डायरी -
07 अगस्त 2025 ई.
* ॐ नमो सिद्धम *
यह सर्वमान्य सत्य है कि ढलती अवस्था में स्मृतियां अपेक्षाकृत काफी धुंधली होने लगती हैं पर यह भी सत्य है कि इस अवस्था में स्मृतियां मानस पटल पर उभरती,डूबती तो अवश्य ही रहती हैं।कड़वी यादें दुख देती हैं तो सुखद यादें गुदगुदाती हैं।
मैं ग्रामीण परिवेश में जन्मा, पला,बढ़ा ;सो जीवन भर उससे बड़ी आत्मीयता रही है,आज भी है।भले ही शहर में रहने लगा हूँ पर मूल परिवेश से आज भी जुड़ाव है,जीवंत संपर्क भी।
बहुत पहले,संभवतः जब मैं माध्यमिक कक्षाओं का विद्यार्थी रहा होऊंगा तब वहां पढ़ाई,लिखाई की चर्चा चलने पर कतिपय प्रौढ़ कुछ हास्य भाव में,कुछ अफसोस भाव में जबकि कुछ मस्तमौला भाव में अपनी अशिक्षा के बारे में यों कहा करते थे - "ओना मासी धम्म।बाप पढ़े न हम्म।"
हम सभी साथी यह सुन लेते थे, हँस देते थे लेकिन उस समय इस कथन के मर्म में छिपे साहित्यिक,सामाजिक,धार्मिक महत्त्व और इनकी गंभीरता पर ध्यान नहीं दिया।अब सोचता हूँ यह जो 'बाप पढ़े न हम' पंक्ति है न ,कितना दर्द समेटे है अपने में।उस समय की सामाजिक स्थिति की कितनी दयनीयता प्रकट करती है,यह पंक्ति। शिक्षा का घोर अभाव था;यह अभाव केवल तात्कालिक नहीं पुरातन से चला आ रहा था।लोग भले ही हास्य में कहते हों या लापरवाही में पर एक सत्य तो उजागर होता ही था कि ' न बाप पढ़े न हम।' खैर अशिक्षा की इस स्थिति को बाद में काफी गंभीरता से लिया गया और अब शिक्षा का व्यापक प्रसार हो चुका है।
मुझे ठीक से स्मरण नहीं है,पर इतना स्मरण आ रहा है कि नियमित शिक्षा ग्रहण करने के दौरान ही किन्हीं विद्वान शिक्षक जी ने किसी कक्षा में ही कहा था कि जानते हो "ओना मासी धम्म।" का सही रूप क्या है? किसी को सही पता न होने की स्थिति जानकर उन्होंने कहा था आप लोग इसे बार बार लिखो फिर जल्दी जल्दी बार बार पढ़ो।सबने ऐसा ही किया।.... ओह ! तो यह है वास्तविकता। "ओ नामा सीधम्म।" अर्थात "ओम नम: सिद्धम।
"सिद्ध ! यह सिद्ध क्या है,कौन हैं सिद्ध?डॉ नगेंद्र द्वारा संपादित ' हिन्दी साहित्य का इतिहास ' में उल्लेख है कि सिद्ध बौद्ध धर्म की वज्रयान शाखा से सम्बंधित हैं। सिद्धों ने बौद्ध-धर्म के वज्रयान तत्व का जनभाषा में प्रचार किया।
श्री अनिरुद्ध जोशी ' शतायु ' लिखते हैं - "राहुलजी सांस्कृतायन के अनुसार तिब्बत के 84 सिद्धों की परम्परा 'सरहपा' से आरंभ हुई और 'नरोपा' पर पूरी हुई। सरहपा चौरासी सिद्धों में सर्व प्रथम थे। इस प्रकार का प्रमाण अन्यत्र भी मिलता है लेकिन तिब्बती मान्यता के अनुसार सरहपा से पहले भी पांच सिद्ध हुए हैं।"
