राजकुमार पृथ्वीराज ने गंभीरी नदी के मैदान में हुए युद्ध में सूरजमल और सारंगदेव को प्राण बचाकर भागने पर विवश कर दिया। इसके बाद पृथ्वीराज जैसे हाथ धोकर ही उनके पीछे पड़ गए और वे दोनों जहाँ भी जाते, वह उनके पीछे पहुँच जाते और उन्हें खदेड़ देते। सूरजमल और सारंगदेव इतने भयभीत हो गए थे कि उन्होंने बाटरड़ा के वनों में शरण ली, परंतु पृथ्वीराज ने यहाँ भी उनका पीछा नहीं छोड़ा और यहाँ हुए युद्ध में सारंगदेव पृथ्वीराज के हाथों मारा गया। सूरजमल को वहाँ से भी प्राण बचाकर भागना पड़ा और वह अपनी पत्नी के घर जा छुपा। पृथ्वीराज वहाँ भी चले आए और उसके घर उससे मिले।
‘‘कुमार, यहाँ भी आ गए।’’ सूरजमल हताश स्वर में बोला, ‘‘अब मैं कहाँ जाऊँ ? यह ससुराल ही मेरी अंतिम शरणस्थली है।’’
‘‘काका, मैं कहीं भी तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ूँगा। जब आप चारों ओर से असहाय होकर मेरी शरण में आएँगे, तभी चैन पाएँगे।’’ पृथ्वीराज ने कहा।
‘‘अंततः तो यही कहना होगा।’’
‘‘अंततः कब, अभी क्यों नहीं?’’
‘‘असहाय तो मैं हो ही गया। अब तो बस स्वास्थ्य लाभ की इच्छा से यहाँ आया था, परंतु तुमने यहाँ भी चैन न लेने दिया।’’
‘‘काका, चित्तौड़ में आप मेरे शरणागत रहेंगे, मेरे सामने रहेंगे तो जीवन में सुख का अनुभव करेंगे। भले ही शासक न रहें, परंतु जीवित रहेंगे।’’
‘‘अब तो यही लगता है, कुमार! आप अपने शत्रु को अपने साथ रखेंगे?’’
‘‘अपनी निगरानी में रखूँगा तो धोखे से वार करने की तथा शत्रुओं से मिल जाने की आशंका तो समाप्त हो जाएगी।’’
‘‘फिर ठीक है। मैं सहर्ष तैयार हूँ। क्यों कष्ट उठाता फिरूँ?’’
‘‘हृदय से कह रहें हैं या अभी भी कोई पैंतरा शेष है?’’
‘‘माता चारणी की सौगंध, हृदय से कह रह हूँ। तुम्हारा भाग्य चरमोत्थान पर है, ऐसे में तुमसे शत्रुता करके जीवन को कष्टों में धकेलना उचित नहीं। तुम्हारा दयापात्र भी बना रहूँ तो बहुत है।’’
‘‘ठीक है काका, अभी कुछ दिनों तक आप स्वास्थ्य लाभ करें, फिर चित्तौड़ आ जाइएगा।’’ पृथ्वीराज ने उठकर कहा, ‘‘अब मैं चलता हूँ।’’
‘‘अरे युवराज! आप ऐसे कैसे चले जाएँगे!’’ तभी सूरजमल की पत्नी वहाँ आ गई, ‘‘पहली बार आप हमारे घर आए हैं। शत्रुता काका से है, काकी से तो नहीं। भोजन किए बिना तो न जाने दूँगी। इतना अधिकार तो मेरा भी बनता है।’’ पृथ्वीराज ने कुछ क्षण सोचा और स्वीकृति दे दी। सूरजमल की पत्नी खुश होकर भोजन बनाने चली गए और पृथ्वीराज बैठ गए।
‘‘साँगा श्रीनगर में हैं। वे राजा राव कर्मचंद के जामाता बन गए हैं। अपने बल और बुद्धि के प्रयोग से राव कर्मचंद के विशेष स्नेहपात्र हैं।’’ सूरजमल ने बताया, ‘‘श्रीनगर की सेना को नियमित युद्ध-प्रशिक्षण देते हैं।’’
‘‘ओह! इसका अर्थ तो यह हुआ कि वह तैयारी कर रहे हैं। आपके बाद उसकी भी सुधि लेता हूँ। श्रीनगर को अपने शत्रु को शरण देने का दंड दूँगा।’’ पृथ्वीराज ने कहा।
