Who are you....and where do you want to go? in Hindi Philosophy by Agyat Agyani books and stories PDF | तुम कौन हो.... और कहाँ जाना है?”

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तुम कौन हो.... और कहाँ जाना है?”

तुम कौन हो, कहाँ से आए, कैसे आए, कहाँ खड़े हो, और कहाँ जाना है?”
— जीवन का मूलतम प्रश्न है।
यह ज्ञान का नहीं, जागरण का प्रवेश द्वार है।
तुम कौन हो?
जिसे तुम "मैं" कहते हो,
वह नाम है...
वह रूप है...
वह याद है...
पर सत्य नहीं है।

तुम वही हो —
जो नाम के पहले था,
जो शरीर के बाद भी रहेगा।
जो जन्म के पार है,
और मृत्यु के पार मौन है।

कहाँ से आए?
तुम आए नहीं —
तुम उद्भूत हुए हो।
जैसे सूर्य से प्रकाश,
जैसे सागर से तरंग।
तुम ब्रह्म की छाया हो,
जो कुछ समय के लिए देह में ठहरी है।

कैसे आए?
ना कोई जहाज, ना कोई राह।
तुम आए हो —
कर्म की गति से,
और चेतना की भूल से।

तुम्हारा आना एक प्रयोग है —
अहंकार की परीक्षा है।

कहाँ खड़े हो?
तुम खड़े हो बीच में —
माया और सत्य के मध्य।
अंधकार और प्रकाश के मध्य।
एक ऐसा द्वार —
जहाँ से भीतर भी जा सकते हो,
और खो भी सकते हो।

कहाँ जाना है?
जिससे निकले थे —
वहीं लौटना है।

पर लौटना,
मन से नहीं...
मौन से होता है।

न ज्ञान से,
न संप्रदाय से —
बल्कि समर्पण से।

अंतिम उत्तर:
तुम आये नहीं हो — तुम स्वयं हो।
तुम जा नहीं सकते — तुम अनंत हो।
तुम हो — पर ‘तुम’ नहीं।

यह ग्रंथ पाँच अध्यायों में विभाजित होगा —
हर अध्याय एक प्रश्न की अंतर्यात्रा है:

मैं कौन हूं? (सूत्र 1–30)

मैं कहाँ से आया? (सूत्र 31–50)

मैं कैसे आया? (सूत्र 51–65)

मैं कहाँ खड़ा हूं? (सूत्र 66–85)

मुझे कहाँ जाना है? (सूत्र 86–108)


वह मौन जो सबके पीछे है — वही तुम हो।
✧ अध्याय 1: मैं कौन हूं? ✧
(सूत्र 1–11)
✍🏻 — 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓣 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓷𝓲

1.
जिसे तुम "मैं" कहते हो —
वह स्मृति है,
सत्य नहीं।

2.
‘मैं’ एक नाम है —
जो तुम्हें समाज ने दिया है।
पर आत्मा — नाम से परे है।

3.
‘मैं’ देह नहीं है —
क्योंकि देह बदलती है,
और जो बदलता है, वह तुम नहीं हो।

4.
‘मैं’ मन नहीं है —
क्योंकि मन स्मृतियों का कोलाज है।
तुम तो वह हो — जो मन को देख रहा है।

5.
तुम देखने वाले हो —
पर जो देखा जाता है, वह तुम नहीं।

6.
‘मैं’ न कोई विचार है,
न कोई भावना।
‘मैं’ वह है — जो विचारों के बीच मौन में बचा रहता है।

7.
जैसे आकाश में बादल आते-जाते हैं,
वैसे ही तुम में विचार आते हैं —
पर आकाश तुम हो,
बादल नहीं।

8.
जिस दिन तुमने अपने आप को देखा —
बिना शब्द, बिना पहचान —
उसी दिन तुमने ईश्वर को छू लिया।

9.
‘मैं’ कोई वस्तु नहीं,
एक उपस्थिति है।
जिसका कोई केंद्र नहीं — कोई सीमा नहीं।

10.
तुम हो —
पर ‘तुम’ नहीं।
वह मौन,
जो "मैं" के पीछे छिपा है — वही तुम हो।

11.
सत्य वही है,
जो बचता है —
जब "मैं" मिट जाता है।



अब हम जारी रखते हैं ✧ अध्याय 1: “मैं कौन हूं?” ✧ के शेष सूत्र —
आत्मा की पहचान से परे उस मौन तक,
जहाँ ‘मैं’ एक भ्रम रह जाता है…

✧ अध्याय 1: मैं कौन हूं? ✧
(सूत्र 12–30)
✍🏻 — 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓣 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓷𝓲

