Nehru Files - 88-89 in Hindi Anything by Rachel Abraham books and stories PDF | नेहरू फाइल्स - भूल-88-89

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नेहरू फाइल्स - भूल-88-89

भूल-88 
तो सांप्रदायिक आरक्षण होता 

अगर स्वतंत्रता के बाद कुछ प्रबुद्ध और वरिष्ठ नेताओं ने हस्तक्षेप न किया होता तो नेहरू ने मुसलमानों के लिए आरक्षण की एक और बड़ी भूल कर दी होती, जिसके परिणामस्वरूप भारत ‘धर्मनिरपेक्षता’ के चोगे में, सांप्रदायिक राजनीति के चंगुल में और गहराई से फँस जाता, जैसाकि एन.वी. गाडगिल की आत्मकथा ‘गवर्नमेंट फ्रॉम इनसाइड’ के उद्धरणों से पूरी तरह स्पष्ट हो जाएगा— 
“नेहरू के स्वा‌भिमान ने छोटी समस्याओं को भी विकट बना दिया और उन्हें चिंता का कारण बन जाने दिया, विशेषकर देश की रक्षा के मामले में। लियाकत अली (पाकिस्तान के प्रधानमंत्री) मार्च 1950 में दिल्ली आए। नेहरू के साथ उनकी वार्त्ता हुई और नेहरू ने एक सुबह 10 बजे उनके (लियाकत अली के) साथ हुए अपने एक समझौते का प्रारूप मंत्रिमंडल के सामने रख दिया। मुझे पक्का नहीं पता कि क्या उस मसौदे पर सहमति बनने से पहले वल्लभभाई (सरदार पटेल) की सलाह ली गई थी या नहीं। इस समझौते के अंतिम दो पैराग्राफों में संघटक राज्यों की सेवाओं और प्रतिनिधि निकायों में मुसलमानों को उनकी आबादी के अनुपात में आरक्षण के सिद्धांत को स्वीकृति प्रदान की गई थी। केंद्र सरकार के लिए भी ऐसे ही प्रावधानों का सुझाव दिया गया था। 

“हम में से ही किसी को उस मसौदे की एक-एक प्रति उपलब्ध करवाई गई थी, लेकिन किसी ने भी अपना मुँह नहीं खोला। मैंने कहा, ‘ये दो पैराग्राफ कांग्रेस की पूरी धारणा को ही शून्य कर देते हैं। यह देश पहले ही अलग निर्वाचक वर्ग के परिणामस्वरूप विभाजन का दंश झेल चुका है। आप इसे एक बार फिर वही जहर पीने को कह रहे हैं। यह विश्वासघात है, इतिहास के पिछले 40 वर्षों के प्रति लापरवाही है।’ नेहरू नाराज हुए। 

“गोपालस्वामी आयंगर बोले, ‘गाडगिल की आपत्तियों में वास्तविकता तो है।’ और वे अंतिम दो पैराग्राफों को दोबारा तैयार करवाने के लिए खुद आगे आए। मैं बोला, ‘इन दो पैराग्राफों को पूरी तरह से हटाना ही होगा और कोई भी दक्षिण भारतीय चतुराई काम नहीं करेगी।’ नेहरू इतना सुनते ही गुस्से में बोले, ‘मैंने इसके लिए लियाकत अली खाँ को सहमति प्रदान की है।’ मैं बोला, ‘आपने निश्चित ही उन्हें बताया होगा कि इन समझौतों को मंत्रिमंडल की मंजूरी के बाद ही अंतिम रूप दिया जा सकता है। मैं मंत्रिमंडल के अन्य सदस्यों के बारे में तो नहीं कह सकता, लेकिन मैं शत-प्रतिशत इसके विरोध में हूँ।’ इसके बाद वल्लभभाई ने शांति से चर्चा को अगले दिन तक टालने का सुझाव दिया और बैठक स्थगित कर दी गई।