‘‘जो भी हुआ, उसे भूल जाओ तो मेवाड़ के हित में होगा। साँगा तुम्हारे भाई ही हैं। उनसे संधि कर लो और उनकी शक्ति का प्रयोग अपने साम्राज्य विस्तार में करो। यह राय मैं हृदय से दे रहा हूँ। साँगा बहुत महान् पराक्रमी योद्धा हैं। उनसे युद्ध करने से कोई लाभ नहीं होने वाला।’’
‘‘उसकी राय आपके ही किसी काम नहीं आई तो मेरे किस काम आएगी? चोट खाए सिंह पर विश्वास मैं नहीं करता।’’
सूरजमल ने बहुत समझाया, परंतु पृथ्वीराज अपने निश्चय से टस-से मस न हुए। बहुत देर तक इसी विषय पर वार्त्तालाप होता रहा और फिर काकी भोजन के दो थाल लेकर आ गई। उन्होंने एक थाल सूरजमल के सामने और दूसरा पृथ्वीराज के सामने रखा।
‘‘काका, आज से हम शत्रुता समाप्त करते हैं। मैं आपको भेंसरोड परगना वापस दे ही देता हूँ। आप भी हमारे अपने ही हैं।’’ पृथ्वीराज ने कहा, ‘‘और इस मित्रता का आरंभ हम आज से ही करते हैं। यह लीजिए...।’’
पृथ्वीराज ने अपनी थाली में से रोटी का एक कौर तोड़कर सूरजमल के मुँह की ओर बढ़ाया, जिसने डबडबाई आँखोंसे अपने मन की कलुषिता समाप्त होने का संकेत दिया। उसने कौर की ओर मुँह बढ़ाया ही था कि उसकी पत्नी ने उस कौर को अलग फेंक दिया।
‘‘काकी! यही आशंका मुझे भी थी। काका की सोहबत में रहकर आप इतना तो सीख ही गई हैं, यह मैं भी जानता हूँ। अपना भोजन आप ही खाएँ।’’
‘‘तूने...तूने युवराज के भोजन में विष मिलाया?’’ सूरजमल क्रोधित हो उठा। पत्नी कुछ न बोली। वह मुँह फेरकर खड़ी हो गई।
‘‘रहने दीजिए काका! आपकी पत्नी आपके शत्रु पर ऐसे ही स्नेह न दिखातीं तो इनका पतिव्रत धर्म कैसे प्रकट होता? मैं चलता हूँ । स्वस्थ हो जाएँ तो चित्तौड़ आ जाइएगा, अन्यथा अगली बार आपको बंदी बनाकर ले जाऊँगा।’’
इतना कहकर पृथ्वीराज वहाँ से चले आए और अपने साथियों सहित उन्होंने कांठल वन में कुछ दिन प्रवास किया। यहीं उन्होंने श्रीनगर पर आक्रमण करके शत्रु साँगा को समाप्त करने का विचार बना लिया और सैन्य-तैयारी करने लगे। उन्होंने अपने गुप्तचर श्रीनगर भेज दिए, जिससे वहाँ की सुरक्षा एवं शक्ति का पूर्व ज्ञान कर सके।
पृथ्वीराज ने यह दृढ निश्चय कर लिया था कि वह साँगा को जीवित न छोड़ेंगे, इसी समय उनको अपनी बहन हरकँवर का पत्र मिला। हरकँवर सिरोही के राव जगमल को ब्याही गई थी, जो एक विलासी, अहंकारी, लालची और मेवाड़ पर कुदृष्टि रखने वाला व्यक्ति था। जब मेवाड़ पर उत्तराधिकारी का संकट आया था तो उसने स्पष्ट अपनी पत्नी से कहा था कि जामाता होने से मेवाड़ पर उसका अधिकार बनता है, जब पृथ्वीराज उत्तराधिकारी बनकर लौटे तो राव जयमल ईर्ष्या से जल गया। उसने अपनी ईर्ष्या को हरकँवर को प्रताडि़त करने में खर्च किया। उसकी प्रताड़ना अमानवीय हो चली थी, यह सब उस पत्र में लिखा था। पृथ्वीराज का क्रोध जाग उठा और उन्होंने अपने चुने हुए वीर साथी को लेकर राव जगमल को धर दबोचा। सोए