Raktrekha - 4 in Hindi Adventure Stories by Pappu Maurya books and stories PDF | रक्तरेखा - 4

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रक्तरेखा - 4

इन दिनों चंद्रवा गांव में कुछ अलग ही माहौल चल रहा था मानो सिर्फ आसमान में साफ़ नीला रंग लौट आना नहीं था, बल्कि एक लंबी थकान का उतर जाना था।  लगातार बारिश ने हर छप्पर को, हर गली को, हर दिल को नमी से भर दिया था। हवा में अब भी मिट्टी की भीनी-भीनी महक तैर रही थी, लेकिन उसमें अब घुटन नहीं थी, बल्कि खुलापन था — जैसे कोई पुराना बोझ हल्का हो गया हो।

धान के खेतों में पानी अब घुटनों तक रह गया था, और बालियां झुककर सूरज की गरमी का स्वागत कर रही थीं। गांव के कच्चे रास्तों पर नई-नई घास उग आई थी, जिस पर नंगे पाँव चलना ठंडी चादर पर चलने जैसा सुख देता था। बरसात में बहे हुए रास्तों को फिर से जोड़ने का काम चल रहा था — कोई फावड़ा चला रहा था, कोई गड्ढों में मिट्टी डाल रहा था, कोई खेत की मेंड़ दुरुस्त कर रहा था। हल्की धूप, हल्की ठंडी हवा, और मिट्टी से उठती गंध — जैसे धरती ने अपनी सांसें ताज़ा कर ली हों। गांव के बच्चे तालाब के किनारे मिट्टी की नावें बना रहे थे, और औरतें आँगन में बैठे धान झाड़ रही थीं।

गांव के बीचों-बीच, उसी कुएं के पास, आर्यन मिट्टी की खिलौने गढ़ रहा था। उसके सामने गगन बैठा था — पाँच बरस का, आँखों में शरारत भरी। वह बार-बार आर्यन से कहता,
“भैया, ये नाव मुझे दे दो, मैं तालाब में चला दूँगा।”
आर्यन मुस्कुराकर कहता,
“अभी नहीं… पहले इसका पाल बनाना है। बिना पाल की नाव हवा में नहीं चल पाएगी।”

रेखा — बारह बरस की, अपने लंबे बालों को चोटी में कसते हुए बोली,
“तुम लोग दिन-रात मिट्टी से खेलते रहो, औरतों की तरह। असली काम तो खेत में होता है।”
बबलू, जो पंद्रह का हो चुका था और अपने कंधों में किशोर से जवान होने की पहली कसक महसूस कर रहा था, हंसकर बोला,
“तो चल, रेखा, आज से तू खेत में हल चलाना सीख ले। हम सब तेरे पीछे-पीछे आएँगे।”

सभी बच्चे ठहाका मारकर हँस पड़े। गगन उछलकर बोला,
“रेखा दीदी हल चलाएगी, मैं बैल बनूँगा!”
रेखा ने गगन के सिर पर हल्का सा धप्पा मारा, “पागल कहीं का।”

इन्हीं हंसी-ठिठोली के बीच, धर्म कुएं से पानी खींचकर एक बुजुर्ग की मटकी में भर रहा था। बुजुर्ग ने हाथ जोड़कर कहा,
“बेटा, तेरे बिना ये गांव अधूरा है।”
धर्म ने सहज स्वर में कहा,
“काका, मैं तो बस वही करता हूँ जो सबको करना चाहिए। गांव का काम गांव के लोग ही करेंगे, बाहर से कौन आएगा?”

ऐसे दिनों में धर्म को गांव के एक कोने से दूसरे कोने में जाते देखा जा सकता था। वह किसी एक का आदमी नहीं था — वह सबका था।
कभी बुजुर्गों के घर के सामने लगे नीम के पेड़ की टूटी डाल काट देता, ताकि हवा में झूलकर किसी को चोट न लगे।
कभी खेत के पम्प का पाइप ठीक करने में मदद करता।
कभी मंदिर में जमा हुए पानी को बाहर निकाल देता।
और ये सब वह बिना किसी औपचारिकता, बिना किसी हिसाब-किताब के करता था।
गांव के लोग उसे लेकर आपस में कहते —
“धर्म कोई बड़ा लड़ाका नहीं है, न कोई राजा… पर दिल से बड़ा आदमी है।”
किसी और ने जोड़ा —
“ऐसे लोग लड़ाई नहीं जीतते, दिल जीतते हैं।”

