़े जहाँ-जहाँ गिरे वहाँ-वहाँ शक्तिपीठ निर्मित हो गए, ठीक उसी प्रकार हिंदू धर्म में पुराणों के अनुसार, इस पृथ्वी पर जहाँ-जहाँ भगवान शिव स्वयं प्रकट हुए, उन-उन स्थानों पर ज्योति स्वरूप में शिवलिंग के अंदर समाहित हो गए। वे बारह स्थान पर ज्योतिर्लिंग निर्मित हुए।
मुझे यह इसलिए याद आया क्योंकि मैं गुजरात के गीर सोमनाथ जिले के वेरावल शहर में स्थित बारह ज्योतिर्लिंगों में से पहले ज्योतिर्लिंग सोमनाथ मंदिर के दर्शन कर चुकी हूँ। ऐसा कहा जाता है कि भगवान कृष्ण ने यहीं पर देह त्याग किया था। महाराष्ट्र में नासिक से लगभग तीस किमी दूर त्र्यंबक शहर में श्री त्र्यंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर के दर्शन करने का अवसर भी मिला है। पवित्र गोदावरी नदी का उद्गम त्र्यम्बक के निकट है।
भारत देश महान परंपरा, धर्म, अध्यात्म, साधना और भक्ति का देश है। इस देश को मंदिरों का देश भी कहा जाता है। उपन्यास के सातवें भाग में कैथरीन की भोजबासा के जंगलों की मुलाकात का रोचक वर्णन है। तीन नागा साधुओं के मुख से कैथरीन शिव और उनके ससुर दक्ष की मनोमालिन्य की कथा के साथ भारत के पुराणों में चित्रित शक्तिपीठों की स्थापना की संक्षिप्त किन्तु रोचक कथा सुनती है। इस भाग में अघोर पंथ की शाखाओं के बारे में, उनकी तंत्र साधना के बारे में, कुछ शक्तिपीठ तांत्रिकों के गढ़ कैसे हैं, उन पर भी रोचक जानकारी मिलती है। (पृष्ठ 120-135)
मुझे शक्तिपीठों के बारे में बहुत ज्यादा जानकारी नहीं है। बंगाल में (बांग्लादेश सहित जो बंगाल का ही हिस्सा था) सबसे अधिक 16 शक्तिपीठ है, जानकर बहुत अच्छा लगा। सियासत की जंग में भारत कैसे विभाजित हुआ और अखंड भारत में स्थापित शक्तिपीठ उन हिस्सों में चले गए जो अब पाकिस्तान, बांग्लादेश जैसे नए नामों से परिचित हैं। ‘बहुत बुरा हुआ, सत्ता की आँच में जलती है प्रजा।’ (पृष्ठ 123) इस पर कैथरीन की इस प्रतिक्रिया सुनकर मेरे दिल में भी एक टीस उठी।
जैसा संतोष जी ने बताया है कि अलग-अलग पुराणों में शक्तिपीठों की संख्या अलग बताई गई है, इस बात से मैं भी सहमत हूँ, क्योंकि उनके दिए गए 52 शक्तिपीठों में मुझे गुजरात में बड़ोदरा से पचास किलोमीटर दूर पावागढ़ काली माता के मंदिर का नाम नहीं मिला, जिसे भी शक्तिपीठ माना जाता है; जहाँ माँ के दाहिने पैर की उंगली गिरी थी। मैंने इस मंदिर के दर्शन के समय वहीं पर लिखी जानकारी पढ़ी थी इसलिए आज भी याद है।
असम में गुवाहाटी से आठ कि.मी. दूर नीलांचल पर्वत पर स्थित चमत्कारों से भरे कामाख्या देवी के मंदिर के बारे में जानकर सचमुच आश्चर्य हुआ। यह मंदिर शक्तिपीठों का महापीठ माना जाता है, जहाँ देवी की योनि गिरी थी और यहाँ देवी के योनि की ही पूजा की जाती है! कामाख्या वर्तमान में तंत्र सिद्धि का सर्वोच्च स्थल भी माना जाता है। हिन्दू अध्यात्म से प्रभावित कैथरीन शक्तिपीठ और अघोर पंथ की कहानी सुनकर हैरान रह जाती हैं।