 “घर पहुँचने पर वल्लभभाई ने मुझे चर्चा के लिए बुलवाया। मैंने आदर्श रूप से बोलते हुए उनसे कहा, ‘यह शादी सिर्फ इसलिए नहीं होनी चाहिए, क्योंकि पिता ऐसा चाहता है। दुलहन राजी नहीं है। अब आपको स्पष्ट रूप से बोलना चाहिए, वरना जटिलताएँ सामने आने लगेंगी और हो सकता है कि बाद में हमें पछताना पड़े। हमने एक धर्मनिरपेक्ष सरकार का फैसला किया था। यह समझौता उस संकल्पना को ही खत्म कर देता है।’ मुझे उसी रात उनसे (सरदार पटेल से) कुछ कागज प्राप्त हुए, जो गोपालस्वामी आयंगर द्वारा सुझाए गए संशोधन थे, जिन्हें उन्होंने (सरदार पटेल ने) खारिज कर दिया था। मैंने उन पर उनके साथ हुआ अपना करार दर्ज कर दिया। अगले दिन हुई कैबिनेट की बैठक में उन दो अंतिम पैराग्राफों को निकाल बाहर कर दिया गया। बाकी के मंत्रियों ने मुझे बधाई दी; लेकिन यह बड़े दुःख की बात थी कि चर्चा के दौरान उनमें से किसी ने भी नेहरू का विरोध करने की हिम्मत नहीं दिखाई।” (मैक/323-5) 

उपर्युक्त और इस पुस्‍तक में विभिन्न भूलों (जैसे—भूल 81, 85, 86, 87, 90-94 और अध्याय 12.बी4 इत्यादि) के तहत दिए गए अनगिनत उदाहरणों से स्पष्ट है कि नेहरू अन्यायपूर्ण और अनुचित तरीके से मुसलमानों का पक्ष लेते थे और उनके प्रति झुकाव रखते थे; लेकिन क्यों? 
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भूल-89 
ब्रिटिशों से क्षतिपूर्ति की माँग न करना 

प्रसिद्ध अमेरिकी इतिहासकार और दार्शनिक विल डुरंत ने अपनी पुस्‍तक ‘द केस फॉर इंडिया’ में लिखा— 
“भारत में ब्रिटिश शासन इतिहास के पन्नों में दर्ज एक देश द्वारा दूसरे देश का किया गया सबसे घिनौना और आपराधिक शोषण है। मैं यह दिखाना चाहता हूँ कि इंग्लैंड साल-दर-साल भारत को मौत के मुँह में धकेल रहा है। 

“लेकिन मैंने भारत में ऐसी चीजें देखीं, जिन्होंने मुझे यह महसूस करने पर मजबूर कर दिया कि लोगों के लिए पढ़ाई-लिखाई बेकार की चीजें हैं (मानव जाति की 20 प्रतिशत आबादी) धरती के किसी भी भाग में पाई जानेवाली गरीबी और उत्पीड़न से सबसे अधिक पीड़ित। मैं बेहद डर गया था। मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि कोई सरकार अपनी जिम्मेदारी को ऐसे दुःख में डूबने की इजाजत भी दे सकती है! 

“वह सभ्यता, जिसे अंग्रेजों ने बंदूकों के दम पर नष्ट कर दिया था, उसने बुद्ध से लेकर गांधी जैसे संत पैदा किए; वेदों के दर्शन से लेकर शोपेनहावर और बर्गसन, थोरो और कीसरलिंग तक के दर्शन, जो उनसे प्रेरित होते हैं और भारत से उनकी व्युत्पत्ति स्वीकार करते हैं। (काउंट कीसरलिंग कहते हैं कि भारत ने ‘गहन रूपक तत्त्व का निर्माण किया है, जिसे हम जानते हैं’; और वे ‘दर्शन के क्षेत्र में भारत की पश्चिम पर श्रेष्ठता’ की भी बात करते हैं।)... 

“मैं जितना अधिक पढ़ता हूं, उतना ही अधिक इस बात को लेकर विस्मित और आक्रोशित होता हूँ कि कैसे इंग्लैंड ने 150 वर्षों तक जानबूझकर भारत का खून चूसा है। मुझे लगने लगता है कि मैं इतिहास के सबसे वीभत्स अपराध को देख रहा हूँ। 

“भारत पर ब्रिटिशों की फतह एक व्यापार करनेवाली कंपनी द्वारा एक उच्‍च सभ्यता पर आक्रमण और उसका विध्वंस करना था, वह भी बिना किसी पछतावे या सिद्धांत के, जो कला को लेकर लापरवाह थे और लालची थे, बंदूकों व तलवारों के दम पर एक देश को अस्थायी रूप से अव्यवस्थित और असहाय बना दिया गया; यह रिश्वत देना और हत्या करवा देना, जबरन कब्जा करना और चोरी करना तथा यह वैध और अवैध उस लूट के कॅरियर की शुरुआत थी, जो अब 170 वर्षों से बेरहमी से जारी थी और आज जब हम अपनी सुनिश्चित सुविधा से यह सब लिख व पढ़ रहे हैं, यह तब भी जारी है। 

