व्यंग्य -
* बडबोलापन *
बडबोलापन
!यह वस्तुत: बढ़ा-चढ़ाकर बातें करने की क्रिया है।इसे शेखी बघारना; डींग हांकना,अपने बारे में बढ़ा चढ़ा कर बोलना भी कहा जाता है।
बडबोलापन यानी अपनी तारीफों के पुल बांधना तो है ही;इसमें निहित अर्थ है अपनी झूठी तारीफ करने की क्रिया।इसका बड़प्पन से कुछ भी लेना,देना नहीं क्योंकि इसमें बड़प्पन होता ही नहीं ; इसमें तो दंभ होता है,अहंकार होता है।
बड़बोला का आशय आत्म-प्रशंसक, डींग हांकने वाला, शेख़ी बघारने वाला या बातें बनाकर अपने को दूसरे से बड़ा सिद्ध करने वाले से होता है।यह कोई व्यक्ति होता है।यह अनावश्यक या आदतन अपने बारे में बढ़ा-चढ़ा कर बोलता , डींग मारता है, या फिर किसी भी बात को,घटना को तथ्य को अनावश्यक रूप से बढ़ा चढ़ा कर ही प्रस्तुत करता है; अतःऐसे व्यक्ति को लोग "फेंकू" संज्ञा से विभूषित कर देते है।
बड़बोला और बडबोलापन दोनों अलग अलग शब्द हैं। 'बड़बोला' किसी व्यक्ति को कहा जाता है जबकि बडबोलापन एक भाव है।जब कोई आदतन बड़बोला होता है तो उसके इस कृत्य को बडबोलापन कहा जाता है।बडबोलापन का जितना संबंध अहंकार से होता है उतना ही झूठ से भी होता है।दोनों अन्योन्याश्रित होते हैं।
बड़बोले बड़े बेचारे होते हैं।अगर यह अपने बारे में,अपनों के बारे में,अपने और अपनों के किसी कृत्य के बारे में सामान्य या सच बोलने की कोशिश भी करें तो भी सफल नहीं हो पाते हैं क्योंकि यह बड़बोलेपन के भाव से इतने अधिक ग्रसित होते हैं कि इनके अंदर से निकला सामान्य/सच इनके स्वर यंत्र से गुजरते ही "बड़बोल" में स्वयंमेव बदल जाता है।
कहा जाता है कि बड़बोलापन का पाचन क्रिया से बड़ा घनिष्ठ संबंध है।अस्तु इनके बारे में यह कहा जाता है कि जब तक ये अपनी या अपनों की शेखी नहीं बघार लेंगे तब तक इनका खाना नहीं पचता है।
हमारे यहां एक किस्सा बड़े चाव से कहा सुना जाता है।एक व्यक्ति को बडबोलापन की आदत थी,इससे उसका अज़ीज़ मित्र बड़ा दुखी रहता था।एक बार बहुत कुरेदने पर अपनी यह व्यथा उसने अपने बड़बोले मित्र को बताई।तब बेचारे बड़बोले मित्र ने उससे कहा कि मित्र जब मैं अधिक "डींग हांकने" लगूं तो आप बीच में थोड़ा खांस दिया करो जिससे मैं सावधान हो जाया करूंगा।दोनों में सहमति हो गई।
एक दिन वह फेंकू मित्र उसकी उपस्थिति में ही एक मंडली में फेंक रहा था - मैं एक रोज सवेरे यूं ही खेतों की तरफ गया था।एक समतल खेत जुता - बखरा पड़ा था।मैने उसमें लंबी छलांग लगा दी।खेत के उस पार निकल गया।भैया !मेरी वह लंबी छलांग 10 मीटर की तो रही ही होगी।उसके मित्र ने खांसा।तो वह फेंकू बोला - फिर भैया मैने सोचा पीछे की ओर चल कर देख ही लिया जाए कि मेरी छलांग वास्तव में कितनी लंबी थी।मैं उस खेत में पहुंचा तब समझ में आया कि छलांग 10 मीटर नहीं लगभग 8 मीटर लंबी रही होगी।मित्र ने फिर खांसा।तब फिर फेंकू बोला तो भइयो मैने सोचा कि अंदाज क्यों लगाया जाए, छलांग को नाप ही लिया जाए।मैं दौड़ कर घर गया।नापने वाला फीता लाया।नाप की तो छलांग 7 मीटर लंबी निकली।अब मित्र फिर खांसा।इस पर फेंकू हँसते हुए बोला - मित्र अब कुछ नहीं हो सकता,अब तो फीते से नाप हो गई।
(यह कथा थोड़ा परिवर्तन कर लिखी गई है - क्षमा प्रार्थना है।)
बड़बोलापन का अतिशयोक्ति से नजदीकी रिश्ता है। अतिश्योक्ति कारक अपने कथन में रस लाने के लिए अलंकार विधान करता है तो बड़बोला अपने बड़बोलेपन के वशीभूत होकर फेंकता है।
तो क्या बड़बोलापन भी चिंता,क्रोध,ईर्ष्या ,लोभ,प्रीति,श्रद्धा,भक्ति की ही तरह कोई मनोभाव है।
नहीं।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार - "नाना विषयों के बोध का विधान होने पर ही उनमें संबंध रखने वाली इच्छा की अनेकरूपता के अनुसार अनुभूति के भिन्न-भिन्न योग संघटित होते हैं जो भाव या मनोविकार कहलाते हैं। अत: हम कह सकते हैं कि सुख और दु:ख की मूल अनुभूति ही विषय भेद के अनुसार प्रेम, हास, उत्साह, आश्चर्य, क्रोध, भय, करुणा, घृणा इत्यादि मनोविकारों का जटिल रूप धारण करती है।"
अर्थात मनोभाव व्यक्ति की आंतरिक अनुभूति है। बडबोलापन आंतरिक अनुभूति नहीं ऊपर से ओढ़ी गई आदत है।
इति,जय हो बड़बोलापन की।
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Dr. R. B. Bhandarkar, D. Litt.