Maharana Sanga - 13 in Hindi Anything by Praveen Kumrawat books and stories PDF | महाराणा सांगा - भाग 13

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महाराणा सांगा - भाग 13

मेवाड़ की नवीन स्थिति पर चिंतन 

राव कर्मचंद ने साँगा के कहने पर मेवाड़ की वर्तमान जानकारी लेने के लिए दो गुप्तचर चित्तौड़ भेजे, जो कुछ दिनों के पश्चात् वापस लौटे।

 उन्हीं गुप्तचरों के द्वारा कुँवर साँगा को सारे घटनाक्रम का पता चला। उन्हें ज्ञात हुआ कि वहाँ आज भी मेवाड़ की जनता अपने प्रिय राजकुमार को याद करती है। यह भी पता चला कि वहाँ उन्हें किसी हिंसक जानवर द्वारा शिकार हो गया मान लिया गया है। इसके पश्चात् जयमल की हत्या से लेकर पृथ्वीराज के शुभ विवाह और उत्तराधिकारी की घोषणा के विषय में भी गुप्तचरों ने बताया। कुँवर साँगा ने गुप्तचरों को पुरस्कार देकर भेज दिया। 

‘‘समय का कुछ भी पता नहीं, जाने किस करवट ऊँट बैठे।’’ राव कर्मचंद ने गंभीर स्वर में कहा, ‘‘कहाँ तो पृथ्वीराज को देशनिकाला की सजा दी गई थी और कहाँ अब वही मेवाड़ का महाराणा बनने जा रहा है।’’ 

‘‘इसमें कुछ भी अनुचित नहीं महाराज, मेवाड़ का महाराणा तो उन्हें बनना ही था। दुर्भाग्य ने उसके मस्तक पर एक अमिट कलंक लगा दिया। मैंने उनसे हजार बार कहा था कि वही मेवाड़ के युवराज हैं और वही महाराणा बनेंगे, परंतु उनको तो माता चारणी की भविष्यवाणी ने भ्रमित कर दिया था। अब तो मुझे प्रतीत होता है कि जिस समय माता चारणी ने भविष्यवाणी की थी, उस समय वह पुजारिन किसी के आदेश पर, संभवतः जयमल के आदेश पर नाटक कर रही थी। उसने हम दोनों भाइयों को लड़ाकर ऐसी परिस्थिति उत्पन्न की कि जयमल के मार्ग के दोनों काँटे एक ही चाल में अलग निकल गए।’’

 ‘‘तुम्हारा सोचना ठीक हो सकता है। राजवंशों में ऐसे षड्यंत्र बहुधा देखने को मिले हैं। सत्ता का लोभ बड़ा बुरा होता है।’’

 ‘‘अब जो हुआ, उस पर विचार कैसा! जयमल ने जैसा बोया, वैसा काटा। उसे दंड मिल गया और भ्राता पृथ्वीराज को उनका अधिकार।’’ 

‘‘और कुँवर संग्राम को! तुम्हें क्या मिला, केवल गुमनामी का जीवन। क्या मेवाड़ पर तुम्हारा अधिकार न था? महाराणा न सही, किंतु हिस्सेदार तो तुम भी थे।’’

 ‘‘मुझे भाग्य ने आप जैसा स्नेही संरक्षक दे दिया, यही मेरे लिए बहुत है।’’ 

‘‘वीर पुरुष को ऐसा कहना शोभा नहीं देता। अपने अधिकार से वंचित होने पर राजपूत इस प्रकार विरक्त नहीं हो जाता।’’

 ‘‘परंतु जो अधिकार ऐसी अतंर्कलह उत्पन्न करे, जिससे माता की कोख भी लज्जित होने लगे, कुल का मान कम हो जाए तो ऐेसे अधिकार को भूल जाना ही श्रेयस्कर है। धन और सत्ता के लिए यह मुझे कतई स्वीकार नहीं।’’

 ‘‘तुम महान् आत्मा हो कुँवर, साधारण मनुष्य इतनी गुढ़ बात सोच भी नही सकता। मेरा तो विश्वास है कि माता चारणी ने जो भविष्यवाणी की, वह एक दिन अवश्य ही सत्य सिद्ध होगी। मेवाड़ का महाराणा कोई तुम जैसा वीर, धीर गंभीर और सत्पुरुष ही होना चाहिए। आज जबकि भारतवर्ष में अफगानों, तुर्कों और अन्य कई विदेशी शासकों ने जड़ें जमा ली हैं, अब हमें किसी ऐसे राजपूत नेतृत्व की आवश्यकता है, जो आर्य शासन की पुनर्स्थापना कर सके।’’

