Raktrekha - 13 in Hindi Adventure Stories by Pappu Maurya books and stories PDF | रक्तरेखा - 13

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रक्तरेखा - 13



धूप ढल चुकी थी। खेतों की मेड़ों पर धुआँ तैर रहा था — कहीं धान की भूसी जल रही थी, कहीं घरों की छतें। झोपड़ियों के दरवाज़े आधे टूटे थे, दीवारों पर कालिख की लंबी लकीरें थीं।

गली के कोनों में बिखरे बर्तन पड़े थे — आधी पकी रोटियाँ, अधजली लकड़ियाँ, और छप्पर से लटकती राख, जैसे आसमान तक कोई सिसकी पहुँच गई हो।
अभी भी हवा में एक धीमी-सी चमक बाँट रही थी, मानो धरती ने अपने आँसू पूरे शहर के ऊपर फैलाकर धुंधला बना लिया हो। उस गाँव के किनारे से गुजरती सड़क पर अब सोने-चाँदी की चमक नहीं थी।
बार-बार लगी आग की लपटों ने मिट्टी पर गहरे निशान छोड़ दिए थे — बच्चों की छोटी-छोटी पगडंडियाँ अब धुँधली थीं, घरों की दिवारें चपटी पड़ी थीं, और कुएँ के पास कुछ टूटी हुई बाल्टियाँ किनारे फँसी हुई दिखती थीं — जैसे वे भी बचकर भागने की जल्दी में रह गई हों।

सैनिकों की रट आज गूँज रही थी, पर अब वे सब शांत थे — थके हुए, झुके हुए, और कुछ के हाथों पर दाग़-धब्बों की छाया। उनकी हँसी अब खनकती नहीं थी; मौजूद थी केवल साँसों का भारीपन और कंधों पर लटकी हुई जिम्मेदारी की ठंडी चादर। बीच-बीच में कोई किलकारी जैसे कहीं खोई हुई आवाज़ सुनाई देती और फिर धड़क-सी कट जाती। गाँव पर बीते हुए उपद्रव की गूँज अब हर दीवार से लौटी जा रही थी।

गाँव अब नवगढ़ राज्य की सेना की बूटों के नीचे था।
गली के किनारे कई लाशें बिखरी थीं—
कोई किसान अपनी हँसिया पकड़े पड़ा था, बच्चे डरे-सहमे अपनी माँओं से चिपके थे कई माँ अपने बच्चे को सीने से चिपटाए निर्जीव हो चुकी थी।
कुछ बुज़ुर्ग, जिन्होंने विरोध किया; कुछ नौजवान, जो हाथ में लाठी लिए खड़े हुए थे, वे चौपाल के पास गिरे पड़े थे।
औरतें चिल्ला-चिल्लाकर रो रही थीं,उनकी चीख़ें हवा में थीं, लेकिन सैनिकों ने उन्हें भी पकड़ लिया। औरतों पर सैनिकों की तलवारों की खनक उन चीख़ों को चीरती चली जा रही थी।


सिपाही और उसके साथ आए सैनिक अब गांव में घूम रहे थे—चेहरे पर कठोरता, हाथों में जिन चीज़ों की तलाश थी वे चुनकर उठाते जा रहे थे। एक ने बर्तन हटाए, दूसरा जिप्सी-थैले की जाँच कर रहा था—कुछ सिक्के निकले, कुछ कड़े सोने की पगडंडियाँ, और एक ठेठ माँ के बैग में छुपा हुआ एक छोटा सा सूती कपड़ा जिस पर बच्चे का नाम लिखा हुआ था—उस पर सैनिकों ने संदेह की एक कमल-सी मुस्कान लगाई और कपड़े को अपनी जेब में ठूँस दिया।

