Nehru Files - 70 in Hindi Anything by Rachel Abraham books and stories PDF | नेहरू फाइल्स - भूल-70

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नेहरू फाइल्स - भूल-70

भूल-70 
नेहरू का समाजवाद : विफल हो चुका ‘भगवान्’ 

“वामपंथ का समूचा राजनीतिक दृष्टिकोण, जिसमें समाजवाद और साम्यवाद भी शामिल है, दुनिया भर के देशों में, लगभग हर अनुभवजन्य परीक्षा में विफल हो चुका है। लेकिन इसने वामपंथी बुद्धिजीवियों को सिर्फ अनुभवजन्य साक्ष्य से बचने और बदनाम करने का मौका प्रदान किया है। जब दुनिया उनके दृष्टिकोण की पुष्टि करने से इनकार करती है, तब इन विचारकों को ऐसा लगने लगता है कि पूरी दुनिया ही गलत है और यह नहीं कि उनका दृष्टिकोण ही अनभिज्ञ या अवास्तविक है।” 
—थॉमस सोवेल 

नेहरू की ऊपर वर्णित की गई सभी आर्थिक गलतियाँ गरीब भारत पर उनके द्वारा थोपी गई समाजवादी नीतियों का नतीजा थीं। नेहरू ने समाजवाद को बिना किसी आलोचना के स्वीकार किया। 
“अगर समाजवादी अर्थशास्त्र को समझते तो वे समाजवादी नहीं होते।” 
—फ्रेडरिक हेयक 

गैर-समृद्ध समाज का सिद्धांत 
मार्क्सवाद और समाजवाद उन चीजों में से थे, जिनसे नेहरू 1920 के दशक से ही प्रभावित थे। उन्होंने अपनी पुस्तकों में उनके पक्ष में लिखा, लगातार उसकी वकालत की और भारत का दुर्भाग्य रहा कि उन्होंने इसे स्वतंत्रता के बाद अपने नेहरूवादी तरीके से लागू किया। नेहरू समाजवाद और साम्यवाद को लेकर अपनी बात पर अड़े रहे, जबकि इसकी वैश्विक विफलता और साथ-ही-साथ उनके फलरूवरूप आनेवाले अपार दुःख तथा अधिनायकवाद के उदाहरण बढ़ते ही जा रहे थे। तथ्यों और सबूतों को बिना विचारे तथा अवैज्ञानिक रूप से नजरअंदाज करने के बावजूद उन्होंने खुद को समझदार और वैज्ञानिक स्वभाववाले के रूप में प्रस्तुत किया। 

मार्क्सवादी अपने समाजवाद को ‘वैज्ञानिक समाजवाद’ कहते हैं, जैसेकि स्यवं-निर्धारित, आत्म-प्रशंसात्मक विशेषण वैज्ञानिक ही उसके वैज्ञानिक होने की गवाही देने के लिए पर्याप्त हो—ठीक है न; चाहे यह वहाँ पर वास्तविक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से कितना ही निरर्थक हो, जहाँ लिटमस परीक्षण वास्तविक व्यावहारिक प्रमाण है। सिर्फ अपना हित साधनेवाले तर्कों और बहस के द्वंद्ववाद का नतीजा सच नहीं होता है! एक विज्ञान के रूप में या एक राष्ट्र के लिए एक वैकल्पिक आर्थिक विचार के रूप में मार्क्सवाद और समाजवाद का विचार पूरी तरह से विफल रहा है। यह वैश्विक स्तर पर सिद्धांत और प्रयोग दोनों में ही गलत साबित हुआ है। 

मार्क्सवादी-कम्युनिस्ट ‘बुद्धिजीवी’ बनना बेहद सस्ता और आसान है। ऐतिहासिक भौतिकवाद, द्वंद्वात्मक भौतिकवाद, समाज के क्रमिक विकास के चरण : आदिवासी, सामंती, औद्योगिक-पूँजीवादी—और आखिरकार, कम्युनिस्ट; उत्पादन के साधनों का सामाजिक स्वामित्व, फासीवादी, साम्राज्यवादी, सर्वहारा, पूँजीपति, निम्न-मध्यम वर्गीय, सर्वहारा वर्ग की तानाशाही, अच्छे दर्जे के समाज से बिना दर्जे के समाज तक—हर किसी को उसकी काबिलीयत के मुताबिक से लेकर हर किसी की आवश्यकता के अनुसार, राज्य के पीछे हटने इत्यादि की अनाप-शनाप और भ्रांतिमूलक अवधारणाओं की एक शृंखला पर डटे रहे!