 ‘‘आप बहुत विशाल स्वप्न देख रहे हैं महाराज, आज राजपूतों की आपसी कलह, द्वेष और षड्यंत्रों ने आर्य शक्ति को छिन्न-भिन्न कर दिया है। आज तनिक से द्वेष से राजपूत सरदार आपस में लड़ते-मरते हैं और अफगानों की शरण में चले जाते हैं। इससे विदेशी शक्तियों को राजपूती शक्ति की कमजोरी का पता चल गया है और वे इसी का लाभ उठाते हैं।’’

 ‘‘कुँवर, यह सब कुशल नेतृत्व के अभाव के कारण ही तो है। मेवाड़ शक्ति का केंद्र है और एकमात्र ऐसा साम्राज्य है, जो राजपूतों को कुशल नेतृत्व दे सकता है। इसमें भी यह संभावना कुँवर संग्राम सिंह में ही दिखाई देती है, अन्य किसी में नहीं।’’ 

‘‘महाराज, इतनी बड़ी संभावना आप मुझमें न देखें। मैं अपना जीवन सादगी और सेवा में व्यतीत करने का इच्छुक हूँ। मैंने इस सत्ता के षड्यंत्रों को बहुत समीप से देखा है और इसके कुप्रभावों को भी सहा है। मेरी माता ने कितना कुछ सहा होगा, यह मैं ही जानता हूँ। अब मैं फिर से अपनी माता को उसी कष्ट में नहीं धकेलना चाहता। जिस कष्ट को भूलकर मेरे माता-पिता अब अपने जीवन में खुशियों का पदार्पण करने जा रहे हैं, मैं उसे पुनः कुरेदना नहीं चाहता।’’ कुँवर साँगा ने कहा।

 ‘‘तुम धन्य हो। वह जननी धन्य है, जिसने तुम्हारे जैसे सत्पुरुष को जन्म दिया, जिसकी तलवार चाहे तो पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक राजपूती साम्राज्य का डंका बजा दे, फिर भी वह सादगी में विश्वास रखता है। ऐसे शत्रु भंजन वीर मेरा शत-शत प्रणाम! 

‘‘महाराज, अब आप मुझे लज्जित कर रहे हैं।’’

 ‘‘नहीं कुँवर! मैं उस शूरवीर का गुणगान कर रहा हूँ, जिसने त्याग, शौर्य, धैर्य और क्षमा का अद्भुत उदाहरण दिया है। मैं अपने आपको बड़ा ही सौभाग्यशाली मानता हूँ , जो विधाता ने तुम्हें मेरी रियासत में भेजा।’’ 

कुँवर साँगा ने कुछ न कहा। उन्हें अपनी प्रशंसा भी नहीं सुहाती थी।

 राव कर्मचंद ने इस बात का अनुभव किया और इस वार्त्ता पर विराम लगा दिया। 

********

पृथ्वीराज का षड्यंत्रकारी सूरजमल से सामना 
पृथ्वीराज के प्रयास सफल रहे और उसके राजहित में किए गए कार्यों का पुरस्कार उनकी मेवाड़ वापसी से मिला। उसकी साधना भी फलीभूत हुई और योजना भी। अपने जा चुके अधिकार को वापस पाकर उसका मनमयूर नाच उठा। जब वह कुंभलगढ़ लौटे तो उनका भव्य स्वागत किया गया। ‘युवराज पृथ्वीराज की जय हो’ के जयकारों से चित्तौड़ गुंजायमान हो उठा। माता-पिता, परिवारजन, प्रजा ने उसे सिर आँखों पर बिठाया और बीते हुए कष्ट भुला देने के संकेत दिए। चित्तौड़ में दो दिनों तक यह उत्सव चलता रहा। 

युवराज पृथ्वीराज ने काका सूरजमल से भेंट की। दोनों के नेत्र मिले। पृथ्वीराज विजयी मुसकराहट से उसे देख रहा था, जबकि सूरजमल के मुख पर झेंपने के भाव थे।

 ‘‘काका प्रणाम स्वीकार करें।’’ पृथ्वीराज ने कहा।

 ‘‘चिरंजीव रहो युवराज पृथ्वीराज।’’ 

‘‘आपका स्वास्थ्य कैसा है काका? कुछ अस्वस्थ से लग रहे हैं। यह मेरे लौट आने से चढ़ा बुखार है या असंतुलित भोजन खाने से ऐसा हो रहा है?’’