किसी ने दो घरों के बीच में पड़ी लकड़ी को भी उठा लिया—“चलो, ईंधन हो जाएगा।” किसी ने बुवाई के दाने से भरे बोर को भी झट से बाहर निकाला—“यह अनाज हमारी कमी दूर कर देगा।” वहाँ कोई पूछने वाला नहीं था—जो कुछ बचा था, वह अब आवाज़ खो चुका था।

लाशों के पास खड़े कुछ जवानों ने बेढंगे शब्द निकाले—किसी ने कहा, “देर तक रोते रहे तो रास्ता पकड़ कर दिखा दूँ,” जैसे वे किसी खेल की बात कर रहे हों। औरतें, जो बार-बार मुट्ठियाँ कस रही थीं, कभी-कभी उठकर जमीन में गिड़गिड़ाकर किसी के अनुरोध का बहाना बनती थीं—उनकी आँखें खाली, गला दब कर कहीं भीतर ही रो रही थीं।

एक जवान ने एक बूढ़े से पूछा—“यहाँ और कोई छुपा तो नहीं?” बूढ़े ने सिर्फ़ सिर हिलाया—उसकी आँखें कुछ बोलना चाहती थीं पर जब शब्द निकलते, तो वे सैनिकों की तलवारें झलक आएँगी। सैनिकों ने घर-दर-घर खँगाला; लड़कियों के कोमल हाथ पकड़े गए, और किसी ने कहा—“इन्हें भी साथ ले चलो, भीतर काम आ जाएँगी।” वहाँ की हवा घुटती लग रही थी—न सिर्फ़ धूल से, बल्कि उन शब्दों की तीखी बदबू से जो मानवता के ठँठरे से निकले थे।

बच्चे—जो इतनी रात में आँख खोले थे—आँखों में नींद के बाद का अटपटा सन्नाटा लिए हुए—उनमें से कुछ को सैनिकों ने पकड़ लिया। उनकी छोटी-छोटी हथेलियाँ सैनिकों के बड़े हाथों में फिसल रही थीं; कोई गली में चीख़ उठा, कोई माँ अपनी गोद में समेटकर भागना चाही, पर हाथों की ताक़त ने उसे रोक दिया। सैनिकों के लिए ये बच्चे अब केवल भार या उपयोगितावाद थे—कुछ को नौकर के रूप में, कुछ को रसोई में काम देने के लिए, और कुछ को बार-बार आश्चर्यजनक रूप से अलग-अलग घरों में बाँटने के लिए।

एक छोटे से बच्चे, शायद सात-आठ साल का, सैनिकों के पास खड़ा था, आँखों में आँसू, हाथ में एक छोटी मट्की जिसे उसने अपने पिता की याद में छिपा रखा था। एक सैनिक ने हँसते हुए उस मटकी को झपट लिया और उसे भूमि पर पटक दिया — मटकी टूटी; उसका मुँह खुला रहा। बच्चा गर्दन झुकाकर रो पड़ा—पर सैनिक के हँसी अभी भी गाँव की जड़ों पर टैप कर रही थी।

एक दृश्य ऐसा था जो गाँव के लोगों की रीढ़ को मोड़कर रख देता —
एक लड़की को सैनिकों ने पकड़ कर खींचा—उसने अपनी आँखें घुटों में दबा लीं और जोर से चिल्लाई—“माँ!” पर माँ अब मुँह से नहीं, आँखों से ही बोल रही थी; उसकी आवाज़ उलट गई थी। सैनिकों ने बिना ध्यान दिए अपना काम जारी रखा—किसी ने उसकी चोटी खींची, किसी ने उसके गहने झपटे तो किसी ने कपड़े...