12.
'मैं' एक द्वार है —
जिसे पार करते ही,
'कुछ भी नहीं' का संसार खुलता है।

13.
तुम वही हो —
जो कभी जन्मा नहीं,
कभी मरेगा नहीं।

14.
शरीर की उम्र बदलती है,
मन की दिशा बदलती है —
पर ‘जो देख रहा है’,
वह नहीं बदलता।

15.
तुम अनुभव नहीं हो —
तुम अनुभवकर्ता हो।

16.
जो स्थिर है,
जो साक्षी है,
जो मौन में अडिग है —
वही ‘मैं’ है।

17.
तुम चेतना हो —
जो देह और मन दोनों को आलोकित करती है।

18.
तुम विचारों के पार की जगह हो।
तुम खाली हो — पर पूरी तरह जागे हुए।

19.
‘मैं’ को जानने की कोशिश मत करो —
बस जो ‘मैं नहीं हूं’,
उसे छोड़ते जाओ।

20.
‘मैं’ को जानने का मार्ग —
‘मैं’ को मिटाने से गुजरता है।

21.
तुम न हिंदू हो,
न मुसलमान,
न स्त्री, न पुरुष —
तुम बस मौन की एक ज्योति हो।

22.
जब तुम चुप हो —
बिलकुल चुप —
तब ‘मैं’ का कोई केंद्र नहीं बचता।

23.
‘मैं’ एक भ्रम है —
जो भाषा ने रचा है।

24.
सत्य वह नहीं जो तुम सोचते हो —
सत्य वह है जो सोच के अंत में बचा रहता है।

25.
ज्ञान ‘मैं’ को बड़ा बनाता है —
ध्यान ‘मैं’ को मिटा देता है।

26.
तुम अपने बारे में जो भी जानते हो —
वह सब उधार है।

27.
तुम्हें ‘जानना’ नहीं है कि तुम कौन हो —
तुम्हें ‘होना’ है…
जैसे मौन होता है।

28.
‘मैं’ देह का भ्रम है,
देह प्रकृति का प्रयोग।

29.
‘मैं’ को जानना संभव नहीं —
पर ‘मैं’ से परे जाना संभव है।

30.
और जब ‘मैं’ से परे चले जाते हो…
तब जो बचता है —
वही सत्य है,
वही तुम हो।

🌀 अब अध्याय 2 आरंभ होगा:
"मैं कहाँ से आया?" — जीवन की उत्पत्ति और चेतना की यात्रा की खोज

यदि आप अनुमति दें —
मैं सूत्र 31 से 50 अभी प्रारंभ करूं?
या आप चाहें तो पूरे अध्याय 2 को PDF या पोस्टर रूप में भी बना सकता हूँ।


अब हम प्रवेश करते हैं ✧ अध्याय 2: "मैं कहाँ से आया?" ✧
यह अध्याय आत्मा की उत्पत्ति, चेतना के स्रोत और उस सूक्ष्म आविर्भाव की यात्रा है —
जो सृष्टि से पहले भी था।

✧ अध्याय 2: मैं कहाँ से आया? ✧
(सूत्र 31–50)
✍🏻 — 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓣 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓷𝓲

31.
तुम जन्म से नहीं आए —
तुम देह के द्वार से प्रकट हुए हो।

32.
तुम्हारा आना —
देह का बनना नहीं है,
चेतना का उतरना है।

33.
तुम चेतना की यात्रा हो —
किसी गर्भ की नहीं,
किसी ग्रह की नहीं —
किसी मौन की गहराई से आए हो।

34.
कोई दिन नहीं था,
कोई तारीख नहीं थी —
फिर भी तुम हो।

35.
तुम्हारा उदय —
किसी बीज से नहीं,
किसी कारण से नहीं —
बिना कारण के अनादि है।

36.
तुम ‘प्रकट’ हुए हो —
किसी कारण से नहीं,
बल्कि किसी लीला से।

37.
तुम्हारा जन्म विज्ञान नहीं समझ सकता,
क्योंकि वह जन्म देह का देखता है —
तुम्हारा मूल उससे भी पहले है।