बिनाल, जो धर्म का सबसे पुराना मित्र था, पास खड़ा मुस्कुराता रहा। उसका स्वभाव धर्म से अलग था — कम बोलने वाला, पर गहरी आंखों वाला। वह अक्सर धर्म से कहता,
“तू सबका बोझ ढोता रहता है, धर्म। कभी खुद का भी सोचना सीख।”
धर्म ठठाकर हँस देता,
“बिनाल, मैं खुद को गांव से अलग कैसे सोचूँ? मेरा सुख इसी में है कि सब ठीक रहें।”

आर्यन, जो अब पंद्रह का हो चुका था, अक्सर धर्म के साथ-साथ चलता। छोटे-छोटे कदमों से, गीली मिट्टी में पैरों के निशान बनाता हुआ। धर्म कहीं भी जाता, तो आर्यन वा उसके बच्चे उसके पीछे-पीछे जाते — मानो कोई चुपचाप शिक्षा चल रही हो। धर्म ने कई बार उसे अपने काम में शामिल करने की कोशिश की थी। वह उसे लकड़ी के छोटे टुकड़े देता और कहता, “ये ले, इसे कसकर पकड़े रहना, मैं इसे बाँध दूँगा।” आर्यन उस काम को इतना गंभीरता से करता, जैसे यह दुनिया का सबसे जरूरी काम हो।

इसी बीच, अचानक एक लड़की  दिखी — शायद उसकी उम्र उसी के बराबर, घड़ा हाथ में लिए कुएं पर पानी भर रही थी। पैरों में मिट्टी के छींटे थे, जैसे वह दूर कहीं से चली आई हो। उसके बाल हल्के गीले थे, और माथे पर कुछ लटें चिपकी हुई थीं। वह पानी खींचते समय किसी से बात नहीं कर रही थी। उसकी हर हरकत मापी-तौली और शांत थी। घड़े में पानी भरने के बाद उसने उसे सिर पर नहीं रखा, बल्कि हाथ से पकड़े हुए धीरे-धीरे चल पड़ी।
लेकिन जाने से पहले, उसने एक क्षण के लिए आर्यन की ओर देखा। न मुस्कान थी, न सवाल — बस एक ठहराव।

गगन ने भी उसे देख लिया और तुरंत चिल्लाया,
“अरे, ये नई लड़की है न? इसका नाम क्या है?”
रेखा ने गगन को डांटा,
“चुप रह, बिना जाने किसी से ऐसे थोड़े पूछते हैं।”

लड़की ने कुछ नहीं कहा। उसकी आंखें गहरी थीं, जैसे कोई मौन नदी बह रही हो। उसने बस एक क्षण आर्यन की ओर देखा और फिर नजरें झुका लीं।

धर्म ने पास जाकर मुस्कुराकर कहा,
“बेटी, तू नई आई है गांव में? नाम क्या है तेरा?”
लड़की ने धीरे से कहा,
“नाम की क्या ज़रूरत है? मैं तो बस काम से आई हूँ।”
और वह उठकर चली गई।

सब चुपचाप उसे जाते देखते रहे। धर्म भी यह सब चुपचाप देख रहा था। वह जानता था कि गांव की जिंदगी में कई मुलाकातें ऐसे ही होती हैं — बिना किसी परिचय, बिना किसी नाम, लेकिन बाद में वही अनकही बातें कहानी का हिस्सा बन जाती हैं।
बिनाल ने धीरे से धर्म से कहा,
“अजीब है ये लड़की। अपने बारे में कुछ बताना ही नहीं चाहती।”
धर्म ने सिर हिलाया,
“हर कोई अपने समय पर खुलता है, बिनाल। शायद इसमें भी कोई कहानी छिपी हो।"

लड़की के जाने के बाद धरम सबको साथ में लेके घर चल दिया। शाम ढल रही थी। आकाश नारंगी और बैंगनी रंग से भर रहा था। खेतों से बैलों की घंटियाँ सुनाई दे रही थीं। गांव का चौक धीरे-धीरे चहल-पहल से भरने लगा।
बबलू ने अचानक कहा,
“अरे सुना है, इस बार मेला लगने वाला है!”
रेखा ने पूछा,
“कौन सा मेला?”
बबलू ने गर्व से कहा,
“अरे वही, जो बीस साल में एक बार लगता है। बड़ा मेला। मैंने सुना है इस बार किरनवेल से पुजारी आएँगे।”