 अनाज की बोरियाँ बैलगाड़ियों पर लादी जा रही थीं।
बच्चे, जो दरवाज़ों के पीछे छिपे थे, अब बाहर खींचे जा रहे थे। किसी के हाथ में टूटा हुआ खिलौना था, किसी की हथेली में मिट्टी की मटकी।
सैनिकों के लिए वे सब माल थे, इंसान नहीं।

गली के मोड़ पर एक सूबेदार ने बाँस की छड़ी से ज़मीन पर निशान खींचा और ऊँची आवाज़ में चिल्लाया—
“माल गिन लो! चार सौ बोरे अनाज, सत्तर लड़किया,… बाक़ी ढूँढ़ो!”
उसकी गिनती में आँकड़े थे, आँसू नहीं।


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कुछ देर बाद, जब आग की लपटें मंद पड़ गईं और गाँव राख की गंध में बदल गया, सेनापति राजसभा के एक मध्यस्थ अधिकारी — मुखबिर-रिपोर्टर जैसा चतुर, मगर थका हुआ — अब मैदान के किनारे से उठकर राजसभा के महामंत्री वर्धन त्रिवेदी के तंबू की तरफ़ बढ़ा।

 तंबू सामने एक हल्की-सी मेज़ पर रखा नक़्शा और मोमबत्ती की ठंडी रोशनी से अँधेरा-सा दिख रहा था। वर्धन त्रिवेदी अपने महंगे परिधान के बावजूद थके हुए थे; वो कभी-कभार कपड़े की सिलवटों को समेटते, तो कभी-कभी कागज़ों पर गौर से कुछ नोट करते। पास में कुछ अधिकारियों के सिर झुके हुए थे — उनमें से एक ने अभी-अभी कड़ी-सी खबर दी थी कि राजसभा को दूसरी दिशा में भी काम है — महाराज सोमित रघुवंशी से जुड़ा कोई अर्जन या आदेश।

सेनापति उसकी देह पर अभी भी धूल-रंग और राख के छर्रे चिपके हुए थे, सलामी दी और सलवट खींच कर बोला — आवाज़ घुमड़-सी, पर स्पष्ट:

“महामंत्री जी। वर्धन बोलकर ,सेना अब आगे बढ़ने को तैयार है। लूट सफल रही— अन्न-भण्डार, बैल-गाड़ियाँ, और जो समानों की कीमत थी… सब् साफ़।  हमने जो पकड़ा, वही उचित नज़ीर के लिए छोड़ा गया। अब यही संदेश है — आगे बढ़ने का समय है राज्य की ओर, ताकि खजाना भरा जाए और सेना आराम पाए।”।”

“लूट का सत्य यह है — साम्राज्य बढ़ता है और छोटे लोगों के घरों में खालीपन आता है। पर यह भी गणित है: हम कहां से धन जुटाएँगे? किसके कर से हम इन किले का निर्माण करेंगे? समृद्धि का अर्थ ही प्रतियोगिता है। जो आगे नहीं बढ़ेगा, उसे पीछे रखा जाएगा।”


वर्धन ने लम्बा साँस लिया, उसके चेहरे पर गणित की पोटली-सी झलक थी — लाभ, ख़र्च, फायदा, और राज्य का विस्तार। उसकी आवाज़ में ठंडा परिकलन, धीरे-धीरे उत्तर दिया:
“नहीं सेनापति… अभी लौटने का समय नहीं।
हमें ध्रुवखंड के चंद्रवा गाँव जाना है।
महाराज सोमित रघुवंशी का आदेश है — वहाँ अभी उनका एक कार्य अधूरा है।”

वर्धन ने नक़्शे पर उँगली फेरते हुए कहा — “ध्रुवखंड का वह गांव… अब काफी समृद्ध है, पर मजबूत भी। राजा सोमित रघुवंशी का कार्य—उसका कल का आदेश—हमें रोक रहा है। राजसभा के संदेशों में स्पष्ट कहा गया है कि महाराज के काम में देरी नहीं हो सकती।”


