अध्याय 1: शहर में बंदी
शाम ढल चुकी थी।
शहर की वो फैक्ट्री, जहाँ से रामू रोज़ की रोटी-कपड़ा कमा रहा था, अब ताले में जकड़ी खड़ी थी।
धूल से ढकी मशीनें, जैसे किसी ने अचानक उनकी सांसें खींच ली हों।
रामू ने अपने झोले को कंधे पर डाला और धीरे-धीरे अपने कमरे की तरफ बढ़ा।
उसके पैर भारी थे, लेकिन दिल उससे भी ज्यादा।
मन ही मन सोचता रहा—“अगर फैक्ट्री ही बंद हो गई, तो हम जिएँगे कैसे? किराया कैसे देंगे? बच्चे को खिलाएँगे क्या?”
गली में दाख़िल होते ही उसने देखा—हर घर से चिंता की वही गंध निकल रही थी।
लोग दरवाज़े पर बैठकर एक-दूसरे से पूछ रहे थे:
“कितने दिन का राशन बचा है?”
“मालिक ने पगार दी या टाल दी?”
“कहीं कोई गाड़ी मिल रही है गाँव जाने की?”
रामू के घर का दरवाज़ा खुला। गीता ने झांक कर देखा और पूछा:
“क्या बोला मालिक?”
रामू ने चुप्पी साध ली।
उसकी चुप्पी ही गीता के सवाल का जवाब थी।
गीता की आँखें नम हो गईं।
“तो अब? खाने को जो रखा है, वो भी दो दिन में खत्म हो जाएगा।”
सोनू, जो दरवाज़े के पास खड़ा था, मासूमियत से बोला:
“माँ, आज दाल क्यों नहीं बनी?”
गीता ने बेटे को सीने से लगा लिया और बोली:
“बनी है बेटा, बस तुम्हारे लिए। हम बाद में खा लेंगे।”
रामू यह सुनकर और भी टूट गया।
वो अच्छी तरह जानता था कि गीता झूठ बोल रही है। खाने को अब बस थोड़ा सा आटा और आधा किलो चावल बचा था।
कमरे के कोने में रखी छोटी-सी थैली को गीता ने खोला। उसमें अनाज ऐसे लग रहा था जैसे गिनती की साँसें बची हों।
रामू ने दीवार पर टंगी पुरानी घड़ी की तरफ देखा। समय धीरे-धीरे बीत रहा था, लेकिन हर सेकंड जैसे चाकू की धार पर कट रहा था।
बाहर से शोर आया। कुछ लोग मोहल्ले में इकट्ठे होकर चिल्ला रहे थे:
“कोई सुन रहा है? हमें खाने की ज़रूरत है! बच्चे भूखे हैं!”
रामू ने खिड़की से झांका।
पुलिस की गाड़ी दूर से गुज़री, लेकिन किसी ने उनकी तरफ देखा तक नहीं।
सिर्फ लाउडस्पीकर पर वही आवाज़ गूँज रही थी:
“सभी लोग अपने घरों में रहें। बाहर निकलने की सख़्त मनाही है।”
रामू ने गीता की तरफ देखा और धीरे से बोला:
“गीता, शहर अब हमारा नहीं रहा। यहाँ अगर रहे तो भूख से मर जाएँगे।”
गीता ने सिर हिलाते हुए कहा:
“सही कह रहे हो। गाँव चलते हैं। माँ-बाबूजी हैं वहाँ। कम से कम खेत है। पेट तो भरेगा।”
सोनू ने बीच में मासूम सवाल किया:
“बाबा, गाँव कितनी दूर है? वहाँ पहुँचते ही दादी मिलेंगी न?”
रामू के गले में जैसे शब्द अटक गए।
वो मुस्कुराने की कोशिश करता है और कहता है:
“हाँ बेटा, बहुत जल्दी पहुँचेंगे। दादी तुम्हारा इंतज़ार कर रही होंगी।”
लेकिन मन ही मन उसे पता था—
गाँव 500 किलोमीटर दूर है।
और ये सफ़र आसान नहीं होगा।
उस रात तीनों ने एक कोने में बैठकर चुपचाप रोटियों का आख़िरी टुकड़ा खाया।
गीता ने बची हुई रोटियों में से आधी सोनू को दी, आधी खुद अपने आँसुओं के साथ निगल गई।
रामू ने खाने का बहाना ही नहीं किया।
कमरा अंधेरे में डूबा था, लेकिन उस अंधेरे से भी गहरा सन्नाटा उनके दिलों में छा गया था।
सोनू माँ की गोद में सो गया।
गीता थककर दीवार से टिक गई।
रामू खुली आँखों से छत को देखता रहा।
उसके दिमाग में बस एक ही सवाल गूंजता रहा—
क्या सचमुच हम गाँव तक पहुँच पाएँगे?