महाराणा साँगा का अतुलित पराक्रम
महाराणा साँगा ने इब्राहिम लोदी को परास्त किया था। दिल्ली के सुलतान को परास्त करना बहुत बड़ी उपलब्धि थी। महाराणा ने देखा कि उनके राजपूत सरदारों को इस विजय का उत्सव मनाने की उत्कंठा तो थी, परंतु उनके घायल हो जाने से उत्सव नहीं मनाया गया। तो महाराणा ने मन-ही-मन एक निर्णय लेते हुए एक उत्सव के आयोजन की घोषणा कर दी और मेवाड़ के सभी सरदारों, सामंतों को उसमें सम्मिलित होने का निमंत्रण भेजा। निश्चित तिथि को चित्तौड़ में भव्य उत्सव का आयोजन हुआ, जिसमें सभी ने भाग लिया। सब अपने-अपने आसनों पर बैठे महाराणा साँगा के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। महाराणा आए तो सबने खड़े होकर उनका स्वागत किया। महाराणा ने एक हाथ उठाकर सबका अभिवादन किया, क्योंकि उनका एक हाथ तो युद्ध में आहुत हो गया था।
जब सभी सरदार बैठ गए तो महाराणा भी राजसिंहासन पर न बैठकर भूमि पर ही बैठ गए। सबको बड़ा ही आश्चर्य हुआ।
‘‘मेरे वीर राजपूत सरदारो, आप सबके पराक्रम ने जिस प्रकार सुलतान का गर्व चूर-चूर कर किया, उसके लिए मैं आप सबका आभारी हूँ।’’ महाराणा ने गंभीर स्वर में कहा, ‘‘यह एक भव्य विजय थी, जिसका श्रेय आप सबको जाता है। इस विजय पर हमें आनंदोत्सव करना चाहिए था, परंतु हमारी अस्वस्थता के कारण ऐसा न हो सका। अब हम स्वस्थ हैं और उस विजय का उत्सव मनाने के लिए आपके साथ हैं।’’
‘‘क्षमा करें महाराज!’’ राव रतन सिंह ने खड़े होकर विनयपूर्वक कहा, ‘‘आपके ही नेतृत्व में वह भव्य विजय हुई थी और आप राजपूतों की शान हैं। आप इस मेवाड़ के महाराणा हैं और यह राजसिंहासन आपका है, फिर आप क्यों एक साधारण सामंत की भाँति भूमि पर बैठे हैं, इसका हमें आश्चर्य हो रहा है।’’
‘‘हाँ...हाँ...महाराज! हमें इसका कारण बताइए?’’ कई स्वर एक साथ गूँज उठे।
मेरे प्रिय सरदारो, यह राजसिंहासन मेवाड़ का मंदिर है। मेवाड़ की प्रजा का जितना विश्वास ईश्वर में होता है, उतना ही सिंहासन में। हमारी वैदिक परंपरा में दृढ आस्था यह है कि यदि मंदिर की मूर्ति का अंग-भंग या खंडित हो जाए तो उसे मंदिर में नहीं रखा जाता। मैं भी इस सिंहासन के योग्य नहीं रहा। शारीरिक विकृति के कारण मुझे इस सिंहासन पर बैठने में लज्जा प्रतीत होती है, क्योंकि विकृत शरीर का राजा सिंहासन की शोभा ही बिगाड़ देता है अर्थात् मंदिर की शोभा ही विकृत लगने लगती है।’’
‘‘महाराज, यह आप क्या कह रहे हैं?’’ मेदनीराय ने आश्चर्य से कहा, ‘‘शारीरिक योग्यता राजसिंहासन की शर्त कैसे हो सकती है? इसके लिए नीतिवान्, योद्धा, न्यायप्रिय और प्रजावत्सल होना अनिवार्य है और हमारे महाराणा में ये सभी गुण कूट-कूटकर भरे पड़े हैं। आप इस सिंहासन से इसका यह गौरव न छीनें कि इस पर एक महान् महाराणा सदैव आसीन रहा है।’’
‘‘सरदार, राज्य के लिए सर्वांग शासक होना भी अनिवार्य है। मैं चाहता हूँ कि आप सब मिलकर इस पवित्र व महान् सिंहासन के लिए एक पूर्ण शरीर का योग्य शासक चुनें। मैं आप सभी सरदारों की भाँति अपनी क्षमता के अनुसार राज्य की सेवा करता रहूँगा।’’ महाराणा ने कहा, ‘‘मैं नहीं चाहता कि मेवाड़ का अधूरा शासक इस कारण निंदा का पात्र बने कि वह अपनी शासन की भूख में मेवाड़ के हितों को भूल गया। एक अपूर्ण शासक राज्य की रक्षा में भी असमर्थ हो जाता है।’’
अपने महान् महाराणा की बात सुनकर सभी सरदार अश्रुपूरित नेत्रों से एक-दूसरे को देखने लगे। जिस वीर पुरुष ने अपने पराक्रम से दिल्ली के अपराजेय सुलतान को रणभूमि में जान के लाले डाल दिए थे, आज वह स्वयं को कितना असहाय और अपूर्ण महसूस कर रहा था।