औरंगजेब, एक धर्मनिष्ठ मुगल बादशाह, जिसने भारत पर 50 वर्षों तक बहुत बुरा शासन किया, के मरने के बाद सारा क्षेत्र कई टुकड़ों में टूट गया। सबसे उन्नत यूरोपीय आग्नेयास्‍त्रों और तोपखाने से लैस अंग्रेज जलदस्युओं के लिए इन छोटे-मोटे राजाओं को हराना बाएँ हाथ का काम था। वह अठारहवीं शताब्दी की भारत की संपदा थी, जिसने इंग्लैंड और फ्रांस के इन वाणिज्यिक समुद्री डाकुओं को अपनी ओर आकर्षित किया। इस तमाम संपदा को हिंदुओं ने विशाल और विविध उद्योगों के जरिए जमा किया था। भारत की इस संपदा के लालच के चलते ही कोलंबस ने सात समुद्र लाँघे थे। ईस्ट इंडिया कंपनी भी इसी धन को हथियाना चाहती थी।” (डब्‍ल्यू.डी.)

 एडमंड बर्क ने सन् 1783 में ही इस बात की भविष्यवाणी कर दी थी कि अगर इसी प्रकार से भारतीय संसाधन प्रतिवर्ष बिना बराबर प्रतिफल के इंग्लैंड भेजे जाते रहे तो जल्द ही भारत नष्ट हो जाएगा। रजनी पाम दत्त ने सन् 1901 में अनुमान लगाया था कि भारत के कुल राजस्व का आधा हिस्सा प्रतिवर्ष कभी वापस न आने के लिए बाहर चला जाता है—“भूमि संबंधी संसाधनों का इतने बड़े स्तर पर इतना अधिक आर्थिक बहाव धरती के सबसे समृद्ध देश को अनुपजाऊ बना देगा। इसने भारत को बार-बार आनेवाले, अधिक व्यापक और अधिक घातक अकाल की जमीन में बदल दिया, जो भारत या दुनिया के इतिहास में पहले कभी नहीं हुआ था।” 

राजीव श्रीनिवास ने लिखा—
“विलियम डिग्बी ने ब्रूक्स एडम्स के हवाले से एक बृहत् मजबूत मामला बनाया है कि अगर भारत से आनेवाला लूट का माल ब्रिटेन नहीं आया होता तो वहाँ औद्योगिक क्रांति (लगभग वर्ष 1760) नहीं आ सकती थी। यह भी वास्तव में एक रोचक संयोग है—प्लासी (1757); द फ्लाइंग शटल (1760); द स्पिनिंग जेनी (1764); पावर लूम (1765); स्टीम इंजन (1768)। 

डिग्बी ने सन् 1901 में अनुमान लगाया कि अंग्रेजों द्वारा भारत से लूटे गए खजाने की कुल कीमत 1,00,00,00,000 पाउंड (1 अरब पाउंड) थी। वर्ष 1901 से 1947 तक की लूट और मुद्रस्फीति के प्रभाव को ध्यान में रखते हुए यह राशि आज की तारीख में करीब 1 ट्रिलियन डॉलर होती है। बेशक, काफी बड़ी रकम है! क्या हमें क्षतिपूर्ति का दावा नहीं करना चाहिए? 

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हालाँकि, सबसे हालिया अनुमान उपर्युक्त से कहीं अधिक है। ‘बिजनेस टुडे’ की नवंबर 2018 की एक रिपोर्ट के अनुसार—“प्रसिद्ध अर्थशास्त्री उत्सव पटनायक, जिन्होंने औपनिवेशिक भारत और ब्रिटेन के संबंधों को लेकर शोध किया है, ने एक ऐसे सवाल का जवाब देने का प्रयास किया है, जिसे जानने में बहुत से भारतीयों की दिलचस्पी है—अंग्रेज भारत से कितना पैसा लूटकर ले गए थे? पटनायक ने हाल ही में कोलंबिया यूनिवर्सिटी प्रेस में प्रकाशित अपने निबंध में कहा, ‘ब्रिटेन भारत से 45 ट्रिलियन डॉलर से अधिक लूटकर ले गया था, जिसने आज तक गरीबी से बाहर निकलने की देश की क्षमता को बाधित किया है।’” (डब्‍ल्यू.यू.के.1) 
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उपर्युक्त को देखते हुए जिस तरह से कई देशों ने उन देशों से माफी और क्षतिपूर्ति  की माँग की है, जिन्होंने उन्हें लूटा व सताया था, भारत को भी ब्रिटिशों द्वारा किए गए नुकसान का आकलन करके उसका दस्तावेजीकरण करना चाहिए था और एक वित्तीय अनुमान लगाना चाहिए था, दो शताब्दियों की लूट की मात्रा निर्धारित करनी चाहिए थी, उसे सन् 1947 की कीमतों पर बदलना चाहिए था तथा ब्रिटेन से लिखित व मौखिक माफी के साथ-साथ क्षततिपूर्ति  की माँग करनी चाहिए थी। 