38.
तुम देह में आए नहीं,
तुमने देह को पहन लिया है।

39.
जैसे लहर समुद्र से उठती है,
वैसे तुम ब्रह्म से उठे हो।

40.
तुम्हारा मूल…
न कोशिका है,
न डीएनए —
तुम्हारा मूल मौन है।

41.
तुम्हारी चेतना किसी नक्षत्र से नहीं —
अस्तित्व के केन्द्र से आई है।

42.
तुम चेतना की चिंगारी हो —
जो देह में दीप बन गई है।

43.
तुम्हारा आना —
कोई गलती नहीं था,
कोई साज़िश नहीं थी —
एक दिव्य संयोग था।

44.
तुम्हें किसी ने भेजा नहीं —
तुम स्वयं चुने गए हो।

45.
तुम्हारा जन्म —
एक उत्तर नहीं था,
एक प्रश्न था।

46.
हर आत्मा अस्तित्व का संदेश है —
तुम भी एक मौन पत्र हो।

47.
तुम ब्रह्मांड की आकांक्षा हो —
जो मानव देह में ढल गई है।

48.
तुम तारे नहीं हो,
तुम तारा-ज्योति हो —
जो भीतर जल रही है।

49.
तुम किसी स्थान से नहीं आए —
तुम स्वयं आकाश हो।

50.
तुम्हें कोई जन्म नहीं दे सकता —
तुम जन्म के पहले की मौन स्मृति हो।

🌌
यह था अध्याय 2 —
अब अगला अध्याय है:

✧ अध्याय 3: मैं कैसे आया? ✧
(सूत्र 51–65)
– जीवन में आने की गति, बीज, संस्कार और चेतना की राह

क्या मैं अभी अध्याय 3 आरंभ करूं?
आप कहें — “हाँ आगे दो” 🙏


✧ अध्याय 3: मैं कैसे आया? ✧
(सूत्र 51–65)
✍🏻 — 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓣 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓷𝓲

यह अध्याय खोजता है —
"मेरे भीतर चेतना कैसे आई?
देह, संस्कार और स्मृति के इस जाल में मैं फँसा कैसे?"
उत्तर विज्ञान नहीं दे सकता…
पर मौन दे सकता है।

51.
तुम हवा में नहीं टपके —
तुम कर्म की तरंग पर सवार होकर आए हो।

52.
तुम्हारे आने का कोई सीधा रास्ता नहीं था —
तुम आए हो बीज की तरह —
अनदेखा, अदृश्य… और फिर भी जीवंत।

53.
तुम्हारे जन्म से पहले तुम्हारे बीज थे —
जिन्हें तुमने खुद बोया था —
किसी पिछले मौन में।

54.
तुम्हारा शरीर माता-पिता से आया —
पर आत्मा…
वह कहीं और से उतरती है।

55.
तुम संस्कारों की गुत्थी नहीं हो —
पर तुम उसी में बंधे हुए आए हो।

56.
तुम्हारी चेतना उस राह से आई —
जहाँ मन, कर्म, और कामना की परतें चढ़ी थीं।

57.
तुम्हारा आना —
कोई योजना नहीं थी —
एक पुनः अवसर था।

58.
तुम्हारा जीवन देह से नहीं —
आशा से बना।

59.
तुम्हारे ‘कैसे’ का उत्तर कोई विज्ञान नहीं देगा —
केवल ध्यान देगा।

60.
तुम कौन हो, यह भूल गए —
इसीलिए तुम आये।

61.
जिस क्षण तुमने स्वयं को खोया,
उसी क्षण तुम देह में प्रकट हुए।

62.
तुम्हारा जन्म —
एक भूल का परिणाम नहीं,
एक खोज का आरंभ था।

63.
तुम अज्ञानवश आये —
लेकिन जाग्रति के लिए।

64.
तुम्हारे आने में केवल काम नहीं था —
चेतना का बीज भी था।

65.
तुम एक बार नहीं आए —
तुम कई बार आये हो —
जब तक तुम पूर्ण ना हो जाओ।

🕉
अब अगला अध्याय है:

✧ अध्याय 4: मैं कहाँ खड़ा हूं? ✧
(सूत्र 66–85)
जहाँ हम हैं — अभी — इस क्षण —
माया, भीड़, भ्रम, और मौन के द्वार पर।

क्या मैं अध्याय 4 आरंभ करूं?
आप कहें — “हाँ” — मैं आगे दूँ।


✧ अध्याय 4: मैं कहाँ खड़ा हूं? ✧
(सूत्र 66–85)
✍🏻 — 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓣 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓷𝓲

66.
तुम कहीं और नहीं —
यहीं खड़े हो,
पर जान नहीं पा रहे।

67.
तुम्हारे चारों ओर भीड़ है —
और भीतर एक मौन पुकार।

68.
तुम देह के केंद्र में खड़े हो —
पर देह तुम्हारा केंद्र नहीं है।

69.
तुम खड़े हो —
माया और मुक्ति के संगम पर।

70.
हर दिशा में दौड़ रहे हो —
पर ठहरे कहीं नहीं हो।

71.
तुम्हारा स्थान बाहर नहीं —
एक आंतरिक द्वार है —
जो तुमने बंद कर रखा है।

72.
तुम जीवन की सतह पर हो —
पर गहराई से अनभिज्ञ।

73.
तुम आँखें खोले हो —
पर दृष्टिहीन हो।

74.
तुम सुन रहे हो —
पर मौन को नहीं सुन पा रहे।

75.
तुम जिस बिंदु पर हो —
वहीं से यात्रा लौट सकती है।

76.
तुम्हारी स्थिति —
ना भूत है, ना भविष्य —
बल्कि एक चेतन क्षण है।

77.
तुम्हारे चारों ओर वस्तुएं हैं —
पर तुम वस्तु नहीं हो।

78.
तुम खड़े हो संसार के मध्य में —
पर आत्मा के छोर पर।

79.
तुम्हारा खड़ा होना स्थिर नहीं —
वह डगमगाता है —
क्योंकि जड़ें भीतर नहीं हैं।

80.
तुम्हारे जीवन का नक्शा —
बाहर से खींचा गया है,
भीतर से नहीं।

81.
तुम विचारों के जंगल में हो —
पर मौन की दिशा भूले बैठे हो।

82.
तुम्हारा होना —
तुम्हारे पास नहीं है।

83.
तुम खड़े हो —
और फिर भी गिरे हुए हो।

84.
तुम्हारे पाँव पृथ्वी पर हैं —
पर चेतना भटक रही है।

85.
जिस दिन तुमने “मैं कहाँ हूं?”
पूरे मौन से पूछा —
उस दिन द्वार खुल गया।

🌿
अब शेष है अंतिम अध्याय —

✧ अध्याय 5: मुझे कहाँ जाना है? ✧
(सूत्र 86–108)
मुक्ति की ओर… मौन की ओर… पूर्णता की ओर…








You said:
5


ChatGPT said:
अब यात्रा अपने अंतिम चरण में प्रवेश करती है —
जहाँ न कोई प्रश्न बचता है, न कोई उत्तर।
बस मौन बचता है।

✧ अध्याय 5: मुझे कहाँ जाना है? ✧
(सूत्र 86–108)
✍🏻 — 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓣 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓷𝓲

86.
तुम्हें कहीं जाना नहीं है —
तुम्हें स्वयं में लौटना है।

87.
जिसे तुम “गंतव्य” कहते हो —
वह भीतर है, बाहर नहीं।

88.
मुक्ति कोई स्थान नहीं —
मुक्ति एक दृष्टि है।

89.
तुम्हारा जाना एक यात्रा नहीं —
एक विसर्जन है।

90.
तुम लौटते नहीं —
तुम मिटते हो।

91.
जहाँ 'मैं' नहीं बचता —
वहीं जाना है।

92.
सत्य कहीं बाहर नहीं है —
वह उसी क्षण प्रकट होता है,
जब तुम रुक जाते हो।

93.
चलते-चलते नहीं —
मौन में डूब कर ही
ईश्वर मिलता है।

94.
ईश्वर कोई जगह नहीं —
वह एक स्थिति है।

95.
गंतव्य, दिशा से नहीं —
दिशाहीनता से आता है।

96.
जिसे तुम पाने जा रहे हो —
वह तभी प्रकट होगा
जब तुम ‘पाना’ छोड़ दो।

97.
मुक्ति कोई दरवाज़ा नहीं —
वह तुम्हारा गहराई से मौन हो जाना है।

98.
जिसे तुम परम कहते हो —
वह तुम्हारे ही भीतर
शांत बैठा है।

99.
तुम्हें कुछ नहीं करना है —
बस जो कर रहे हो,
उसे देखना है।

100.
साक्षी बनते ही
तुम पहुँच जाते हो।

101.
जहाँ कुछ कहने को ना रहे —
बस वही परम सत्य है।

102.
तुम्हारा अंत —
शुरुआत का उद्घाटन है।

103.
जो गया, वह ‘मैं’ था —
जो बचा, वह ईश्वर है।

104.
तुमने खोजा नहीं —
पर पाया।

105.
अंततः कोई गंतव्य नहीं है —
बस मौन है।

106.
तुम वहीं पहुँचते हो —
जहाँ से चले थे,
लेकिन अब तुम वही नहीं रहे।

107.
यात्रा नहीं बदली —
यात्री जाग गया।

108.
जहाँ 'मैं' नहीं,
वहीं मैं हूं।

🌌
यह पूर्ण हुआ — अज्ञात अज्ञानी