हुए जगमल की गरदन पर तलवार रखकर उन्होंने उसे जगाया। सामने साक्षात् कालरूप पृथ्वीराज को देखकर जगमल मृत्यु के भय से काँप उठा। वह रोते हुए जीवन की भिक्षा माँगने लगा और सदैव के लिए उसका शरणागत होने का वचन देने लगा। पृथ्वीराज ने बहन हरकँवर पर निर्णय छोड़ दिया, जिसने अपने पति की जान बचा ली। पृथ्वीराज के कहने पर राव जगमल ने अपनी पत्नी के पैर पकड़कर क्षमा माँगी।
अगले दिन सुबह राव जगमल ने अपने अपमान का बदला ले ही लिया। उसने धोखे से पृथ्वीराज के भोजन में जहर मिला दिया। पृथ्वीराज को उसकी बहन ने भोजन परोसा था। उन्होंने प्रेम से भोजन किया। कुछ ही देर में विष ने अपना प्रभाव दिखाया और पृथ्वीराज की हालत बिगड़ गई। बहन ने घबराकर वैद्य को बुलाया, परंतु तब तक शूरवीर योद्धा पृथ्वीराज के प्राण पखेरू उड़ गए। बहन का रो-रोकर बुरा हाल हो रहा था। वह अपने पति को कोस रही थी और जगमल कुटिलता से हँस रहा था। पृथ्वीराज के साथी उनके शव को लेकर कुंभलगढ़ आए तो मेवाड़ में हाहाकार मच गया। जिस पृथ्वीराज की तलवार ने शत्रुओं को भयभीत कर दिया था, वह आज सबको निर्भय करके चला गया। चित्तौड़ के राजमहल में जैसे सन्नाटा पसर गया। महाराणा रायमल को गहरा आघात लगा और वह उपचाराधीन किए गए। मेवाड़ की प्रजा अपने वीर युवराज की असमय मृत्यु से दुःखी थी। जगमल के विश्वासघात ने एक बार फिर मेवाड़ पर संकट ला लिया था।
वीर पृथ्वीराज की पत्नी ताराबाई ने सोलह शृंगार करके अपने पति का शव गोद में रखा और शांत भाव से चिंता में बैठ गई। अग्नि ने उस वीर पत्नी को अपने आप में समाहित किया और वीर राजपूत क्षत्राणी तारा को सतियों के इतिहास में स्थान दिया।
मेवाड़ शोकाकुल हो उठा। सब आशाएँ ध्वस्त हो गईं।
यह सन् 1508 ई. का अंत चल रहा था। पृथ्वीराज की मृत्यु का समाचार चारों ओर फैल गया था। राजपूत रियासतों में शोक और तुर्क, अफगानों में खुशी की लहर दौड़ गई। एक प्रबल पराक्रमी शत्रु से पीछा जो छूट गया था।
साँगा को यह समाचार मिला तो उन्हें भी बहुत दुःख हुआ। पृथ्वीराज ने जिस प्रकार राजपूती शान का ध्वज फहराया था, सांगा को फिर से राजपूती शान अपने चार शताब्दी पहले के पुरुषार्थ की तरफ पहुँचाती लग रही थी, जब अजमेर के चौहान राजा पृथ्वीराज चौहान ने राजपूताने पर शासन किया। साँगा के ध्वस्त हुए उस स्वप्न ने अधिक पीड़ा पहुँचाई। राव कर्मचंद ने उनके दुःख को महसूस किया।
‘‘कुँवर, एक बार फिर मेवाड़ संकट में आ गया है। वीर पृथ्वीराज की धोखे से हत्या ने राणाकुल को फिर घोर दुःखों में धकेल दिया। अवश्य शत्रु मेवाड़ को राणाकुल से छीनना चाहते हैं। जिस मेवाड़ ने स्वतंत्र रहकर विदेशी शक्तियों का मान भंग किया है।’’ राव कर्मचंद ने कहा, ‘‘महाराणा रायमल इस समय घोर विपन्न और हताश अवस्था में शैया पर पड़े हैं। यह शत्रुओं के लिए आदर्श स्थिति है। अब केवल एक ही आशा शेष रह गई है, जो मेवाड़ और राजपूतों को इस भँवर से बचा सकती है और वह तुम हो कुँवर संग्राम सिंह, केवल तुम! आज मेवाड़ का रिक्त सिंहासन किसी ऐसे रक्षक की प्रतीक्षा आतुरता से कर रहा है, जो राजपूताने के गौरव को अक्षुण्ण रखे, अन्यथा वह दिन दूर नहीं, जब तुर्क या अफगान चित्तौड़ के राजमहल में अपवित्रता फैलाएँगे।’’
