Maharana Sanga - 22 in Hindi Anything by Praveen Kumrawat books and stories PDF | महाराणा सांगा - भाग 22

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महाराणा सांगा - भाग 22

खानवा की पराजय 
महाराणा साँगा की सेना खानवा के मैदान में आ डटी थी और उन्होंने रणनीति बना ली थी। अफगान सरदारों को महाराणा कुछ अधिक ही महत्त्व दे रहे थे, जिससे उनके कुछ राजपूत सामंत चिढ़ रहे थे। वास्तव में राणा ठीक कर रहे थे। वे अफगान शक्ति का युद्ध में पूरा-पूरा इस्तेमाल और लाभ उठाने की नीति पर काम कर रहे थे। बाबर की सेना दो मील आगे मोर्चा लिये खड़ी थी। महाराणा ने अपने सभी सामंतों और सरदारों को एकत्र करके अपनी रणनीति समझा दी थी। ‘‘यह युद्ध केवल बयाना को जीतने के लिए नहीं लड़ा जा रहा है। इस युद्ध से भारत का भविष्य तय होने वाला है। बाबर की महत्त्वाकांक्षाओं का दमन ही इस युद्ध का प्रथम लक्ष्य है। हमें खानवा के इस मैदान से बाबर को वापस काबुल खदेड़ देना है। हम उसे भारत में पैर नहीं जमाने देंगे।’’ 

12 मार्च, 1527 को महाराणा साँगा और बाबर की सेनाएँ खानवा के मैदान में आमने-सामने आ गईं। महाराणा की संयुक्त सेना में मारवाड़, अंबर, ग्वालियर, चँदेरी, अफगान और इब्राहिम लोदी के भाई महमूद लोदी की सेना भी शामिल थी। बाबर ने कभी सोचा भी नहीं था कि उसके अभियान के विरुद्ध इतना बड़ा संगठन बन जाएगा। उसने तो यही सुना था कि राजपूत सेनाओं में आपसी द्वेष इतना है कि एकता की आशा ही नहीं, लेकिन यहाँ तो दृश्य ही कुछ अलग था—यह सब महाराणा साँगा के कारण ही संभव हो सका था। 

खानवा के मैदान में सूर्य का प्रकाश पूरी तरह फैल गया था और दोनों ओर की सेनाएँ रणभेरी का स्वर सुनने की प्रतीक्षा कर रही थीं कि तभी एक विचित्र घटना घटी, जिसने बाबर को तो प्रसन्न कर दिया, लेकिन सेना हतप्रभ रह गई। स्वयं महाराणा साँगा को विश्वास नहीं हो रहा था। रायसेना प्रदेश का तँवर राजा सिलहदी अपने 35 हजार सवारों के साथ बाबर की सेना में जा मिला और अब सांख्य संतुलन हो गया। अब बाबर की सैन्य-शक्ति भी बराबर की हो गई थी। 

‘‘महाराणा, यह...यह क्या हो रहा है?’’ हसन खाँ मेवाती हक्का-बक्का रह गया। 

‘‘देशद्रोही!’’ महाराणा के मुख से अस्फुट स्वर निकल पड़ा, ‘‘विश्वासघाती!’’

 ‘‘इसने ऐसा क्यों किया?’’

 ‘‘हमें पहले थोड़ी भी शंका होती तो हम इस दुष्ट को बंदी बना लेते।’’ 

‘‘अब क्या होगा?’’ 

‘‘अब सिलहदी को उसकी इस करतूत की सजा अवश्य मिलेगी। उसे इस विश्वासघात का परिणाम भुगतान होगा।’’ 

इस घटना से राजपूत सेना में विचित्र सी स्थिति पैदा हो गई थी। सिलहदी के इस कृत्य से राजपूतों का खून खौल उठा था। अब तो युद्ध शुरू होने पर ही उस विश्वासघाती को दंडित किया जा सकता था। सिलहदी ने ऐसा क्यों किया, कोई नहीं समझ पर रहा है था। अब जो हो गया था, उसे अस्वीकारा भी नहीं जा सकता था। एक सिलहदी के न होने से राजपूत शक्ति क्षीण नहीं हो जाती, फिर भी यह घटना इस युद्ध के परिणाम को प्रभावित कर सकती थी। 

रणभेरी बज उठी तो दोनों सेनाएँ आपस में भिड़ गईं। महाराणा साँगा ने जिस व्यूह से अपना आक्रमण किया था, वह बाबर की सेना को हिला गया था। वीर सेनापति मेदिनीराय ने अपनी सेना का आह्वान करते हुए कहा, ‘‘शत्रु भले ही जीवित रह जाए, किंतु देशद्रोही नहीं बचना चाहिए।’’ 