ग्यारहवें भाग में नागा साधुओं के अखाड़ों की प्रबंधन की व्यवस्था के बारे में भी विस्तृत जानकारी दी गई है। अखाड़े एक इंस्टिट्यूट के रूप में चलते हैं। अखाड़े में सबसे बड़ा पद आचार्य महामंडलेश्वर का होता है लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि वे नागा नहीं होते, संत होते हैं। शैव और वैष्णव अखाड़े में खूनी संघर्ष की बातें भी है।
इस उपन्यास में मैंने प्रकृति को जीवन के दर्शन के रूप में देखा। रुद्रप्रयाग देवप्रयाग, कर्ण प्रयाग, नंदप्रयाग, विष्णु प्रयाग का प्राकृतिक सौंदर्य, भोजबासा के जंगल, उसमें बसी गुफ़ाएँ, उज्जैन की शिप्रा नदी के तट का सौंदर्य, जहाँ हर बारह वर्ष बाद विश्व के सबसे बडे मेले सिंहस्थ कुंभ का आयोजन किया जाता है। अपनी अदा, इतिहास और मीठी जुबान के लिए मशहूर लखनऊ शहर, गोमती का किनारे का सौन्दर्य, बिल्कुल गाय के मुख जैसा गोमुख ग्लेशियर का सौंदर्य, साफ आसमान में रोहिणी के प्रेम में आसक्त खिले चांद का सौंदर्य, और उनमें फैली हिंदू माइथोलॉजी की अनंतता, हमें एक अलग दुनिया में ले जाती है!
पढ़ते समय मुझे तकषी शिवशंकर पिल्लै का लिखा उपन्यास “चेम्मीन” कई बार याद आया। यह न केवल नायक परीकुट्टी और नायिका करुथम्मा की एक असाधारण प्रेम की कहानी है, बल्कि समुद्र भी इसमें मुख्य पात्र के रूप में उभरता है।
नागा साधुओं के अखाड़े, शक्ति पीठ और महाकुंभ मेला जैसे स्थान भी मेरी आँखों के सामने पात्र बनकर उभरे। पौराणिक कथाओं के अनुसार मनाए जाने वाले त्योहार हल छठ, करवा चौथ, संतान सप्तमी भी छोटे-छोटे पात्रों के रूप में सामने आते हैं।
महाकुंभ मेले की बात कहूँ तो पाँच किलोमीटर में फैले प्रयागराज के कुंभ नगर में पचपन दिन तक चलने वाला महाकुंभ और आठ करोड़ देशी- विदेशी श्रद्धालुओं का होना, समुद्री पर्वतों को लांघकर आए विदेशी सैलानियों का माथे पर तिलक लगाए, रुद्राक्ष की माला पहने घूमना। गंगा, जमुना और गुप्त सरस्वती, तीन नदियों के त्रिवेणी संगम के स्थान पर दो-तीन महीने के शिशुओं तक को गंगा के पानी में डुबकी लगवाना। वहाँ मौजूद अखाड़ों की साज सज्जा। भक्ति, साधना और संगीत की त्रिवेणी में डूबा संगम, तट व्यवसाय भंडार घरों में पक रहे भोजन की खुशबू, ब्रह्म मुहूर्त में गंगा की लहरों पर हजारों की तादाद में छाए हुए साइबेरियन पक्षी, सत्रह सिंगार किए नागा साधुओं के शाही स्नान के बाद गंगा में डुबकी लगा रहे लाखो श्रद्धालु- हमें एक अलौकिक दुनिया में ले जाते हैं। (पृष्ठ-156,157)
अब महिलाएँ भी नागा साधु की दीक्षा लेकर सनातन धर्म के लिए समर्पित हैं, यह जानकारी जितनी कैथरीन के लिए नई थी उतनी ही मेरे लिए भी नई है। उन्हें भी बारह वर्ष सन्यासी जीवन बिताना पड़ता है क्योंकि पूर्णतया नागा साधु बनने में बारह वर्ष लगते हैं। अखाड़े की परंपरा के अनुसार उन्हें भी पूरे विधि विधान के साथ मुंडन कराके दशविधि स्नान कराया जाता है। फिर गंगा में डुबकी लगाकर पाप मुक्त हो वे पवित्र हो जाती हैं। एक समय भोजन, भूमि शयन का उम्र भर का व्रत, उन्हें भी करना पड़ता है। वे अपने शरीर पर एक पीला वस्त्र लपेटकर रखती हैं। पढ़ते-पढ़ते एक विचार से मन सिहर उठा कि क्या पुरुषों का पुरुषत्व समाप्त करने की लिंग भेद की विधि की तरह महिलाओं के लिए भी उनके स्त्रीत्व को समाप्त करने की कोई विधि है?
