dilemma in Hindi Short Stories by Nandini Sharma books and stories PDF | कश्मकश

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कश्मकश

रात का सन्नाटा पूरे शहर को ढक चुका था। घड़ी की सुइयाँ बारह बजा रही थीं, लेकिन अन्वी की आँखों में नींद का नामोनिशान नहीं था। कमरे की मेज़ पर मेडिकल की मोटी किताबें खुली पड़ी थीं—एनाटॉमी, फिज़ियोलॉजी, बायोकैमिस्ट्री। पन्नों पर लिखे शब्द धुंधले पड़ते जा रहे थे।

उसकी नज़रें बार-बार कमरे के कोने में रखे सफ़ेद कैनवास पर चली जातीं, जो कई हफ़्तों से अधूरा पड़ा था। ब्रश सूखा पड़ा था, रंगों की डिब्बियाँ धूल जमा चुकी थीं। दिल बार-बार कहता—"ब्रश उठाओ, अपनी आत्मा को उड़ान दो।" मगर दिमाग़ कहता—"नहीं! पापा का सपना टूट जाएगा।"

यही उसकी सबसे बड़ी कश्मकश थी—ज़िम्मेदारी या जुनून?

बचपन से ही अन्वी को रंगों से गहरा लगाव था। जब बाकी बच्चे गुड्डे-गुड़ियों में खोए रहते, वह दीवारों और कॉपियों पर चित्र बनाती। माँ हँसते हुए कहतीं—"ये हमारी छोटी पिकासो है।" लेकिन पिता का सपना अलग था। वे चाहते थे कि बेटी डॉक्टर बने, ताकि परिवार का नाम ऊँचा हो और उसका भविष्य सुरक्षित।

"डॉक्टर की पढ़ाई कठिन है, लेकिन इसमें इज़्ज़त और पैसा दोनों है," पिता अक्सर कहते। अन्वी उनकी आँखों की चमक देखकर चुप रह जाती।

कॉलेज में पढ़ाई का दबाव बढ़ता गया। लेकिन साथ ही अन्वी के भीतर रंगों की पुकार भी गहराती चली गई। मेडिकल की किताबें खोलने पर भी उसे लगता जैसे उसके हाथ कैनवास की ओर खिंच रहे हों।

हर बार वह खुद से पूछती—क्या मैं सचमुच डॉक्टर बनना चाहती हूँ?जवाब हमेशा आता—नहीं, मेरा सच तो इन रंगों में है।

लेकिन पिता का थका हुआ चेहरा सामने आते ही वह चुप हो जाती। उसे डर था—कहीं उनके सपनों को तोड़कर वह उन्हें दुखी न कर देl

रिश्तेदारों और पड़ोसियों की बातें उसे और परेशान कर देतीं।"इतनी पढ़ाई छोड़कर पेंटिंग करेगी?""लड़कियाँ ऐसे शौक़ पालें तो घर कैसे चलेगा?""बाप का नाम डुबो दिया!"

अन्वी भीतर-ही-भीतर टूटती जा रही थी। लेकिन उसके भीतर एक चिंगारी अब भी ज़िंदा थी, जो बुझने से इंकार कर रही थी।

उस रात उसकी कश्मकश चरम पर थी। किताबों पर सिर टिकाए आँसू उसकी कॉपी के पन्नों को भिगो रहे थे। उसने आईने में खुद को देखा—थका हुआ चेहरा, बुझी आँखें, होंठ सूखे हुए। यह चेहरा किसी डॉक्टर का नहीं, बल्कि एक टूटी हुई कलाकार का था।

उसने गहरी साँस ली और धीरे-धीरे ब्रश उठाया। हाथ काँप रहे थे, लेकिन दिल धड़क रहा था तेज़। उसने रंगों की डिब्बियाँ खोलीं और कैनवास पर पहला स्ट्रोक रखा।