 ‘‘तुम्हारे आने से मुझ पर क्या प्रभाव पड़नेवाला है कुमार? यह तो दाँवपेंच की बात है और भाग्य का खेल है। तुम तो जन्म से मेवाड़ के उत्तराधिकारी थे और तुम्हें वह अधिकार मिल गया है। हम तो कल भी शरणागत थे और अब भी शरणगत ही हैं।’’ सूरजमल ने संयत होकर कहा।

 ‘‘साँगा का क्या समाचार है काका?’’

 ‘‘तुम तो दूर-दूर तक भटके फिरे हो। क्या तुम्हें कहीं कोई भनक नहीं लगी?’’ 

‘‘नहीं लगी, न मुझे इतना समय मिला और न ही मैंने आवश्यकता समझी।’’ 

‘‘आवश्यकता तो है कुमार, यह राज्यारोहण निष्कंटक रखना है तो इस ओर से निश्चिंत न होना। यह सूरजमल नहीं है, जो अवसर देखेगा। वह साँगा है, समझे।’’

 ‘‘अर्थात् वह अभी जीवित है।’’ 

‘‘सिंह घायल हो जाता है तो शिकारी को यह भ्रम नहीं पालना चाहिए कि वह कुछ दूर जाकर मर जाएगा। उसकी जीवटता चट्टानों से भी दृढ होती है। इतनी सरलता से उसके प्राण नहीं निकलते।’’

 ‘‘कहाँ है वह? लौटा क्यों नहीं?’’

 ‘‘लौटेगा, समय आने पर आएगा। अभी क्या महाराणा से आकर हिसाब लेता। उसका हिसाब तो तुमसे है। भूल नहीं गया वह।’’

 ‘‘मैंने इस सिंहासन के लिए बहुत कष्ट सहे हैं काका! अब मैं इसमें किसी को सुई भर का भी हिस्सेदार नहीं होने दूँगा।’’

 ‘‘किसी भ्रम में न रहना कुमार, उसकी शक्ति व साधन सब सुदृढ हैं। तूफान की भाँति वह तुम्हारे स्वप्न को खंड-खंड करने का साहस रखता है।’’

 ‘‘कहाँ है वह? मैं उसे वहीं जाकर समाप्त कर दूँगा।’’ 

‘‘पहले खोज तो लो।’’

 ‘‘आप नहीं बताएँगे?’’

 ‘‘यही तो एक ऐसा वचन होगा, जो युवराज पृथ्वीराज के क्रोध से मेरी रक्षा कर सकेगा। हाँ, इतना अवश्य है कि जिस दिन तुम महाराजा बनोगे, मैं तुम्हें उसका पता बता दूँगा, तब तक तुम धैर्य रखो और मेरे प्रति क्रोध को शांत रखो।’’

 ‘‘काका! आपसे ही यह दाँवपेंच सीखे हैं। अतः आपको तलवार के एक ही वार से समाप्त नहीं कर सकता। आपसे तो मुझे बहुत खेलना है।’’ 

‘‘कुमार, तुम्हारा जोश ठीक है, परंतु चुनौती उचित नहीं। तुम अब सामर्थ्यवान् हो। चाहो तो अभी मुझे समाप्त कर सकते हो, किंतु यह शरणागत की हत्या होगी।’’ 

‘‘यह पाप तो अब नहीं करूँगा काका! जीवित तो तुम्हें रहना होगा, जिससे तुम ही क्षण में अपनी योजना को ध्वस्त होते देखो और मेरे सिर पर महाराणा का मुकुट देखकर तुम्हें अनुभव हो कि अधिकार और षड्यंत्र में अधिकार की शक्ति अधिक होती है।’’ 

‘‘यह सब तो समय के गर्भ में छुपा है कुमार!’’

 ‘‘जयमल को रास्ते से कैसे हटाया काका?’’ पृथ्वीराज ने प्रश्न किया। 

‘‘मैं क्यों? वह तो बदनोर में जाकर मारा गया’’ सूरजमल ने कुटिलता से कहा। 

‘‘उसे बदनोर जाने की क्या आवश्यकता थी? सीधा सेना लेकर टोडा जाता और अफगानों को वहाँ से भगा देता।’’ 

‘‘न जाता तो तुम्हारी वापसी का मार्ग कैसे प्रशस्त होता?’’

 ‘‘मेरी वापसी तो संयोग से हुई है। वास्तव में तो आप अपना मार्ग प्रशस्त कर रहे थे। कैसे किया? आपस में क्या छुपाना?’’ 

