श्रेणी:
सामाजिक / भावनात्मक कहानी
टैग्स:
माँ-बाप, त्याग, भावनात्मक, सामाजिक, रिश्ते, सच्चाई, परिवार
विवरण:
यह कहानी हर उस माँ-बाप की है, जिन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी बच्चों की खुशियों के लिए कुर्बान कर दी, और बदले में बुढ़ापे में तन्हाई पाई।
"आँगन से दूर" पढ़ते हुए आपकी आँखें भर आएँगी, और आपको एक सवाल ज़रूर चुभेगा—क्या हम अपने माता-पिता के साथ सही व्यवहार कर रहे हैं?शीर्षक: "आँगन से दूर"
गाँव की गलियों में सुबह-सुबह मुर्गे की बाँग सुनाई देती थी। उस छोटे से घर में रामलाल और उसकी पत्नी शांति हर दिन सूरज के साथ जागते।
रामलाल खेतों में मेहनत करता और शांति घर का काम सँभालने के साथ-साथ बच्चों की पढ़ाई का ध्यान रखती।
उनके दो बेटे थे—अजय और विजय।
गरीबी के बावजूद, रामलाल और शांति के दिल में एक ही सपना था—"हमारे बेटे पढ़-लिखकर बड़े आदमी बनें।"
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1. बचपन की कठिनाई
बरसात के दिनों में छत से पानी टपकता, सर्दियों में घर में ठंडी हवा घुस आती, लेकिन बच्चों की पढ़ाई कभी रुकने नहीं दी।
अजय के स्कूल की फीस देने के लिए शांति ने अपने कानों के झुमके बेच दिए।
विजय की बोर्ड परीक्षा के वक्त रामलाल ने खेत गिरवी रख दिए ताकि किताबें खरीदी जा सकें।
रात को अँधेरे में लालटेन की रोशनी में पढ़ते हुए अजय अक्सर कहता—
"माँ, जब मैं बड़ा हो जाऊँगा, तो आपको सोने की चूड़ियाँ दूँगा।"
शांति हँसकर कहती—"मुझे चूड़ियाँ नहीं चाहिए बेटा, बस इतना चाहिए कि तुम दोनों हमें कभी अकेला मत छोड़ना।"
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2. सपनों की उड़ान
समय बीता, मेहनत रंग लाई। अजय इंजीनियर बन गया और शहर में नौकरी करने लगा। विजय ने बिज़नेस शुरू किया।
घर में पक्की ईंटें लग गईं, बिजली का कनेक्शन आ गया, और गाँव के लोग कहते—
"रामलाल-शांति की किस्मत खुल गई।"
शांति की आँखों में गर्व था, लेकिन उम्र का असर भी साफ दिखने लगा।
रामलाल की पीठ अब सीधी नहीं रहती थी, और खेत का काम करना कठिन हो गया था।
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3. शहर का बुलावा
एक दिन अजय ने फ़ोन किया—
"पिताजी, गाँव में रहकर क्या करोगे? आप और माँ शहर आ जाइए, हमारे साथ रहिए।"
विजय ने भी हामी भरी—"हाँ पापा, यहाँ सब सुविधाएँ हैं।"
रामलाल और शांति ने सोचा—अब शायद आराम का समय आ गया है।
उन्होंने गाँव का घर और खेत बेचकर, थोड़ा पैसा लेकर शहर का रुख किया।
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4. शुरुआत की मिठास
पहले कुछ महीने अच्छे गुज़रे।
शहर की रोशनी, पक्की सड़कें और नई-नई चीज़ें देखकर शांति को अच्छा लगता था।
अजय ऑफिस से लौटकर माँ के हाथ का खाना खाता, विजय कभी-कभी मूवी ले जाता।
शांति को लगता—"बेटे कितने बदल गए हैं, पर अपने नहीं बदले।"
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5. धीरे-धीरे बदलाव
लेकिन समय के साथ हालात बदलने लगे।
अजय की पत्नी अक्सर ताने मारने लगी—
"मम्मी जी, शहर में रहते हुए भी गाँव वाली आदतें नहीं गईं आपकी।"
विजय की पत्नी कहती—
"घर में इतने लोग रहेंगे तो हमें प्राइवेसी कैसे मिलेगी?"
एक दिन अजय ने रामलाल से कहा—
"पापा, आप लोग विजय के घर कुछ दिन रह लीजिए, ताकि हम थोड़ा स्पेस पा सकें।"
रामलाल ने मन भारी करते हुए हामी भर दी।
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6. ठिकाने से ठिकाने
रामलाल और शांति कुछ दिन विजय के घर रहे, लेकिन वहाँ भी वही कहानी।
आख़िरकार, बेटों ने मिलकर फैसला किया—
"माँ-पापा, आपको एक अलग मकान ले देते हैं। वहीं आराम से रहिए।"
अलग मकान का मतलब था—शहर के पुराने मोहल्ले में एक छोटा सा किराए का घर।
न पानी की सही सुविधा, न साफ-सफाई।
पर रामलाल और शांति ने कुछ नहीं कहा।
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7. टूटते रिश्ते
रात को शांति चुपचाप आँसू पोंछती।
"हमने भूखे रहकर इन्हें पढ़ाया, और आज ये हमें बोझ समझते हैं?"
रामलाल बस खिड़की से बाहर देखते हुए कहता—
"शायद यही जमाना है, शांति। अब माँ-बाप की जगह बच्चों के दिल में नहीं, वृद्धाश्रम में है।"
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8. आख़िरी वार्तालाप
ठंडी सर्दी की एक रात थी।
शांति को तेज़ बुखार हो गया। दवा के पैसे नहीं थे।
रामलाल ने बेटों को फ़ोन किया—
"बेटा, माँ की तबियत ठीक नहीं है।"
अजय ने कहा—"पापा, मैं मीटिंग में हूँ, कल देखूँगा।"
विजय बोला—"अभी बिज़नेस में बहुत व्यस्त हूँ पापा, दवा आप पास की दुकान से ले लीजिए।"
रामलाल ने पास के मेडिकल से उधार दवा ली।
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9. विदाई
सुबह होते-होते शांति ने रामलाल का हाथ पकड़ा—
"अब मैं थक गई हूँ… तुम अकेले संभाल लेना।"
उसकी आँखें धीरे-धीरे बंद हो गईं।
रामलाल अकेला रह गया।
बेटे अंतिम संस्कार में आए, लेकिन जल्दी लौट गए।
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10. अंत में
अब रामलाल अपने छोटे से कमरे में बैठकर हर शाम खिड़की से बाहर देखता है।
बारिश की हर बूंद उसे शांति की याद दिलाती है।
वो बड़बड़ाता है—
"हमने जिनके लिए सब किया… वही हमें भूल गए।"
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💔 सीख:
माता-पिता अपने बच्चों के लिए ज़िंदगी का हर सुख त्याग देते हैं।
लेकिन अगर बच्चे उनका सहारा बनने के बजाय उन्हें बोझ समझने लगें, तो ये सिर्फ़ माता-पिता की नहीं, बल्कि समाज की भी हार है।