चौरासी सिद्धों के नाम इस प्रकार हैं - "1. लूहिपा, 2.लोल्लपा, 3.विरूपा, 4.डोम्भीपा, 5.शबरीपा, 6.सरहपा, 7.कंकालीपा, 8.मीनपा, 9.गोरक्षपा, 10.चोरंगीपा, 11.वीणापा, 12.शांतिपा, 13.तंतिपा, 14.चमरिपा, 15.खंड्पा, 16.नागार्जुन, 17.कराहपा, 18.कर्णरिया, 19.थगनपा, 20.नारोपा, 21.शलिपा, 22.तिलोपा, 23.छत्रपा, 24.भद्रपा, 25.दोखंधिपा, 26.अजोगिपा, 27.कालपा, 28.घोम्भिपा, 29.कंकणपा, 30.कमरिपा, 31.डेंगिपा, 32.भदेपा, 33.तंघेपा, 34.कुकरिपा, 35.कुसूलिपा, 36.धर्मपा, 37.महीपा, 38.अचिंतिपा, 39.भलहपा, 40.नलिनपा, 41.भुसुकपा, 42.इंद्रभूति, 43.मेकोपा, 44.कुड़ालिया, 45.कमरिपा, 46.जालंधरपा, 47.राहुलपा, 48.धर्मरिया, 49.धोकरिया, 50.मेदिनीपा, 51.पंकजपा, 52.घटापा, 53.जोगीपा, 54.चेलुकपा, 55.गुंडरिया, 56.लुचिकपा, 57.निर्गुणपा, 58.जयानंत, 59.चर्पटीपा, 60.चंपकपा, 61.भिखनपा, 62.भलिपा, 63.कुमरिया, 64.जबरिया, 65.मणिभद्रा, 66.मेखलापा, 67.कनखलपा, 68.कलकलपा, 69.कंतलिया, 70.धहुलिपा, 71.उधलिपा, 72.कपालपा, 73.किलपा, 74.सागरपा, 75.सर्वभक्षपा, 76.नागोबोधिपा, 77.दारिकपा, 78.पुतलिपा, 79.पनहपा, 80.कोकालिपा, 81.अनंगपा, 82.लक्ष्मीकरा, 83.समुदपा और 84.भलिपा।"
इन चौरासी सिद्धों में 80 पुरुष और 04 स्त्रियाँ (कनखलापा, लक्ष्मीकरा, मणिभद्रा, मेखलापा) थीं।
सिद्धों की भाषा अपभ्रंश एवं पुरानी हिंदी है।अपनी वाणी को गूढ़ रखने के लिए सिद्ध अपनी अनुभूतियों को संधा(संध्या) भाषा में अभिव्यक्त करते थे। संधा अंतस्साधनात्मक अनुभूतियों का संकेत करने वाली प्रतीक-भाषा है। इसलिए इसका तात्पर्य प्रतीकार्थ खुलने पर ही प्रकट होता है।सिद्ध दर्शन में धार्मिक कर्मकाण्ड, बाह्याचार, तीर्थाटन आदि का प्रबल विरोध है ।सिद्धों ने अपनी वाणी के माध्यम से नैरात्म्य भावना, काया योग, सहज योग, शून्य तथा समाधि की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं का प्रचार प्रसार किया है ।
माना जाता है कि पहले सिद्ध सरहपा ने सहजयान का प्रवर्तन किया था। सिद्धों का प्रभाव क्षेत्र पूर्वी भारत रहा है। बिहार, बंगाल,उड़ीसा, असम आदि क्षेत्र मुख्य रूप से सिद्ध साधकों के प्रभाव वाले माने जाते हैं। नालंदा और आसपास के क्षेत्र इनका गढ़ थे।
यहां बात बुंदेलखंड और समीपवर्ती आसपास के क्षेत्रों में "ओना मासी धम्म।बाप पढ़े न हम।" कहावत के बहुतायत में प्रचलन की हो रही है।तो क्या इन क्षेत्रों में सिद्धों का आना जाना था या इन क्षेत्रों के लोगों का सिद्धों से मिलना जुलना था या इन क्षेत्रों के लोगों के रीति रिवाजों,मान्यताओं,आस्थाओं,विश्वासों,
उपासनाओं पर सिद्धों का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रभाव था?