महिला नागा सन्यासिन शैलजा माता कैथरीन को बताती हैं, ‘‘पाँच-छै दिन हमारी योनि को शिथिल करने के लिए हमें भूखा रखा जाता है। हमारी कामेच्छा उसी दौरान समाप्त हो जाती है। बाकी शक्ति हमारी माता पार्वती और शिव भोला भण्डारी हमें देते हैं।’ (पृष्ठ 206) क्या पंच तत्वों से बने शरीर की मजबूत इंद्रियों को शिथिल करने से कामेच्छा मर जाती है? यह सवाल भी दिल को बींधता रहा।
छोटे बच्चों को माता-पिता द्वारा नागा अखाड़े में दान कर दिया जाता है, यह जानकारी मन को और भी विचलित करती है कि ये कौन से माता-पिता है जो बच्चों के जीवन के मालिक बने बैठे हैं? बच्चों से उनकी जिंदगी, उनके सपने छीन लेते हैं!
एक नई जानकारी मुझे हाल ही में प्राप्त हुई है। 2019 में भारत में हिन्दू सन्तों एवं साधुओं के सर्वोच्च संगठन, ‘अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद (ABAP)’ द्वारा यह फैसला लिया गया था कि उस वर्ष के अर्ध कुम्भ में दलितों को भी संत-साधु बनने का मौका दिया जाएगा। ‘ABAP’ के तत्कालीन अध्यक्ष महंत नरेंद्र गिरी जो कि निरंजनी अखाड़े के प्रमुख थे, उन्होंने बताया था कि सभी बड़े तेरह अखाड़े इस बात के लिए मान गए हैं और वह पल बड़ा ही एतिहासिक होगा। इससे पहले ब्राह्मण, कायस्थ और वैश्य ही नागा साधु बन सकते थे।
किताब का अंतिम अध्याय लिखने कैथरीन फिर भारत आईं। उसे नरोत्तम गिरी की फोटो खींचनी थी और पांडुलिपि प्रकाशक को देनी थी। ‘कवर पेज पर नरोत्तम के साथ उसकी तस्वीर छपेगी। बैक कवर में भोजबासा की गुफा के इंप्रेशन में उसका परिचय। अंदर के पृष्ठों में आद्या के बनाए चित्र होंगे।‘ (पृष्ठ-241) इन तीन पंक्तियों ने मुझे मेरे और अश्विन मैकवान द्वारा लिखित हमारे हिन्दी चैट उपन्यास “यू एंड मी” की तीव्रता से याद दिला दी। अश्विन मेरे मुग्धावस्था के अनकहा प्रेम थे।
कॉलेज काल समाप्त होने के इकतालीस साल बाद वे मुझसे फ़ेसबुक पर मिले। हमने मैसेंजर पर किए गए संवादों को उपन्यास का रूप दिया। वे अपने परिवार के साथ कैलिफोर्निया के लॉस एंजेलिस शहर में रहते थे। मेरी उनसे प्रत्यक्ष मुलाकात नहीं हो पाई। 24 जून, 2020 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। ‘जीवन में जब कोई ऐसा दिव्य पुरुष मिलता है जिससे मिलकर लगता है कि हम शायद उसी के लिए इस दुनिया में आए हैं।‘ पृष्ठ-151 पर लॉयेना ने जो कहा, उससे मैं इत्तेफाक रखती हूँ। अश्विन ने संसार में रहते हुए भी एक संत का जीवन जिया।
