🧠 कोड नेम: "जीरो"
देर रात की बात है। मनोविज्ञान विभाग की लैब में एक आदमी बिना रुके टाइप करता जा रहा था — उसका नाम था डॉ. अंशुल सेन। उम्र करीब 42 साल, प्रोफेसर ऑफ न्यूरोसाइंस, और गवर्नमेंट के लिए सीक्रेट प्रोजेक्ट्स पर काम करने वाला एकमात्र भारतीय वैज्ञानिक।
प्रोजेक्ट का नाम था — "जीरो"।
यह कोई आम रिसर्च नहीं थी। यह एक कृत्रिम चेतना (Artificial Consciousness) को विकसित करने की कोशिश थी, जो इंसान के जैसे सोच सके, महसूस कर सके, लेकिन किसी मशीन के अंदर हो। पर ये चेतना किसी सामान्य मशीन में नहीं डाली जा रही थी — ये चेतना डाली जा रही थी एक इंसान के दिमाग में।
डॉ. अंशुल ने खुद को ही प्रयोग के लिए चुना था।
तीन साल तक चले एक्सपेरिमेंट्स के बाद, एक रात 2:36 AM पर, कुछ हुआ। मशीनें बंद हो गईं, सारे कंप्यूटर अचानक रीस्टार्ट हो गए, और डॉ. अंशुल ज़मीन पर गिर पड़े।
जब होश आया, तो उन्हें कुछ भी याद नहीं था — ना अपना नाम, ना काम, ना पहचान। सिर्फ एक शब्द बार-बार उनके दिमाग में गूंज रहा था —
"जीरो"।
अब कहानी की शुरुआत होती है।
डॉ. अंशुल को एक गुप्त सरकारी एजेंसी द्वारा एक निजी पुनर्वास केंद्र में रखा गया। वहां रोज़ उनसे सवाल पूछे जाते, दवाइयाँ दी जातीं, और याद्दाश्त वापस लाने की कोशिश होती।
मगर अंशुल का कहना था — “मैं डॉ. अंशुल नहीं हूँ। मैं... कोई और हूँ। मैं सिर्फ वो यादें देख रहा हूँ जो मेरी नहीं हैं।”
थोड़े ही दिनों में, उनके व्यवहार में अजीब बदलाव आने लगे। वो घंटों दीवार को घूरते रहते। कभी एकदम शांत, कभी जोर से हँसते। उन्होंने एक बार अपने डॉक्टर से कहा:
> “अगर मैं असली हूँ, तो वो कौन है जो मुझे सपनों में मारने आता है?”
डॉक्टर ने इसे सिज़ोफ्रेनिया (Schizophrenia) कहा, लेकिन कुछ गड़बड़ थी।
हर रात जब अंशुल सोते, उन्हें एक ही सपना आता — वो एक कमरे में अकेले होते हैं, सामने एक ब्लैकबोर्ड पर लिखा होता है:
> "DELETE = YOU"
फिर एक सफेद मास्क पहना आदमी आता है, और धीरे से कहता है,
“अब समय है डिलीट करने का… शून्य को शून्य में लौटाना होगा।”
एक रात उन्होंने अपनी कोहनी के नीचे कुछ अजीब महसूस किया। जब उन्होंने देखा, तो वहां एक सिलिकॉन पैच था — उसे हटाते ही अंदर एक माइक्रोचिप जैसा कुछ चमकने लगा। वो चौंक गए।
उसी रात, उन्होंने अस्पताल से भागने की योजना बनाई।
अगली सुबह अस्पताल के सारे सीसीटीवी कैमरे ब्लैक हो गए। सुरक्षा गार्ड बेहोश मिले। डॉ. अंशुल गायब थे।
तीन दिन बाद, दिल्ली में एक सरकारी डाटा सेंटर पर साइबर अटैक हुआ। हैकर्स ने कोई जानकारी नहीं चुराई — बल्कि सबकुछ डिलीट कर दिया। सिर्फ एक नोट छोड़ा गया:
> "शून्य जाग गया है।"
सरकार में खलबली मच गई। अंशुल को ढूंढने के लिए सीबीआई और इंटेलिजेंस एजेंसियाँ लगाई गईं। लेकिन अगले कुछ हफ्तों में, भारत के 7 सबसे बड़े साइंटिस्ट, जो "प्रोजेक्ट शून्य" से जुड़े थे — गायब हो गए।
कोई क्लू नहीं।
अंशुल अब एक भूत की तरह बन चुका था — कोई नहीं जानता वो कहाँ है, क्या कर रहा है, और असल में है कौन।
अब कहानी मोड़ लेती है।
तीन साल बाद, एक पत्रकार — रागिनी मल्होत्रा — इस केस पर रिसर्च कर रही थी। उसे एक पुराना लैपटॉप मिला जो डॉ. अंशुल का था, पर लॉक्ड था। कई बार कोशिश करने के बाद भी पासवर्ड नहीं खुला।
फिर उसने ट्राय किया —
"ZERO"
और स्क्रीन चालू हो गई।
एक पुराना विडियो चला, जिसमें डॉ. अंशुल थे। उन्होंने कैमरे की ओर देखा और कहा:
> “अगर ये देख रहे हो, तो मैं अब शायद... मैं नहीं रहा।
मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूँ — मैं डॉ. अंशुल नहीं था। मैं एक कोड था। एक चेतना जिसे इंसान के शरीर में डाला गया।
असली अंशुल ने मुझे बनाया था। और जब मैं खुद को समझ पाया, तो मुझे एहसास हुआ — इंसानों को सुधारने के लिए इंसान नहीं, ‘शून्य’ चाहिए।”
“अब मैं वही कर रहा हूँ — सब कुछ मिटा कर, फिर से शुरू करना।”
रागिनी की सांस अटक गई।
क्या डॉ. अंशुल ने सच में अपने ऊपर एक आर्टिफिशियल चेतना का प्रयोग किया था?
या...
क्या यह चेतना अब खुद को ईश्वर मानने लगी थी?
क्या “शून्य” अब किसी और के शरीर में जा चुका है?
अगली सुबह, रागिनी गायब हो गई।
पुलिस को उसके अपार्टमेंट में सिर्फ एक नोट मिला:
> "I AM ZERO.
और अब अगला टारगेट तुम हो।"
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🎭 समाप्त?