भाग:14
           रचना: बाबुल हक़ अंसारी
          "आग, साज़िश और आर्या का फ़ैसला".                    
पिछले खंड से…
  "मेरे पापा की कलम को आग में नहीं, लोगों के हाथों में जलना है।"
नकाबपोश गुंडों का वार
सुबह का सूरज अभी ठीक से उगा भी नहीं था कि अनया के घर के बाहर धमाके की आवाज़ गूँजी।
नकाबपोश गुंडों ने घर की दीवार पर पेट्रोल छिड़ककर आग लगाने की कोशिश की।
पड़ोसी चीख उठे —
"आग… आग!"
अनया दरवाज़े पर भागी।
पांडुलिपि उसके हाथ में थी।
गुंडे गरजकर बोले —
"किताब हमें दे दो… वरना ये घर राख हो जाएगा।"
अनया काँप उठी, लेकिन उनकी ओर देख कर बोली —
"ये पन्ने मेरे पापा की साँसें हैं। इन्हें तुम आग में नहीं झोंक सकते।"
उसी वक्त नीरव और आर्या वहाँ पहुँचे।
नीरव ने एक लकड़ी का डंडा उठाया और गुंडों की तरफ़ बढ़ा।
"कदम पीछे हटाओ… वरना नतीजा बुरा होगा।"
गुंडे एक-दूसरे को देखकर पीछे हटे, लेकिन जाते-जाते धमकी देकर बोले —
"ये तो बस शुरुआत थी… अगली बार सीधे जान लेंगे।"
   गुरु शंकरनंद की बेचैनी
  दोपहर को गुरुजी अनया से मिलने आए।
  उनका चेहरा पीला था।
  "बेटी, ये लोग बहुत ताक़तवर हैं।
  तुम्हें अंदाज़ा भी नहीं कि ये कहाँ तक जा सकते हैं।
  अगर तुम चाहो तो ये पांडुलिपि मुझे दे दो… मैं इसे     अपने नाम से छपवाऊँगा।
कम से कम तुम तो सुरक्षित रहोगी।"
  अनया ने गुस्से से कहा —
"नहीं गुरुजी! ये किताब मेरे पापा की है और इसे उनके   नाम से ही छपा कर रहूँगी।
  अगर डर ही जाना है, तो फिर लड़ाई शुरू ही क्यों की?"
  गुरुजी चुप हो गए।
  उनकी आँखों में पछतावा और डर दोनों तैर रहे थे।
  आर्या का फ़ैसला
रात को, जब सब सो चुके थे, आर्या छत पर खड़ी आसमान देख रही थी।
  नीरव उसके पास आया।
   "क्या सोच रही हो?"
आर्या की आवाज़ धीमी थी, पर भीतर तूफ़ान छिपा था।
  "नीरव, मैं थक गई हूँ।
   ना अपने रिश्ते की कशमकश खत्म होती है, ना इस   जंग का डर।
   मुझे लगता है… अगर मैं अनया के साथ खड़ी हुई तो    सब बर्बाद हो जाएगा।
   लेकिन अगर मैं पीछे हटी, तो मैं खुद बर्बाद हो       जाऊँगी।"
   नीरव उसकी ओर मुड़ा, "तो रास्ता क्या है?"
   आर्या ने गहरी साँस लेकर कहा —
  "मैंने फ़ैसला कर लिया है… मैं अनया के साथ खड़ी रहूँगी।
   चाहे इसके लिए मुझे अपनी पहचान, अपना                करियर… यहाँ तक कि अपनी मोहब्बत भी क्यों न खोनी पड़े।"
   नीरव हक्का-बक्का रह गया।
  उसके पास शब्द नहीं थे।
  उसकी आँखें कह रही थीं —
   "क्या सच में मोहब्बत भी इस जंग में कुर्बान हो जाएगी?"
   अनया का नया कदम
अगली सुबह अनया कॉलेज के मंच पर पहुँची।
उसने सबके सामने पांडुलिपि उठाकर कहा —
"अगर कोई प्रकाशक इसे छापने को तैयार नहीं, तो हम सब मिलकर इसे हाथों से लिखेंगे, कॉपी करेंगे और बाँटेंगे।
   ये किताब अब हमारी आवाज़ बनेगी।"
   भीड़ में से कई छात्र-छात्राएँ आगे आए।
"हम तुम्हारे साथ हैं!"
   अनया मुस्कुराई।
लेकिन दूर खड़ा एक नकाबपोश उन्हें घूर रहा था।
उसकी आँखें साफ़ कह रही थीं —
“अब खेल और ख़तरनाक होगा…”
    (जारी रहेगा… भाग 15 में)
    अगले खंड में आएगा:
   नकाबपोशों की घातक चाल और 
   एक बड़ा हादसा।
   गुरु शंकरनंद की दुविधा—कायरता या बलिदान?
   और नीरव का टूटता सब्र, जो कहानी को नए मोड़      पर ले जाएगा।