सेनापति ने एक पल भर सोचा, फिर बड़े ही तर्कपूर्ण स्वर में कहा–
“महामंत्री जी, पूरी सेना को ले जाना उचित नहीं,हर तरफ़ अनावश्यक खर्चा होगा।
सैनिक थक चुके हैं, और खर्च बढ़ेगा।
मेरी राय है — आधी संख्या चुनो, तेज़ और चुस्त जवान भेजो, घोड़ों पर तेज़, साथ में कुछ युवा परिचालक और भंडार के हिसाब से लोग। बाकी यहाँ छूट सकते हैं ताकि शेष प्रदेश सुरक्षित रहे , विश्राम करें।”

वर्धन के होंठों पर एक अजीब-सी मुस्कान उभरी — राज्यकर्त्ताओं की वही गणना; और उसने व्यवहारिकता के साथ कहा — “ठीक है। पूरी सेना नहीं, आधी भेज दो। और… जवानों के साथ कुछ गांव के युवा भी ले चलो।”

सेनापति चौंका — शब्द का अर्थ वैसे ही कसकर हवा में ठहर गया जैसे कोई पत्थर तालाब में फेंका हो। उसने इंतज़ार भरी आँखों से पूछा—“युवा, महामंत्री जी?”

वर्धन ने झट से उत्तर दिया, उसकी आवाज़ अब कठोर और ठंडी थी — “युवा, जवान — जिनकी हिम्मत पहले से परखी जा चुकी है। नहीं तो ये शब्द ही तो कभी भाषणों में इस्तेमाल होते हैं — ‘युवा सेना’। बक़ायदा भर्ती करवा देना; गाँवों में से जो हाथ मजबूत हैं, उन्हें चुनवा कर भेजो। और इस बार कोई अनावश्यक दया नहीं — आदेश जैसा हुआ वैसा होगा।”

सेनापति ने अपने दायित्व की परछाई में सिर हिलाया —
“ठीक है, महामंत्री। आधी सेना और युवा जवानों को तैयार कर दिया जाएगा।
राजा की इच्छा से बड़ा कोई आदेश नहीं।”

वर्धन उठकर तंबू के किनारे जाकर खड़ा हो गया। वह पल में उस गाँव की तस्वीर अपने मन में गढ़ने लगा — धूल, राख, टूटे बर्तन, और बिखरे हुए कपड़े। उसने कहा, उसकी आवाज़ पर अब कूटनीतिक परदा टूट चुका था:

वर्धन ने नक़्शे की ओर देखा—ध्रुवखंड की सीमाएँ, रास्तों की झुर्रियाँ, और उन्हीं पन्नों पर राजा सोमित रघुवंशी का नाम, जैसे भविष्य का अनमोल निशान। उसने संवाद ख़त्म करते हुए कहा—“इस बार नज़ाकत मत दिखाना। पर याद रखना — प्रत्येक विजय की कीमत होती है। जिसे हम ‘रणनीति’ कहते हैं, वह अक्सर किसी के जीवन का ख़र्च भी होता है। अब जाओ, और व्यवस्था करो। आधी सेना, युवा जवान, और तेज़ मोल-तोल के साथ। 

तंबू के भीतर वर्धन धीरे-धीरे बैठ गया, बाहर की रोशनी अब बरसती चकमक थी। उसने एक पुराना मोती-सा कागज़ निकाला, जिस पर कुछ नाम और रकमें लिखी हुई थीं। उसके पैरों के निचले हिस्से पर अभी भी धूल की परत थी — अफ़सोस इसका था कि वह भी उस धूल के बनाये हुए नक़्शे का हिस्सा था। उसने आँखें बंद कर लीं — कर्तव्य और गणना के बीच, उसकी नींद भी अब व्यापार-उत्पन्न थी।

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उस क्षण आकाश में एक काला बादल छा गया।
जली हुई छतों से उठती राख हवा में मिलकर, जैसे भविष्य का संकेत दे रही थी।
लूटे गए गाँव की चीख़ें अभी थमी भी नहीं थीं, और एक नई यात्रा, एक नई तबाही की तैयारी हो रही थी।

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