पूरी रात वह पेंटिंग बनाती रही। हर रंग उसकी भावनाओं को बयान कर रहा था—लाल उसका गुस्सा, नीला उसकी उदासी, पीला उसकी उम्मीद। सुबह तक कैनवास पर एक तस्वीर बन चुकी थी—एक इंसान, जिसका आधा हिस्सा सफ़ेद कोट पहने डॉक्टर था और आधा हिस्सा रंगों से लथपथ कलाकार। बीच में गहरी दरार थी—उसकी कश्मकश का सच।

सुबह पिता कमरे में आए। किताबों के बजाय रंग बिखरे देख उनका चेहरा उतर गया। गुस्से से बोले—"अन्वी! ये क्या कर रही हो? परीक्षा सिर पर है और तुम ये सब बेकार में कर रही हो?"

अन्वी चुप रही। उसकी आँखों से आँसू गिरते रहे। पिता ने कैनवास देखा। पहले तो उनकी आँखें सिकुड़ीं, लेकिन जैसे-जैसे उन्होंने चित्र को गौर से देखा, उनका गुस्सा धीमा होने लगा।

वह पेंटिंग केवल रंगों का मेल नहीं थी, बल्कि अन्वी की आत्मा का आईना थी।

अन्वी ने काँपती आवाज़ में कहा—"पापा, मैं आपकी उम्मीदें तोड़ना नहीं चाहती थी। लेकिन अगर मैंने अपने दिल को मार दिया, तो जीते-जी मर जाऊँगी। मुझे डॉक्टर नहीं, कलाकार बनना है।"

पिता कुछ पल चुप रहे। फिर उनकी आँखें भर आईं। उन्होंने गहरी साँस ली और बेटी के कंधे पर हाथ रख दिया।"अगर यही तुम्हारा रास्ता है, तो मैं तुम्हारे साथ हूँ।"

अन्वी की आँखों से राहत के आँसू छलक पड़े। उसने पिता को गले लगा लिया।

उस दिन के बाद अन्वी ने किताबें बंद कर दीं और रंगों को अपना जीवन बना लिया। संघर्ष आसान नहीं था। पैसों की तंगी, प्रतियोगिताओं में हार, समाज के ताने—सबकुछ झेलना पड़ा। कई बार उसने भूखे पेट दिन गुज़ारे, लेकिन उसने कभी पेंटिंग करना नहीं छोड़ा।

शहर में एक बड़ी प्रदर्शनी हुई। अन्वी ने हिम्मत करके अपनी वही पेंटिंग भेजी। प्रदर्शनी के दिन जब उसकी पेंटिंग सामने आई, तो लोग देर तक उसके सामने ठहर गए। कुछ की आँखें भर आईं, कुछ ने सिर हिलाकर कहा—"ये तो हमारी अपनी ज़िंदगी है। हम सब इसी कश्मकश में जीते हैं।"

उस पेंटिंग ने दिल छू लिया। और उसी शाम, जूरी ने उसे सर्वश्रेष्ठ पेंटिंग का पुरस्कार दिया।

मंच पर पुरस्कार लेते हुए अन्वी ने कहा—"ये पेंटिंग सिर्फ मेरी नहीं, हर उस इंसान की कहानी है, जो सपनों और जिम्मेदारियों की खींचतान में बँटा हुआ है। मैं बस यही कहना चाहती हूँ—अपने दिल की आवाज़ को कभी मत दबाइए। क्योंकि वही आवाज़ असली ज़िंदगी है।"

तालियों की गड़गड़ाहट में उसकी आँखें भीग गईं। पिता दर्शकों में खड़े होकर ताली बजा रहे थे। उनकी आँखों में वही गर्व था, जो उन्होंने कभी डॉक्टर बनने के सपने से जोड़ा था, आज बेटी की सच्चाई से जुड़ चुका था।अंतिम संदेश

ज़िंदगी की सबसे बड़ी जंग वही है, जो इंसान अपने भीतर लड़ता है। और जीत उसी की होती है, जो अपने दिल की आवाज़ सुन ले।