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मैं महत्वपूर्ण नहीं हूँ: बरगद की कहानी
गाँव के बीचों-बीच, पुराने मंदिर के पास, एक प्राचीन बरगद खड़ा था। उसकी जड़ें धरती के भीतर ऐसे फैली थीं, जैसे धरती की धमनियाँ हों, जो पूरे गाँव को चुपचाप थामे हुए थीं। शाखाएँ इतनी फैली थीं कि गर्मियों में चौराहे पर किसी को धूप छू भी नहीं पाती।
गाँव वाले उसकी छाँव में बैठकर दिन भर बातें करते, बच्चे डालियों से झूलते, और पक्षी पत्तों में घोंसले बनाते। लेकिन बरगद के भीतर एक अनसुनी फुसफुसाहट हमेशा गूंजती रहती — “मैं महत्वपूर्ण नहीं हूँ।”
बरगद का बचपन और वह स्क्रिप्ट
बरगद ने यह सोच बचपन में ही अपना ली थी। जब वह एक छोटा पौधा था, बरसाती तूफानों ने उसे बार-बार झकझोरा। तेज हवाओं ने उसकी कोमल डालियाँ तोड़ डालीं, और कभी-कभी बच्चे खेलते-खेलते उसके पत्ते नोच लेते। एक बार एक चरवाहा बोला था — “अरे, ये तो बस एक छोटा-सा पौधा है, पता नहीं बचेगा भी या नहीं।”
ये शब्द जैसे मिट्टी में घुलकर उसकी जड़ों में उतर गए। उसके भीतर एक अदृश्य स्क्रिप्ट बन गई — “मैं बस यहाँ हूँ, पर मेरी कोई अहमियत नहीं।”
वह देता रहा, खुद को भूलकर
बरगद बड़ा हुआ। उसकी शाखाएँ गाँव के आधे आकाश को ढकने लगीं। उसने सभी को छाँव दी, बारिश से बचाया, मिट्टी को बहने से रोका।
गाँव की हाट उसके नीचे लगती, कहानियाँ और गाने उसकी छाँव में गूंजते। पर उसके दिल में वही पुरानी आवाज़ दबे स्वर में बोलती रही — “तू तो बस एक पेड़ है… तेरी जगह कोई और भी ले सकता है।”
साधु का आगमन
एक तपती दोपहर, जब धूप इतनी तेज़ थी कि पक्षी भी चुप थे, एक थका यात्री वहाँ पहुँचा। वह लंबा चोगा पहने, पैरों में धूल भरे रास्ते का निशान लिए बरगद के नीचे आकर बैठ गया।
यात्री ने चारों ओर देखा — जड़ें मिट्टी को मजबूती से पकड़ रही थीं, जिससे बरसात में गाँव बाढ़ से बचा रहता। शाखाएँ इतने पक्षियों का घर थीं कि मानो पूरा आकाश गा रहा हो। छाँव इतनी गहरी थी कि गर्मी का नामो-निशान नहीं।
यात्री मुस्कुराया और धीमे से बोला — “बरगद, तू इस गाँव का दिल है। तेरा होना ही इसकी ताक़त है।”
बरगद के पत्ते हल्के से हिले। यह वाक्य उसके लिए अनसुना था, जैसे किसी ने पहली बार उसकी असली पहचान देखी हो।
पहली बार खुद को देखना
साधु ने आगे कहा — “तेरी जड़ें मिट्टी को बाँधती हैं, तेरी शाखाएँ जीवन को आश्रय देती हैं, और तेरी छाँव शांति देती है। तू कोई साधारण पेड़ नहीं—तू गाँव की आत्मा है।”
बरगद ने पहली बार अपनी जड़ों को गौर से देखा — टेढ़ी-मेढ़ी, पर मजबूत और अडिग। उसने अपनी शाखाओं को देखा — फैली हुई, सैकड़ों जीवों को आश्रय देती हुई।
उसकी पुरानी स्क्रिप्ट—“मैं महत्वपूर्ण नहीं हूँ”—में दरार पड़ गई।
मौसम बदलते हैं, नजरिया बदलता है
ऋतुएँ बदलीं। बरगद ने महसूस किया कि बच्चों की हँसी उसकी छाँव में और गूँजने लगी है। बुज़ुर्गों की कहानियाँ दूर तक फैलती हैं, मानो जड़ें ज़मीन ही नहीं, दिलों को भी जोड़ रही हों।
अब जब भी कोई थका-मांदा उसकी छाँव में बैठता, बरगद सोचता — “मेरी जगह कोई और नहीं ले सकता।”
तूफ़ान और परीक्षा
एक रात, भयंकर तूफ़ान आया। आकाश गरजा, बिजली कड़की, और हवा इतनी तेज़ थी कि छप्पर उड़ने लगे। गाँव काँप रहा था।
पर बरगद अपनी जगह डटा रहा। उसकी जड़ें मिट्टी को थामे थीं, उसकी शाखाएँ घरों को हवा से बचा रही थीं।
सुबह जब तूफ़ान थमा, गाँव वाले बरगद के नीचे जमा हुए। उनकी आँखों में कृतज्ञता थी — “तूने हमें बचाया।”
नई पहचान
बरगद की शाखाएँ ऊँची उठीं, मानो आकाश को छूना चाहती हों। अब वह “मैं महत्वपूर्ण नहीं हूँ” नहीं कहता था। वह दृढ़ खड़ा था — “मैं हूँ, और मैं पर्याप्त हूँ।”
उसकी जड़ें और गहरी हुईं, छाँव और चौड़ी, और उसने गाँव के रक्षक की भूमिका को गले लगाया। वह स्क्रिप्ट, जो उसे बाँधे रखती थी, अब टूट चुकी थी। उसकी जगह एक शांत विश्वास था — हर जड़, हर पत्ता, हर पल महत्वपूर्ण है।
मनोवैज्ञानिक संदेश
यह कहानी ट्रांजैक्शनल एनालिसिस में वर्णित “मैं महत्वपूर्ण नहीं हूँ” स्क्रिप्ट का प्रतीक है—एक पैटर्न जो बचपन की अस्वीकृति या चोट से जन्म लेता है। बरगद की तरह, हममें से कई लोग अपने योगदान को कम आंकते हैं, जब तक कि कोई हमें हमारी असली कीमत न दिखा दे।
उपाय
भरोसेमंद मित्र, गुरु या मनोवैज्ञानिक से प्रतिक्रिया लेना
डायरी लिखकर अपने छोटे-छोटे योगदान नोट करना
हर छोटी उपलब्धि को स्वीकारना
प्रकृति को शिक्षक मानना—पेड़ की स्थिरता या नदी की निरंतरता से प्रेरणा लेना
मातृभारती के लिए उपयुक्तता
यह कहानी भारतीय सांस्कृतिक प्रतीक (बरगद) को मनोवैज्ञानिक गहराई के साथ जोड़ती है। यह प्रेरणादायक, भावनात्मक और आत्म-चिंतनशील है—मातृभारती के उन पाठकों के लिए एकदम सही, जो कहानियों में जीवन का सबक तलाशते हैं।kk