नरोत्तम के साधना और कठोर तपस्या के वर्षों में कभी व्यवधान न डालने वाली कैथरीन नरोत्तम से बंधकर नही, नरोत्तम गिरि से जुडकर नहीं, बल्कि उससे प्रेम करते हुए अपने आप में प्रेम पूर्ण हो गई। अखाड़े में नागा दीक्षा लेने का संकल्प ले चुकी कैथरीन के प्रेम की इस ऊँचाई की तो नरोत्तम गिरि ने कभी कल्पना भी नहीं की थी।
‘गीता’ में भौतिक, सांसारिक, स्वार्थ पूर्ण प्रेम पर कुछ नहीं लिखा गया बल्कि निःस्वार्थ और आध्यात्मिक प्रेम के बारे में विस्तार से बताया गया है! प्रेम किसी को पाना नहीं बल्कि उसमें खो जाना है। भगवान श्री कृष्ण ने कहा है कि प्रेम को छीनकर प्राप्त नहीं किया जा सकता।
नागा साधुओं की रहस्यमयी दुनिया में भी मुझे तो रात के चौथे प्रहर यानी ब्रह्ममुहूर्त में हिमाचल प्रदेश के मणिकैलाश पर्वत पर, जो भगवान शिव का निवास स्थान माना जाता है, प्रेम एक मणि की तरह चमकता हुआ दिखा! चाहे वह देश, धर्म के प्रति प्रेम हो या अतीत में किसी के प्रति महसूस किया गया गहन प्रेम हो।
मैं कहानी का अंत में पाठकों के लिए छोड़ती हूँ जहाँ कैथरीन के संवाद प्रेम की पराकाष्ठा है। पाठक भी नागा साधुओं की रहस्यमयी दुनिया के बारे में जानें और उस प्रेम की ऊँचाई का दर्शन कर सकें,
जहाँ परमात्मा का वास है। मुझे यह अनुभूति हुई कि संतोष जी ने कैथरीन के किरदार में खुद को डुबो कर उसके प्रेम को इतनी ऊँचाई पर पहुँचा दिया कि इस उपन्यास को पढ़ते हुए हर पाठक, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष अपने आप में प्रेम पूर्ण हो जाएगा।
‘उत्कृष्ट सर्जना समय साध्य होती है कैथरीन। काल की अग्नि में तपकर ही शिखर मिलता है।’ पृष्ठ 217 पर लिखी गई ये दो पंक्तियाँ मैं आपको ही समर्पित करती हूँ, संतोष जी। पंद्रह भागों में लिखे इस उपन्यास को लिखने में आपने सात वर्ष का समय लिया और हम पाठकों और साहित्य जगत को एक उत्कृष्ट सर्जन मिला। मैं कोई आलोचक नहीं हूँ, फिर भी मैंने इस उपन्यास के साथ न्याय करने का यथासंभव प्रयास किया है। इस उपन्यास को पढ़ने के बाद नागा साधुओं के बारे में मेरी सामान्य धारणा, कि वे केवल कुंभ मेले में ही दिखाई देते हैं और फिर हिमालय की घाटियों में गायब हो जाते हैं, पूरी तरह से बदल गई।
आप ऐसे ही अछूते विषयों पर लिखती रहें, इन्हीं शुभकामनाओं के साथ मैं अपनी बात को विराम देती हूँ।
अस्तु।
मल्लिका मुखर्जी
बहुभाषी लेखक एवं अनुवादक, अहमदाबाद
उपन्यास : कैथरीन और नागा साधुओं की रहस्यमयी दुनिया
लेखिका : संतोष श्रीवास्तव
प्रकाशक : किताबवाले,
7/31, अंसारी रोड,
दरियागंज, नयी दिल्ली-110002;
पृष्ठ : 252
मूल्य : रु 1000/- अमेजॉन मूल्य ₹800 (हार्डबाउंड)
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