राजपूत योद्धा संकेत समझ गए थे और वे बाबर की सेना को काटते हुए उधर ही बढ़ रहे थे, जिधर सिलहदी की सेना अफगानी सैनिकों से लड़ रही थी। युद्धभूमि में भयंकर मार-काट मची थी। सैनिक अपने प्राण बचाने के लिए नहीं, बल्कि शत्रु सैनिकों के प्राण हरण करने के लिए उग्र से उग्रतर हो रहे थे। 

हाथी पर बैठा बाबर उस भीषण मार-काट को देख रहा था। यह युद्ध उसका भविष्य तय करनेवाला था। इसी से निर्णय होनेवाला था कि वह भारत में मुगल साम्राज्य स्थापित कर पाएगा कि नहीं? उसकी दृष्टि घूमती हुई राणा साँगा पर जा टिकी, जो वीरता से इस युद्ध का संचालन कर रहे थे। एक उचित अवसर देखकर बाबर ने एक तीर महाराणा की ओर छोड़ दिया, जो सीधे महाराणा के माथे पर जा टकराया। 

राजपूत सेना क्षण भर के लिए स्तंभित रह गई और तलवारें थम गईं। इधर महाराणा अचेत हो गए थे। हसन खाँ मेवाती और अन्य राजपूत सरदार उन्हें शिविर में ले आए, जहाँ वैद्य ने उनका उपचार आरंभ कर दिया। महाराणा का पूरा शरीर घावों से ग्रस्त था।

 ‘‘इन्हें अभी पूर्ण विश्राम की आवश्यकता है।’’ वैद्य ने चिंतित स्वर में कहा, ‘‘खून इतना बह गया है कि इनके लिए यह स्थिति प्राण-घातक हो सकती है।’’

 ‘‘नवाब साहब! आप महाराणा को अलवर ले जाइए।’’ राव वीरभदेव ने कहा, ‘‘हम नहीं चाहते कि सेना को इस विषय में पता चले। राणा अज्जाजी, आप महाराणा का मुकुट सिर पर रखें और रणभूमि में जाएँ, जिससे सेना का उत्साह न टूटे।’’ 

राणा अज्जाजी ने महाराणा साँगा की आँख ढकनेवाला कपड़ा उतारकर अपनी आँख ढक ली और उनका मुकुट उतारकर सिर पर लगा दिया। एक प्रकार से देखने पर वे महाराणा की भाँति ही दिखते थे। घोडे़ पर सवार होकर वे युद्ध में चले गए तो राजपूतों का उत्साह बढ़ा। 

हसन खाँ मेवाती और कई राजपूत सामंत महाराणा को रणभूमि से निकालकर अलवर की ओर ले चले, लेकिन मार्ग में वैद्य ने शीघ्र ही विश्राम करने को कहा। अतः जयपुर की उत्तरी सीमा पर एक उचित स्थान देखकर शिविर लगा दिया गया और वैद्य उपचार में जुट गए। 

उधर खानवा के मैदान में यह बात अधिक देर तक छिपी न रह सकी कि महाराणा रणभूमि से चले गए हैं। इससे राजपूत सेना हतोत्सहित हो उठी और बाबर ने खानवा का युद्ध जीत लिया। 

**********

जीवन का अंतिम अध्याय 
महाराणा कुछ चैतन्य हुए तो उन्होंने स्वयं को शिविर में पाया। वे एक झटके से उठ बैठे और सामने खड़े अपने सरदारों को देखकर चौंके। 

‘‘हम कहाँ हैं और युद्ध का क्या परिणाम रहा?’’ 

‘‘महाराणा, हम युद्ध हार गए।’’ 

‘‘नहीं!’’ महाराणा क्रोध से चीख पड़े, ‘‘मेवाड़ का राजा युद्ध नहीं हार सकता। जब तक मेरे शरीर में प्राण है, मैं पराजित नहीं हो सकता। हमारी तलवार दो और हमारे साथ युद्धभूमि में चलो।’’

 ‘‘महाराज हम जयपुर की उत्तरी सीमा पर हैं।’’ सरदार हसन खाँ मेवाती ने कहा, ‘‘युद्ध में आपको इतने घाव लगे हैं कि अत्यधिक रक्त बह गया है। वैद्य ने आपके प्राणों का संकट बताया तो हम आपको उपचार के लिए ले आए।’’ 

‘‘यह तुम लोगों ने क्या किया?’’ महाराणा क्रोध से काँप उठे, हमें रणभूमि से इतनी दूर ला पटका...युद्ध में घाव तो वीरता का पुरस्कार होते हैं। राजपूत का रक्त बहता है तो शौर्य की उत्पत्ति होती है, उत्साहवर्धन होता है। आपने एक योद्धा के शौर्य की अवहेलना की है, कायरता का पाठ पढ़ाया। हम राजपूत रण में प्राण देते हैं, परंतु जान बचाकर नहीं भागते। राव वीरमदेव! आप तो राजपूताना की मर्यादाओं से भली-भाँति परिचित हैं, फिर आपने ऐसा क्यों होने दिया? 