‘‘ऐसा दिन कभी नहीं आएगा।’’ संग्राम सिंह दहाड़ उठे, मेवाड़ की रक्षा में राणा अभी असमर्थ नहीं हो गए। संग्राम सिंह अपने मेवाड़ की भूमि पर तुर्क-अफगानों के अपवित्र कदम नहीं पड़ने देगा। आप हमारे चित्तौड़ जाने की तैयारी करें।’’
‘‘सब तैयारियाँ हो चुकी हैं कुँवर, यह शोक समाचार सुनते ही हमने जान लिया था कि अब तुम्हें मेवाड़ की सुरक्षा का दायित्च उठाना होगा। राजपूतों के गौरव को अब संग्राम सिंह की तलवार ही यथावत् रखेगी। चलो कुँवर, अपने शोकविह्विल पिता और परिजनों के साथ मेवाड़ की प्रजा को भी चलकर सांत्वना दो और उन्हें विश्वास दिलाओ कि मेवाड़ और राजपूत बिल्कुल सुरक्षित हैं।’’
संग्राम सिंह ने सहमति में सिर हिला दिया। राव कर्मचंद उन्हें साथ लेकर चित्तौड़ की ओर प्रस्थान कर गए। जब चित्तौड़ में यह समाचार पहुँचा कि राजकुमार साँगा जीवित हैं और वापस आ रहे हैं तो मेवाड़ भर में खुशी की लहर दौड़ गई। पृथ्वीराज की असमय मृत्यु का अपार कष्ट इस शुभ समाचार ने क्षण भर में दूर कर दिया। मूर्च्छित शैया पर पड़े महाराणा रायमल के कानों में इस स्वर ने जैसे अमृत ही उँड़ेल दिया।
सहसा तो उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि उनका प्रिय पुत्र साँगा जीवित है, पर जब साँगा ने उनके चरण स्पर्श किए तो जैसे उनके क्षीण शरीर में शक्ति आई।
‘‘साँगा...मेरा पुत्र, कहाँ चला गया था बेटा?’’ महाराणा रो पड़े।
‘‘दुर्भाग्य ने मुझे आप सबसे दूर कर दिया था पिताश्री। साँगा ने कहा, ‘‘अपनों के विश्वासघात ने इतना व्यथित कर दिया कि हृदय विरक्त हो उठा। ऐसे कठिन समय में मुझे श्रीनगर के महाराज राव कर्मचंदजी ने आश्रय और स्नेह दिया, जिसने मुझे इतना स्नेहपाश में बाँधा कि मैं चाहकर भी न लौट सका।’’
‘‘महाराज कर्मचंद, हम आपके अत्यंत आभारी हैं, जो आपने मेवाड़ की धरोहर की ऐसे रक्षा की।’’ महाराणा ने हाथ जोड़कर राव कर्मचंद से कहा, ‘‘हम तो आशा ही छोड़ चुके थे कि हमारा पुत्र जीवित लौटेगा, परंतु आज जब मेवाड़ को इसकी अत्यधिक आवश्यकता है, तब आपने इसे सौंपकर मेवाड़ पर उपकार किया है।’’
‘‘महाराणाजी, हम तो सदैव से ही मेवाड़ के सेवक रहे हैं।’’ राव कर्मचंद ने कहा, ‘‘यह तो कुँवर का अपना विचार था, अन्यथा हम तो बहुत पहले ही आपको इस समाचार से अवगत करा देना चाहते थे।’’
‘‘समय पर होने वाले कार्य का महत्त्व अतुलनीय हो जाता है महाराज, अब हम निश्चिंत होकर जीवन के अंतिम दिन पूरे कर सकेंगे। कुँवर साँगा के आने से मेवाड़ की रक्षा की चिंता अब हमें नहीं सताएगी। आपने हम पर जो उपकार किया है, वह हम नहीं चुका सकते, परंतु इस अवसर पर हम आपको प्रसन्न होकर एक जागीर प्रदान करते हैं।’’ महाराणा ने कहा।