‘‘मेरे भाग्य की विडंबना रही कि मैंने अपने लिए योजनाएँ बनाईं, किंतु लाभ औरों को ही मिला। साँगा को मेवाड़ से दूर किया तो वह आनंद से रह रहा है। तुम्हें दूर किया तो जयमल ने बाधा डाल दी। जयमल को हटाया तो तुम्हें लाभ मिला।’’

 ‘‘सेवक हो काका! सेवक ही रहोगे।’’ पृथ्वीराज हँसा, ‘‘जयमल को आपने ही बहलाकर बदनोर उस राजउद्यान में भेजा था।’’

 ‘‘हाँ और राव सुरतान तक सूचना भी मेरे ही गुप्तचर ने दी तथा साँसला रतन सिंह भी मेरे अनन्य मित्रों में से था, जो कि दुर्भाग्य से मारा गया।’’ 

‘‘एक बात तो माननी पड़ेगी काका! आप इस खेल के माहिर खिलाड़ी हैं। दाएँ हाथ से शिकार करते हैं तो बाएँ हाथ को पता भी नहीं चलता। आपने इस राजमहल में भूचाल ला दिया, परंतु किसी को कानोकान खबर तक न हुई। मैं भी आपका सहयोगी न रहा होता तो कभी न जान पाता कि मेवाड़ के षड्यंत्रों में किसका हाथ है?’’

 ‘‘क्या लाभ हुआ कुमार, क्या मिल गया मुझे? कुछ भी तो नहीं, फिर षड्यंत्र भी मैंने तो नहीं रचे। मैं तो सहायक भर रहा। तुम्हारा भी और जयमल का भी। अपने लाभ को तुम्हारे षड्यंत्रों में खोजता रहा, जो कि कहीं था ही नहीं। यदि महाराणा ने तुम्हें मृत्युदंड दिया होता तो आज स्थिति कुछ और होती। मैं इसी दिन के लिए शंकित था।’’

 ‘‘काका! यदि महाराणा को ज्ञात हो जाए कि अब तक हुई उथल-पुथल में आपका हाथ था तो कैसा रहेगा?’’

 ‘‘कुमार, मेरा जीवन ही मृत्यु के भय में व्यतीत हुआ है और जब मेरे पिता पर बिजली टूटी थी तो मैं जान गया था कि बुरे कार्य का परिणाम भी बुरा ही होता है। मैं तभी से ऐसे कार्यों से बचता फिरता था। महाराणा ने मुझे शरण दी तो मैं पूरी तरह से राजभक्त हो गया, परंतु जब तुम भाइयों में सिंहासन की प्रतिस्पर्धा देखी तो मैं भी इसमें शामिल हो गया। अब तुम्हीं बताओ, मेरी गलती क्या है? जो तुमने किया, वही मैंने किया, फिर दंड का भय मुझे क्यों दिखाते हो?’’ 

‘‘काका! आप भयभीत न हों। मैं महाराणा को आपकी वास्तविकता नहीं बताऊँगा। मुझे तो भाग्य ने फिर से अवसर दिया है। अतः मैं इतना निष्ठुर नहीं हो सकता कि आपका अहित करूँ। मेरी सफलता में आपका योगदान है। इसका पुरस्कार मैं आपको आपका जीवन दे रहा हूँ और यदि आप वचन दें कि मेरे प्रति वफादार रहेंगे तो यह पुरस्कार लंबे समय तक आपको मिलता रह सकता है।’’ 

‘‘मेरे वचन पर पृथ्वीराज को विश्वास होना कठिन है कुमार! मैं ठहरा एक अवसरवादी, वचन भी दूँ तो विश्वास पैदा नहीं कर सकता।’’ 

‘‘आपकी यह स्वीकारोक्ति मुझे अच्छी लगी। अब कम-से-कम यह तो स्पष्ट हुआ कि आप मेरे साथ नहीं तो मेरे विरुद्ध भी नहीं हैं।’’ 

‘‘तुम मेवाड़ के उत्तराधिकारी हो कुमार, तुम्हारे विरुद्ध रहकर मुझे प्राण नहीं गँवाना। तुम्हारा विश्वास मैं प्राप्त नहीं कर सकता। अतः अब तो सब समय पर छोड़ा जा रहा है।’’

 ‘‘ठीक है काका! जब भी मुझे लगा कि आप मेरे विरुद्ध कुछ सोच रहे हैं तो वही दिन आपका अंतिम दिन होगा।’’