गगन की आँखें चमक उठीं,
“पुजारी? वो लोग जादू करेंगे क्या?”
सभी हँस पड़े।
धर्म ने समझाया,
“नहीं गगन, वो लोग पूजा करेंगे। इष्टदेव की आराधना करेंगे। किरनवेल से जो भी पुजारी आता है, वह सिर्फ मंत्र नहीं, बल्कि ज्ञान लेकर आता है। सुना है वहां कला, इतिहास और विद्या का खजाना है।”

आर्यन ध्यान से सुन रहा था। उसने धीरे से पूछा,
“क्या वे लोग हमारी तरह होते हैं?”
धर्म ने मुस्कुराकर कहा,
“हाँ, बिल्कुल हमारी तरह… लेकिन उन्होंने अपने जीवन को किताबों, गीतों और पुरानी कथाओं में डुबो दिया है। वे हमें याद दिलाने आते हैं कि हम सिर्फ खेती और रोज़ी-रोटी के लिए नहीं बने, बल्कि सोचने और समझने के लिए भी बने हैं।”

रेखा ने उत्सुकता से कहा,
“क्या हमें भी मेला देखने को मिलेगा?”
धर्म ने कहा,
“जरूर मिलेगा। मेला सिर्फ खेल-तमाशे के लिए नहीं होता, बल्कि गांव की आत्मा को जोड़ने के लिए होता है।”

बिनाल ने गहरी आवाज़ में जोड़ा,
“हर बीस साल पर लगने वाला मेला… मतलब अगले बीस साल तक का सुख-दुख, मान-अपमान, सब एक सूत्र में बंध जाएगा। लोग दूर-दूर से आएँगे, कहानियां लाएँगे, अपने-अपने रंग लाएँगे।”

बबलू ने मजाक किया,
“और मैं तो सबसे पहले मिठाई खाने जाऊँगा।”
गगन चिल्लाया,
“और मैं झूला झूलूँगा!”

सब फिर हँस पड़े। पर धर्म की आँखों में एक गहरी चमक थी। उसने आर्यन के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा,
“याद रखना, बेटा, मेला सिर्फ आंखों का नहीं, आत्मा का त्योहार होता है। वहां से जो सीखा जाए, वह पूरी जिंदगी का सहारा बनता है।”
आर्यन चुप रहा, लेकिन उसके दिल में यह बात गूंजती रही।

उस दिन के बाद, गांव की दिनचर्या वैसे ही चलती रही — खेतों में काम, शाम को मंदिर की घंटी, और कभी-कभार किसी के आँगन में हंसी के फव्वारे। लेकिन धर्म और गांववालों के बीच का रिश्ता अब पहले से भी गहरा लगने लगा।
कोई बीमार पड़ता तो धर्म सबसे पहले पहुंचता।
कोई खेत में काम करते-करते गिर जाता, तो धर्म कंधा देकर घर पहुंचा देता।
किसी के घर में चूल्हा ठंडा हो जाता, तो वह अपना हिस्सा वहां पहुंचा देता और शायद यही वजह थी कि गांव के लोग उसे सिर्फ धर्म नहीं, बल्कि “अपना धर्म” कहते थे।
    शाम होते-होते गांव का चौक धुएं और आवाज़ों से भर जाता। चूल्हों से निकलती लकड़ी की महक हवा में फैलती, बच्चे दौड़ते, और दूर कहीं से ढोल की धीमी थाप सुनाई देती।
इन्हीं पलों में अक्सर कोई न कोई धर्म को अपनी चौखट पर बुला लेता —
“अरे धर्म, जरा इस छप्पर का कोना देख तो… बारिश में टपकने लगा है।”
“धर्म भाई, कल हल चलाने में मदद कर देना।”
धर्म हर किसी के यहां जाता, चाहे थकान कितनी भी हो। और गांव के लोग यह जानते थे — धर्म के बिना चंद्रवा का दिल आधा रह जाएगा।

आर्यन यह सब देखता था, और शायद अनजाने में सीख भी रहा था — कि ताकत सिर्फ तलवार में नहीं, बल्कि हाथ बढ़ाने में होती है।

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