‘‘महाराज!’’ मेहतानरेश ने विनम्र स्वर में कहा, ‘‘रणभूमि में इसी मेवाड़ की रक्षा करते हुए आपने अपने अंगों की आहुति दी है और सारा संसार जानता है कि सिंह का एक नाखून कट जाने से उसकी आक्रामकता में कोई कमी नहीं आती। मेवाड़ की रक्षा में आप ही समर्थ होंगे, क्योंकि आपकी शिराओं में उन महान् सिसौदिया वंशी बप्पा रावल और महाराणा कुंभा का रक्त है, जिन्होंने मेवाड़ का गौरव सदैव ऊँचा रखा और उसकी रक्षा में अपने प्राणों की बाजी लगा दी। आप आज भी पूर्ण हैं। हमें तो अक्षुण्ण बनाए रखने में समर्थ हैं। आप इस सिंहासन पर विराजिए और हमें अपने मार्गदर्शन से प्रेरित करते रहिए। रणभूमि को विजित करना है तो हम सबकी संयुक्त शक्ति और आपका मार्गदर्शन ही बहुत है।’’
सभी सामंत और सरदारों ने विनयपूर्वक आग्रह करके महाराणा को राजसिंहासन पर बिठा ही दिया, फिर चित्तौड़ में जो भव्य विजयोत्सव हुआ, उसकी सूचना ने दिल्ली बादशाह इब्राहिम लोदी के जख्मों पर जैसे नमक ही छिड़क दिया। उसकी इस पराजय ने उसे काबुल, कंधार, पार्स तक निंदित कर दिया था। उसके सैनिक अभी तक युद्ध की विभीषिका को याद करके सिहर उठते थे। अपनी पराजय से तिलमिलाया इब्राहिम लोदी अभी तक राणा साँगा का रणरूप याद करता था।
जब उसके सरदारों ने यह बताया कि अब महाराणा साँगा शारीरिक रूप से अक्षम हो चुके हैं तो उसके अंदर का प्रतिशोध जाग उठा। वह मानता था कि खातोली के युद्ध में उसकी पराजय का मुख्य कारण राणा साँगा का ही युद्ध कौशल था। उसने देखा था कि रणभूमि में राणा साँगा की तलवार बिजली की तरह चलती थी, जो उसकी सेना को गाजर-मूली की तरह काटती थी। अब जबकि राणा साँगा का एक हाथ कट गया था तो उसमें वह कौशल और सामर्थ्य कहाँ शेष बची रहेगी, जो एक पूर्ण व्यक्ति में होती है। घोडे़ की रास पकड़ना और तलवार चलाना दोनों एक ही हाथ से कैसे हो सकते थे? अब विजय की संभावना बनती थी। राजपूत वीर थे, साहसी थे, युद्धप्रिय थे, पर कुशल नेतृत्व के अभाव में प्रभावी नहीं थे। इन सब बातों को सोचकर सुलतान लोदी ने बड़े पैमाने पर अपनी सेना का संगठन किया। इस बार उसने अपनी सेना का प्रधान सेनापति उस मियाँ मक्खन को बनाया, जो उसके पिता के समय अनेक युद्धों का विजेता था। अपनी सेना को उसने तीन भागों में बाँटा, जिसकी कमान अनुभवी मियाँ हुसैन खाँ जरबख्श, मियाँ खानखाना फरमुली और मियाँ माहरुफ को नियुक्त किया, जो अपने समय के प्रसिद्ध तुर्क योद्धा थे।
सन् 1518 में एक बार फिर धौलपुर के निकट दोनों सेनाओं का टकराव हुआ। आशा के विपरीत राजपूत सेना का नेतृत्व आज भी महाराणा साँगा ही कर रहे थे। अब तो यह देखना था कि युद्ध में कैसे वे अपनी अक्षमता के होते प्रदर्शन करते हैं। अनुभवी मियाँ मक्खन ने जबरदस्त व्यूह रचना की थी, परंतु साँगा भी ऐसे युद्धों की हर रणनीति को जानते थे। उन्होंने मेदनीराय को चालीस हजार राजपूतों की सेना के साथ वृत्त व्यूह के लिए रख छोड़ा था और तुर्क सेनापति को आभास तक नहीं हुआ था कि अभी राणा की सेना शेष भी है। युद्ध आरंभ हो गया। सुलतान लोदी तो राणा साँगा को देखना चाहता था, परंतु जब उसने घोडे़ की लगाम दाँतों में दबाई और दाहिने, इकलौते हाथ से तलवार घुमाई तो हतप्रभ रह गया। राणा के कौशल में कहीं कोई कमी नहीं थी। जब सैन्य-समुद्र आपस में घुल-मिलकर एक-दूसरे की जान के प्यासे हो गए तो मेदनीराय की अतिरिक्त सेना ने धावा बोल दिया। यह प्रबल आक्रमण था, जो अफगानी सेना के पैर उखाड़ने लगा। रणनीति काम कर गई। लोदी की सेना प्राण बचाकर भागने लगी तो राजपूत सेना ने बयाना तक उसका पीछा किया। हजारों तुर्क सैनिक तो भागते-भागते काट दिए गए। इब्राहिम लोदी भी जैसे-तैसे जान बचाकर वहाँ से भागा। ....