‘‘मेरे प्रिय मेवाड़वासियो!’’ साँगा ने उच्च स्वर में कहा, ‘‘जीवन में सुख और दुःख का आवागमन लगा ही रहता है। इसी संघर्ष का नाम जीवन है। विधाता ने मेवाड़ को भी अनेक सुख-दुःख से आच्छादित रखा। समय-समय पर इस राजकुल को गंभीर आघात दिए, परंतु ये सब जीवन का हिस्सा हैं। राणा कुल आपकी सेवा में सदैव लगा रहेगा। मेरे अग्रज पृथ्वीराज ने मेवाड़ की यश पताका चारों ओर फैला दी और अब मेरा दायित्व है कि उनके कार्यों को आगे बढ़ाऊँ। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि आपकी रक्षा और मेवाड़ की सेवा में यदि मेरे प्राण भी चले जाएँ तो मैं पीछे नहीं हटूँगा। मेरी तलवार आप सबकी रक्षक बनेगी।’’
‘‘राजकुमार संग्राम सिंह की जय!’’ प्रजा ने जय जयकार किया।
महाराणा रायमल ने संग्राम सिंह की जय-जयकार सुनी तो उनकी आँखें भर आईं। यह तो वे जानते थे कि मेवाड़ की प्रजा कुँवर साँगा को बहुत प्रेम करती थी, परंतु यह प्रेम आज भी उतना ही है, यह जानकर उन्हें प्रसन्नता हुई। कुँवर साँगा ने अपने सभी दायित्व सँभाल लिए थे। उन्होंने सेना को संगठित किया और शत्रुओं को चेतावनी दी कि कोई यह न समझे कि राजकुमार पृथ्वीराज के न होने से मेवाड़ असुरक्षित हो गया है। अब मेवाड़ रक्षा में कुँवर संग्राम सिंह आ डटे हैं। कुदृष्टि डालने वालों की आँखें निकाल ली जाएँगी।
महाराणा रायमल को साँगा के कार्यों से संतुष्टि मिल रही थी, पर उनके निरंतर गिरते स्वास्थ्य में सुधार नहीं हो रहा था। दो युवा पुत्रों की असमय मृत्यु ने महाराणा को अधिक व्यथित किया और अंततः 1509 ई. के आरंभ में ही वे इस संसार से चल बसे। मेवाड़ पुनः शोकाकुल हो उठा।
4 मई, 1509 ई. को साँगा यानी महाराणा संग्राम सिंह मेवाड़ के सिंहासन पर बैठे। चित्तौड़ की राजगद्दी पर बैठते समय राणा संग्राम सिंह की आयु 27 वर्ष थी। चारणी माता की भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई।
राणा साँगा ने सिंहासन सँभालते ही कर्मचंद के सभी उपकारों को स्मरण करके उन्हें अजमेर रियासत भी पुरस्कार में दे दी और साथ ही उन्हें मेवाड़ के मुख्य सरदारों में भी शामिल कर लिया, फिर उन्होंने अपने भाई पृथ्वीराज द्वारा किए गए कार्यों का विस्तार किया। जो परगने अभी मेवाड़ को मिल नहीं पाए थे, वे राणा साँगा के पराक्रम से उनके अधीन हुए।