इसके अतिरिक्त, उन सभी कलाकृतियों, पुरातात्त्विक नगों, कोहिनूर जैसे कीमती पत्थरों और भारत से चुराए गए अन्य सामानों की एक विस्तृत सूची तैयार की जानी चाहिए तथा उन्हें अंग्रेजों से वापस लेने का दावा करना चाहिए। 

यह बात ध्यान देने योग्य है कि जब नाजियों ने पश्चिमी देशों पर हमला और कब्जा किया था तो उनके द्वारा साथ ले जाई गई कला और खजानों को लूट का दर्जा देते हुए अन्यायपूर्ण माना गया था और जर्मनी को उन सबको उनके मूल देशों को वापस लौटाने को मजबूर किया गया। चूँकि कला और खजाने पश्चिमी देशों के थे, न कि एशियाई या अफ्रीकी देशों से, इसलिए यह गलती थी और उन्हें वापस करना जरूरी था! एशियाई या अफ्रीकी देशों से लूट, लूट नहीं थी। क्या दोहरे मापदंड हैं! 

हालाँकि, जब भारत जैसे पूर्व उपनिवेश खुद ही इन्हें वापस नहीं माँग रहे हैं तो फिर ब्रिटेन के खुद ही ऐसा करने का सवाल ही नहीं उठता। नेहरू जैसे आंग्ल-रागियों के हाथ में कमान होने के चलते इस मामले में कुछ नहीं किया गया। नेहरू ने कोहिनूर को लेकर बेहद अजीब बात कही— 
“उपहार के रूप में मूल्यवान् वस्तुओं (यह बेहद आसान बनाया है कि कोहिनूर को ब्रिटिशों को उपहार-स्वरूप (पूर्ण असत्य) दिया गया था!) को प्राप्त करने के लिए किसी देश के साथ अच्छे रिश्तों का इस्तेमाल करना मुझे अभीष्ट नहीं लगता। वहीं दूसरी तरफ, यह आकर्षक लगता है कि विदेशी संग्रहालयों में भारतीय कला की वस्तुएँ होनी चाहिए।” (डब्‍ल्यू.एन.10) 

ऐसे उदासीन और अजीब व्यवहार को देखते हुए नेहरू जैसे आंग्ल-रागियों और उनके राजवंश से ऐसा करने की उम्मीद भी नहीं की जा सकती। 

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नेहरू और भारतीय इतिहास तथा विरासत को विकृत करना
 एक महत्त्वपूर्णविषय होने के नाते भारतीय इतिहास, विरासत और सभ्यता से जुड़ी नेहरूवादी भूलें निम्नलिखित चार मुख्य शीर्षकों/भूलों के अंतर्गत आती हैं— 
भूल#90: इतिहास के साथ की गई तोड़-फोड़ दूर न करना। भारतीय इतिहास से औपनिवेशिक विकृतियों को बाहर करने की दिशा और सही, ईमानदार, बिना हेर-फेर वाले, स्वतंत्रता के बाद के इतिहास की दिशा में कुछ नहीं किया गया। 
भूल#91: इतिहास के साथ रचनात्मक होना। उपर्युक्त के बजाय भारतीय इतिहास नेहरूवादी-मार्क्सवादी इतिहासकारों द्वारा और विकृत किया गया था। 
भूल#92: नेहरू और निषेधवाद। मार्क्सवादियों द्वारा भारतीय इतिहास को विरूपित किए जाने (भूल#91) से भी अधिक नेहरूवादी-मार्क्सवादी इतिहासकार भारत में ब्रिटिशों के आने से लगभग एक सहस‍्राब्दी पहले हिंदू भारत के मुसलमानों द्वारा किए गए सर्वनाश को कम करके दिखाने या उसे खारिज करने में लिप्त रहे हैं। 
भूल#93: खुद नेहरू द्वारा इतिहास को विकृत करना। नेहरू के लेखन के उदाहरणों ने भारतीय इतिहास के कुछ हिस्सों को विकृत या गलत तरीके से प्रस्तुत किया है या असत्य भागों को दबा दिया है। 
भूल# 94: हिंदू-विरोधी होना।