रचना: बाबुल हक़ अंसारी
अध्याय 3: “सफ़र का पहला इम्तिहान”
पिछले अध्याय से…
“लखनऊ… वही शहर जहाँ से उसकी मोहब्बत की शुरुआत हुई थी… और शायद वहीँ उसका अंत भी लिखा गया।”
सुबह की हल्की रोशनी खिड़की से छनकर कमरे में आ रही थी।
लेकिन नायरा की आँखों में नींद नहीं थी।
वो पूरी रात उस पुराने टिकट को देखती रही, जैसे उसमें ही उसके सवालों के जवाब छिपे हों।
तीसरे दिन, जब ट्रेन लखनऊ जाने के लिए प्लेटफ़ॉर्म पर खड़ी थी, नायरा ने भारी कदमों से उसमें प्रवेश किया।
बैठते ही उसे महसूस हुआ जैसे हवा में कोई अजीब सी बेचैनी तैर रही हो।
उसकी नज़र बार-बार उस लिफ़ाफ़े पर जा रही थी, जिसमें टिकट रखा था।
लिफ़ाफ़े के पीछे एक हल्की सी लिखावट उभर आई थी, जो पहले नज़र नहीं आई थी।
उस पर लिखा था:
“सफ़र आसान नहीं होगा… जो ढूँढ रही हो, वो तुम्हें ढूँढ रहा है।”
नायरा का दिल तेज़ धड़कने लगा।
मतलब… कोई और भी उसके पीछे है?
इसी बीच ट्रेन का दरवाज़ा बंद हुआ और सीटी बजी।
ट्रेन धीरे-धीरे चल पड़ी।
उसकी नज़र सामने बैठी एक अजनबी पर पड़ी।
काले कपड़ों में लिपटा हुआ वो शख़्स लगातार नायरा की ओर देखे जा रहा था।
उसकी आँखों में अजीब सी ठंडक थी, जैसे वो पहले से ही नायरा के बारे में सब जानता हो।
नायरा ने नज़रें फेर लीं, लेकिन उसके भीतर डर गहराने लगा।
वो सोच रही थी—
“क्या ये वही है, जिसने वो लिफ़ाफ़ा मेरे दरवाज़े पर छोड़ा था?”
अचानक, जब ट्रेन सुरंग में दाख़िल हुई, तो पूरा डिब्बा अंधेरे में डूब गया।
अंधेरे में नायरा ने महसूस किया कि कोई उसके पास झुककर धीमी आवाज़ में कह रहा है—
“लखनऊ पहुँचने से पहले, सच से पहली मुलाक़ात होगी… और उसके बाद तुम्हारी ज़िंदगी वैसी नहीं रहेगी।”
ट्रेन जैसे ही सुरंग से बाहर निकली, रोशनी फैल गई।
लेकिन सामने की सीट खाली थी।
वो अजनबी… ग़ायब हो चुका था।
नायरा की साँसें थम गईं।
उसने खिड़की से बाहर देखा—
ट्रेन अब तेज़ी से अपने मंज़िल की ओर बढ़ रही थी…
और उसके दिल में सवालों का तूफ़ान और गहरा हो गया था।
ट्रेन की आख़िरी सीटी बजी और नायरा लखनऊ स्टेशन पर उतरी।
चारों ओर भीड़ थी, आवाज़ें थीं, लेकिन नायरा को सब कुछ धुंधला लग रहा था।
उसका ध्यान बार-बार उसी रहस्यमयी फुसफुसाहट पर जा रहा था, जो ट्रेन की सुरंग में सुनी थी।
स्टेशन के बाहर आते ही, उसने उस पुराने लिफ़ाफ़े को फिर से निकाला।
टिकट के पीछे हल्के अक्षरों में एक और सुराग छिपा था:
“चौक की गलियों में, ‘बेगम हवेली’ तलाश करना।”
नायरा ने ऑटो लिया और पुरानी लखनऊ की तंग गलियों में पहुँच गई।
वो गली बिल्कुल वैसी थी जैसी पुरानी कहानियों में सुना करती थी—
मटमैली दीवारें, टूटे झरोखे, दरवाज़ों पर जंग लगे ताले, और हवा में एक अजीब सी नमी।
अख़िरकार, गली के आख़िर में उसे एक जर्जर इमारत नज़र आई—
‘बेगम हवेली’।
उसकी खिड़कियों पर जाले लटके थे, और दरवाज़ा आधा टूटा हुआ था।
नायरा का दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा।
वो सोच रही थी—
“आख़िर मुझे यहाँ क्यों बुलाया गया है…? क्या इस हवेली का रिश्ता श्रेया से है?”
धीरे-धीरे उसने दरवाज़ा धक्का देकर खोला।
अंदर अंधेरा था, लेकिन धूल भरे कमरे से पुरानी खुशबू आ रही थी।
सामने की दीवार पर धुंधली तस्वीर टंगी थी—
उसमें एक लड़की हारमोनियम बजा रही थी।
नायरा का दिल काँप उठा।
तस्वीर के नीचे नाम लिखा था—
“श्रेया।”
अचानक, हवेली के भीतर से पायल की हल्की सी आवाज़ गूँजी।
कोई था… कोई ज़िंदा… जो इस हवेली में चल रहा था।
नायरा ने पलकें झपकाईं और आवाज़ की दिशा में बढ़ी।
जैसे ही वो अगले कमरे में पहुँची, हवा का तेज़ झोंका आया और दरवाज़ा अपने आप बंद हो गया।
कमरे में धुंधलके के बीच, एक परछाईं खड़ी थी—
धीरे-धीरे उसकी तरफ़ बढ़ते हुए।
उस परछाईं की आवाज़ आई—
“तुम्हें यहाँ आना ही था… क्योंकि ये अधूरी दास्तान अब तुम्हारे बिना मुकम्मल नहीं होगी।”
अगला अध्याय यहीं से शुरू होगा, जहाँ नायरा का सामना उस रहस्यमयी किरदार से होगा, जो श्रेया और अधूरी मोहब्बत का पहला असली राज़ खोलेगा।