‘‘महाराज!’’ राव वीरमदेव ने संतुलित स्वर में कहा, ‘‘आपका यह धिक्कारना हमें लज्जित नहीं कर रहा है, क्योंकि हमने जो किया है, वही हमारा कर्तव्य था। हमें अपने महाराणा को मर्यादा की बलिवेदी पर बलिदान चढ़ाना इसलिए स्वीकार न हुआ, क्योंकि हमारा भारतवर्ष संकट में है और इस संकट को आपके नेतृत्व में दूर किया जा सकता है। राजपूत शक्ति कितनी भी प्रबल हो, परंतु वह कुशल नेतृत्व चाहती है। खानवा की विजय से बाबर का स्वप्न पूरा नहीं होता। उसका स्वप्न महाराणा संग्राम सिंह की मृत्यु से ही पूरा होता है और हम महाराणा की मृत्यु नहीं होने देना चाहते थे। इसी कारण हमने ऐसा किया। आप स्वस्थ हो जाएँ। बाबर अभी कहीं नहीं गया। युद्ध के मैदान अभी और होंगे। हमें बस आपकी आवश्यकता है।’’ 

‘‘हम बाबर को परास्त किए बिना चित्तौड़ नहीं लौटेंगे।’’ महाराणा ने दृढता से कहा, ‘‘आपने जिस विश्वास और दृष्टिकोण से यह निर्णय लिया, हम उसे अस्वीकार नहीं करते, परंतु खानवा की पराजय हमारे हृदय में शूल की भाँति चुभ गई है। हम स्वस्थ होते ही उसे फिर रणभूमि में परखेंगे।’’

 ‘‘निश्चिंत रहें महाराज, यह विश्वासघाती देशद्रोही सिलहदी ने धोखा दे दिया, अन्यथा खनवा में ही निर्णय हो गया होता।’’

 ‘‘क्या किसी को पता चला कि सिलहदी ने ऐसा क्यों किया?’’

 ‘‘मुझे पता चला है महाराज!’’ नवाब हसन खाँ मेवाती ने गंभीरता से कहा, ‘‘वास्तव में सिलहदी ही नहीं, बल्कि कई राजपूतों को यह गठजोड़ पसंद नहीं था। इन कट्टर धर्मांध सामंतों की नजर में हम भी विदेशी तुर्क हैं और गैर-धर्मी हैं, जिनकी सहायता करना या लेना, इनके लिए धर्मद्रोह है। सिलहदी ने अपनी मानसिकता का खुलकर प्रदर्शन किया है और कुछ अन्य सामंत आपके भय से मौन रहे।’’ 

‘‘दुर्भाग्य, देश का घोर दुर्भाग्य!! यही धर्मांधता इस देश के संकटों का मूल कारण है।’’ महाराणा साँगा ने निराश स्वर में कहा, ‘‘अंततः बाबर ने भी तो इसी अस्त्र का प्रयोग किया है।’’ 

‘‘महाराज! केवल एक सिलहदी के ऐसा सोचने या विश्वासघात करने से हम शक्तिहीन नहीं हो गए। हम आपके नेतृत्व में आज भी सक्षम हैं, शक्तिशाली हैं। आप जिस क्षण भी स्वस्थ होकर अपनी तलवार लेकर अश्व पर बैठेंगे, उसी क्षण बाबर की महत्त्वाकांक्षा का पतन आरंभ हो जाएगा, ऐसा हमारा दृढ विश्वास है।’’ 

महाराणा साँगा ने सहमति में सिर हिलाया। कुछ दिन वहाँ रहकर महाराणा को स्वास्थ्य-लाभ के लिए रणथंभौर के किले में ले जाया गया, जहाँ वे बाबर से आगामी युद्ध की रणनीतियाँ भी बनाते रहे। इसके साथ ही वे इस प्रयास में भी लगे रहे कि उन सामंतों की पहचान हो जाए, जो सिलहदी जैसी मानसिकता पाले बैठे थे और कभी भी विश्वासघात कर सकते थे। इस बार वे किसी प्रकार की निर्बलता नहीं रहने देना चाहते थे।