उल्लेखनीय है कि सिद्धों के बाद भारत में सिद्ध परंपरा और बौद्ध वज्रयान के साथ-साथ वैदिक एवं तांत्रिक परंपराओं के सम्मिश्रण से नाथ संप्रदाय का उद्भव हुआ ।यहां यह भी ध्यातव्य है कि मत्स्येंद्रनाथ (मच्छंदर नाथ), जालन्धर नाथ, नागार्जुन नाथ, चर्पटनाथ और गोरख नाथ सिद्धों में भी गिने जाते हैं और यह नाथों में भी प्रमुख रूप से गण्य हैं।सिद्ध गुरु मत्स्येंद्रनाथ को नाथ सम्प्रदाय का संस्थापक और गोरखनाथ को उनका शिष्य माना जाता है।इस प्रकार गोरखनाथ को सिद्ध और नाथ पंथ की कड़ी माना जाता है।
अनेक विद्वानों का मत है कि जब सिद्धों में कुछ वीभत्स और अश्लील परिपाटियां चल पड़ी तब नाथ पंथियों ने अपने को उनसे अलग कर हठयोग के माध्यम से ईश्वर प्राप्ति को अपना लक्ष्य बनाया।डॉ नगेंद्र का मत है कि सिद्धों की वाममार्गी,भोग प्रधान योग साधना की प्रतिक्रिया स्वरूप आदिकाल में नाथ पंथियों की हठयोग साधना प्रारंभ हुई।
महापंडित राहुल सांकृत्यायन का कथन है कि नाथ पंथ सिद्धों की परम्परा का ही विकसित रूप है।सिद्ध और नाथ की चर्चा के साथ ही अब यहां तांत्रिक समुदाय की चर्चा भी प्रासंगिक है।अध्येताओं का मत है कि हिंदू धर्म और बौद्ध धर्म में विशेष प्रकार की विभिन्न आध्यात्मिक और धार्मिक परंपराओं का पालन करने वाले एक समूह को तांत्रिक संप्रदाय कहा गया है ।ऐसा माना जाता है कि जब हिन्दू और बौद्ध धर्म में कुछ धार्मिक पतन आया तब सर्वोच्च लक्ष्य तक पहुँचने का एक नया मार्ग दिखाने के उद्देश्य से तंत्रवाद का अभ्युदय हुआ।यह संप्रदाय दिव्य रचनात्मक ऊर्जा ( शक्ति ) से संबंधित रहस्यवादी चिंतन पर आधारित है। इस प्रकार इसे एक रहस्यमय ज्ञान और अभ्यास का समूह कहा जाता है ।यह मुख्यतः अभ्यास पर केंद्रित है और अनुष्ठानों, मंत्रों, यंत्रों, जप, योग और साधना के अन्य रूपों पर आधारित है।
भारत में तंत्र संप्रदाय छठी और सातवीं शताब्दी ईस्वी के आसपास पनपा। सिद्धों का समय 8वीं से 12वीं शताब्दी के बीच माना जाता है, विशेष रूप से 8वीं से 10वीं शताब्दी को उनका चरम उत्कर्ष काल माना जाता है।जबकि डॉ रामकुमार वर्मा के अनुसार नाथों का समय 12 वीं सदी से 14 वीं सदी के अंत तक है।"सिद्ध अनीश्वरवादी थे, जबकि नाथ ईश्वरवादी। सिद्ध नारी भोग में विश्वास करते थे जबकि नाथपन्थी उसके विरोधी थे। गुरु महिमा, पिण्ड-ब्रह्माण्डवाद तथा हठयोग नाथ साहित्य का वैशिष्ट्य है। नाथों ने निरीश्वरवादी शून्य को ईश्वरवादी शून्य में प्रतिष्ठित किया।"तंत्रवाद की मान्यता है कि ब्रह्मांड और मानव शरीर समान तत्वों से बने हैं,इसलिए जो ब्रह्मांड में है, वह मनुष्य के शरीर में है।तंत्र वाद में शक्ति को ब्रह्मांडीय ऊर्जा का प्रतीक माना गया है,इसमें साधक अपनी साधना से ऊर्जा को जागृत करके शक्ति के साथ जुड़ने का प्रयास करता है।इनका विश्वास है कि यह साधना एक सच्चे गुरु के मार्गदर्शन में ही संभव है।