अब राणा साँगा की चुनौती सीमाओं को सुरक्षित करने की थी। मेवाड़ की सीमा से मालवा का खिलजी सुलतान, गुजरात का तुर्क सरदार और दिल्ली के अफगान लोदी आदि का शासन था। एक प्रकार से विदेशी सम्राटों से घिरा मेवाड़ दाँतों के बीच जीभ की तरह था और साँगा को केवल सीमाओं को ही सुरक्षित नहीं करना था, अपितु विदेशी शासन को भी उखाड़ फेंकना था। इस स्थिति को ये विदेशी शासक भी जानते थे। दिल्ली का अफगानी पठान शासक सिकंदर लोदी तो मेवाड़ को बढ़ते खतरे के रूप में जानकर सुरक्षा की दृष्टि से आगरा को अपनी राजधानी बना चुका था। राणा साँगा ने अपने सभी सीमावर्ती शत्रुओं का गहराई से अध्ययन किया और जाना कि अपनी धर्मांध नीतियों से दिल्ली का सुल्तान अपने शासन में विद्रोह को उत्पन्न कर चुका था और शेष कार्य उसका अत्याचारी उत्तराधिकारी इब्राहिम लोदी कर रहा था।
मालवा के उसके अयोग्य शासक नसिरुद्दीन खिलजी ने भी ऐसे कई गलत निर्णय लिये थे कि उसके सरदार उससे रुष्ट हो रहे थे। सन् 1511 ई. में नासिरुद्दीन की मृत्यु हो गई और उसका पुत्र महमूद मालवा का नया शासक बना। वह भी नाराज सरदारों की दृष्टि में अयोग्य ही था। इस प्रकार मालवा भी दुर्बलता और पतन के कगार पर खड़ा था।
गुजरात अवश्य शक्तिशाली राज्य था, जिसका शासक मुजफ्फरशाह बेगड़े था। गुजरात और मेवाड़ के बीच ईडर के राव भाव रिश्ते में राणा साँगा के मामा थे। राव भाव की मृत्यु के बाद सूरजमल ईडर का शासक बना, परंतु दुर्भाग्य से डेढ़ साल बाद ही उसकी मृत्यु हो गई और उसके स्थान पर उसका पुत्र रायमल गद्दी पर बैठा, जो नाबालिग था। भीममल ने उसे गद्दी से उतार फेंका और खुद शासक बन गया। इसके साथ ही रायमल ने अपने फूफा महाराणा रायमल की शरण ले ली, जो अभी तक मेवाड़ का शरगागत था। भीममल की मृत्यु भी हो गई और उसके बेटे भारमल ने गद्दी हथिया ली। अब ईडर का असली अधिकारी रायमल वयस्क था और राणा साँगा से आशा करता था कि वह अपने ममेरे भाई को उसका अधिकार दिलवा दे, क्योंकि भारमल ने गुजरात के शासक मुजफ्फरशाह से मित्रता कर रखी थी, अतः राणा साँगा को अपने ममेरे भाई के अधिकार के लिए उससे ही टकराना था।
राणा साँगा ने सभी स्थितियों पर विचार करके सन् 1514 ई. में ईडर का मामला सुलझाने का इरादा किया। अपने ममेरे भाई रायमल को बहुत बड़ी सैन्य-सहायता देकर राणा ने ईडर पर आक्रमण करके भारमल को वहाँ से भागने पर विवश कर दिया और रायमल को उसका अधिकार दिलाया। भारमल ने भागकर मुजफ्फरशाह बेगडे़ के यहाँ शरण ली और अपनी आपबीती सुनाई। मुजफ्फरशाह ने उसकी सहायता का वचन दिया और अपने एक सरदार निजामुलमुल्क को बड़ी सेना लेकर ईडर भेज दिया। रायमल इस सेना का सामना न कर सका और उसने भागकर अपने प्राण बचाए। राणा साँगा जान गए कि रायमल को स्थायी सहायता देनी चाहिए। उन्होंने अपनी पाँच हजार राजपूत अश्वसेना रायमल को स्थायी रूप से दे दी, जिसकी मदद से रायमल ने न केवल निजामुलमुल्क, बल्कि मुजफ्फरशाह के दो अन्य सरदारों को भी अलग-अलग युद्धों में हराकर महाराणा साँगा की जय-जयकार कर दी।
अब मुजफ्फरशाह बेगडे़ अपना धैर्य खो चुका था, परंतु वह राणा साँगा को कमतर आँकने की भूल करने वाला सुलतान नहीं था। उसने अपनी सैन्य क्षमता बढ़ाने का कार्य आरंभ किया।..