 इधर महाराणा को बाबर की सूचना भी मिल रही थी। उसके सैनिकों और सरदारों ने भीषण गरमी में अभी किसी बड़े युद्ध-अभियान का हिस्सा बनने में असमर्थता जताई थी और इसका लाभ राजपूतों को मिल रहा था। महाराणा की अनुपस्थिति में वीर सेनापति मेदिनीराय ने पश्चिमी राजपूतों की शक्ति को संगठित कर रखा था और बाबर के विरुद्ध युद्ध की व्यापक तैयारियाँ कर रहा था। महाराणा साँगा को अपने वीर सेनापति पर गर्व था। इसी बीच दिसंबर में मौसम अनुकूल हो जाने पर बाबर द्वारा मेदिनीराय पर आक्रमण करने का समाचार मिला तो महाराणा का रक्त जैसे उबलने लगा। महाराणा ने अपने सभी सामंतों-सरदारों को तुरंत एकत्र होने का आदेश दिया।

 ‘‘अब फिर अवसर आया है कि बाबर को राजपूतों के शौर्य का ज्ञान हो जाए।’’ महाराणा ने सभा को संबोधित करते हुए कहा, ‘‘हमारी सेना तैयार है। हम शीघ्र ही यहाँ से चँदेरी की ओर प्रस्थान करेंगे और वीर मेदिनीराय का उत्साह व बल बढ़ाएँगे। हम मुगलों को चँदेरी के मैदान में गाजर-मूली की तरह काटेंगे।’’ महाराणा ने अपने सभी सेनानायकों को आदेश देते हुए कहा, ‘‘अब शीघ्रता के साथ यहाँ से प्रस्थान की तैयारी करो।’’ 

महाराणा साँगा की सेना एक बार फिर नए उत्साह से परिपूर्ण होकर रणभूमि में उतरने के लिए तैयार थी। महाराणा भी अब पूर्ण स्वस्थ थे। वे इधर-से-उधर घूम-घूमकर सेना को व्यवस्थित कर रहे थे। उनकी चपलता और उत्साह देखकर राजपूत-अफगान सरदार साहस और शौर्य से भर उठे थे। 

इसी बीच समाचार मिला कि बाबर की सेना 20 जनवरी, 1528 को चँदेरी पहुँच गई। अब महाराणा ने तुरंत ही वहाँ से प्रस्थान किया। महाराणा की सेना ने पहला पड़ाव इरिच में डाला और रात्रि-विश्राम किया। 

महाराणा ने उस रात भी शिविर में अपने सरदारों व सामंतों का उत्साहवर्धन करने हेतु वीरता भरा संबोधन किया। टोडरमल चांचल्या नामक चारण ने वीरता से ओत-प्रोत कुछ कविताएँ सुनाकर महाराणा को प्रसन्न किया। महाराजा ने वीररस की उस कविता को सुनकर प्रसन्न होते हुए चांचल्या को एक गाँव पुरस्कार में दिया। 

इस उत्साह-सभा के पश्चात् रात्रिभोज हुआ। भोजन के बाद सभी लोग रात्रि-विश्राम हेतु चले गए, तभी महाराणा को कुछ बेचैनी सी होने लगी। उन्होंने तत्काल वैद्य को बुलवाया तो वैद्य उनकी दशा देखकर सन्न रह गया। महाराणा को किसी ने विष दे दिया था, जिसका प्रभाव बड़ी तीव्रता से हो रहा था। सभी सरदार आ गए और महाराणा को विष दिए जाने की बात जानकर घबरा उठे।

 वैद्य ने भरसक प्रयास करते हुए महाराणा के प्राण बचाने हेतु कई ओषधियाँ दीं, किंतु उनसे कुछ भी सफलता न मिली। वह वीर शिरोमणि मेवाड़ केसरी महाराणा साँगा उस विश्वासघाती विष से अपनी प्राणरक्षा न कर सका। महाराणा ने अपने किसी धर्मांध विश्वासघाती सामंत की इस देशद्रोहिता से असमय ही...बिना अपना शौर्य और साहस दिखाए ही असार संसार से विदा ली। 

यह क्रूर कृत्य महाराणा संग्राम सिंह और राजपूताने के साथ हुआ विश्वासघात नहीं था, अपितु भारतवर्ष के साथ हुआ विश्वासघात था, जिसने मुगल साम्राज्य की स्थापना के मार्ग का हिमालय सरीखा प्रतिरोध दूर कर दिया था। 

21 वर्ष, 5 माह और 9 दिन के अपने शासनकाल में मेवाड़ को उन्नति और शौर्य के शिखर पर ले जाने वाले महान् राजपूत राणा साँगा 46 वर्ष की आयु में ही स्वर्ग सिधार गए। निश्चय ही वे अपने अप्रतिम पराक्रम से इतिहास में अपने नाम का एक स्वर्णिम अध्याय जोड़ गए।