इनकी तंत्र साधना में मंत्रों का जाप, ध्यान और शारीरिक क्रियाएं जैसे योग और मुद्रा का विशेष महत्त्व है ।तंत्र संप्रदाय में तंत्र, मंत्र, और यंत्रों का उपयोग करके आध्यात्मिक और लौकिक लक्ष्यों को प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है। तांत्रिक साधनाओं का मुख्य उद्देश्य सिद्धि प्राप्त करना है, जो अंतर्मुखी होकर की जाती है ।तंत्र का उपयोग शारीरिक, मानसिक, और आध्यात्मिक समस्याओं के समाधान के लिए किया जाता है। तंत्र साधना का विस्तार बौद्ध धर्म में भी है और हिन्दू धर्म के विभिन्न पंथों में भी है।शैव, भगवान शिव की उपासना करते हैं तो शाक्त , देवी शक्ति की ।वैष्णव ,भगवान विष्णु की उपासना करते हैं।बौद्ध धर्म में वज्रयान शाखा में भी मंत्र विद्या का प्रचलन है।
यहां बुंदेलखंड का आशय न उसकी किसी भौगोलिक सीमा से है और न किसी भाषिक सीमा से।मेरा आशय उस क्षेत्र से है जिसमें मैं रहा हूँ,जहां जहां मैं गया आया हुआ हूँ।और यह क्षेत्र जालौन,झांसी,दतिया, भिण्ड ,ग्वालियर,इटावा औरैया जिले में यमुना के दक्षिणवर्ती क्षेत्र तक ही सीमित है।
इन क्षेत्रों में और इनके समीप वर्ती क्षेत्रों में यहां के धार्मिक उत्सवों में,आस्थाओं में,रीति रिवाजों में सिद्धों का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित होता है।
हमारे यहां घुल्ला (एक विशेष व्यक्ति:ओझा)का अस्तित्व है। ऐसा माना जाता है कि घुल्ला अपने अपने इष्ट देवों की उपासना करके सिद्धि प्राप्त करते हैं फिर उसी सिद्धि से लोगों की समस्याओं का समाधान करते हैं। यह घुल्ला पद्धति भले ही तांत्रिक संप्रदाय का विछिन्न रूप लगे पर सच में यह सिद्धों,नाथों और तांत्रिकों का समन्वित प्रभाव है।हमारे यहां इन घुल्लों के आराध्य देव अधिकांशत: सिद्ध बाबा,देवी बाबा,भूरे बाबा, कारस देव, गोंड बाबा रहे हैं।गांव गांव जगह जगह इन देवों(बाबाओं) के थान (स्थान)बने हुए हैं।यह थान आम तौर पर चबूतरे के रूप में हैं जिन पर मिट्टी या ईंटों की एक त्रिकोण आकृति बाबा की प्रतीक के रूप में बनी होती है।इन देवों के बारे में लोक में मान्यता है कि यह सबके सब "बंगालौ पढ़े हैं।" बंगालौ पढ़ना स्पष्ट रूप से सिद्ध प्रभाव को व्यक्त करता है।कतिपय भक्तों की आराध्य देवी कालिका हैं।आम तौर पर कालिका जी की विधिवत पूजा तंत्र साधना पद्धति से होती है।तांत्रिक संप्रदाय का यह प्रभाव हमारे क्षेत्र में सिद्धों और नाथों के माध्यम से ही आया है।नाथ साहित्य में सिद्धों और नाथों के विचारों का वर्णन है।उनके यह विचार बुंदेलखंड की लोक संस्कृति और साहित्य में भी प्रतिबिंबित होते है।पांचवीं सदी से चौदहवीं सदी तक भारत के अधिकांश भूभाग में सिद्धों और नाथों का प्रभाव रहा।अस्तु, परवर्ती संस्कृति पर भी इनका प्रभाव आया है।
..............................................................