 ‘वैज्ञानिक’ समाजवाद की अवधारणा के गुलाम इन ‘बुद्धिजीवियों’ के लिए उपर्युक्त को व्यावहारिक रूप से परखने और सत्यापित करने की कोई आवश्यकता नहीं है। उनके लिए मार्क्सवाद और समाजवाद एक शाश्वत सत्य है, जो काफी हद तक अधिनायकवादी, धर्म- परिवर्तन करनेवाले, अलगाववादी, ‘सिर्फ हम ही ठीक हैं, बाकी सब गलत हैं’ की विचारधारा वाले बाद के दो अब्राहमिक धर्मों—ईसाई और इसलाम (अब्राहमिक-2 और अब्राहमिक-3) जैसा है। ईसाइयत और इसलाम के ‘वे बनाम हम’ के युग्मकों की तरह (आस्तिक बनाम नास्तिक, मोमिन बनाम काफिर—मार्क्सवाद-समाजवाद के अपने ‘सर्वहारा बनाम पूँजीपति’ और ‘मजदूर बनाम पूँजीपति’ के युग्मक हैं। 

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ऐसे लोग, जो सही मायने में विज्ञान या फिर वैज्ञानिक तौर-तरीकों को नहीं समझते हैं, वे किसी भी चीज को बेहद आसानी से वैज्ञानिक मान लेते हैं और समझ लेते हैं। कई तो सिर्फ इसलिए ही मार्क्सवादी बन गए, क्योंकि ऐसा दिखने में वैज्ञानिक, साहसी, युक्तिसंगत, प्रगतिशील, गरीबोन्मुखी, बुद्धिजीवी और इतिहास से जुड़ी ताकतों से जुड़ा लगता है! इतिहास की ताकतों से जुड़ने के बजाय या फिर ठीक तरफ होने के चलते मार्क्सवादियों की बेचैनी बढ़ाते हुए, खुलते इतिहास के पन्ने स्पष्ट करते हैं कि वे गलत की तरफ थे और उनका ‘विज्ञान’ (वैज्ञानिक समाजवाद) कीमियागिरी (लोहे को सोना बनाने के प्रयत्न जैसा) साबित हुआ!
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 इसके अलावा, मार्क्स ने पूँजीवाद का स्थान लेनेवाले समाज और संगठन की प्रकृति के बारे में विस्तार से नहीं बताया और उसे कैसे प्रबंधित किया जाएगा, सिवाय ‘सर्वहारा वर्ग की तानाशाही’ के बारे में बढ़ा-चढ़ाकर बोलने के—इस संभावना के बारे में सोचने के बजाय कि फ्रैंकेंन्स्टीन इसके चलते सामने आएगा और स्वप्निल ‘1984’, जो इससे उत्पन्न हो सकता है। 

पूँजीवादी आर्थिक सोच, पूँजीवादी समाज और उससे जुड़ी लोकतांत्रिक व्यवस्था मार्क्स के समय से ही इस तरह से विकसित और अनुकूलित हुई कि वे न केवल संबंधित राष्ट्रों के लिए अभूतपूर्व समृद्धि लाए, बल्कि उन्होंने जनता की स्थिति में भी स्पष्ट रूप से सुधार किया और इस प्रक्रिया में उन्होंने मार्क्स की कई अवधारणाओं एवं नींवों को झुठला दिया। 

गैर-समृद्ध समाज के सिद्धांत का निराशाजनक व्यावहारिक नतीजा 

समाज, अर्थशास्त्र और वास्तव में सभी विषयों में ज्ञान विकसित होता है; अवधारणाएँ बदलती हैं, नए प्रयोगों, अनुभवों और प्राप्त किए गए ज्ञान के आलोक में नए सिद्धांत पुरानों का स्थान लेते हैं। वैज्ञानिक होने का मतलब चीजों के प्रति खुला दिमाग रखना, बदलने के लिए तैयार रहना, नए उदाहरणों की रोशनी में पुरानों को गिरा देने को तैयार रहना और वास्तविक व्यावहारिक नतीजों के साथ चलना है। किसी भी चीज के वैज्ञानिक रूप से ठीक होने के लिए उसे वास्तव में, और व्यवहार में, पूरे भरोसे के साथ बिना संदेह की छाया के साबित करना पड़ता है। और जब तक ऐसा नहीं किया जाता, तब तक यह सिर्फ एक अनुमान, एक परिकल्पना, एक सिद्धांत बना रहता है। 

क्या यह तथाकथित वैज्ञानिक समाजवाद दुनिया के किसी भी कोने में वास्तविक रूप में सफल साबित हुआ है? नहीं। विभिन्न देशों के तथ्य, आँकड़े, संख्याएँ और जमीनी स्तर के अनुभव साबित करते हैं कि वामपंथी राजनीति के सभी ब्रांड (कम्युनिस्ट, सोशलिस्ट, फैबियन, नेहरूवादी इत्यादि) किसी भी देश या फिर उसके गरीबों के लिए कुछ भी सकारात्मक करने में पीढ़ियों से नाकाम रहे हैं। वे वास्तव में गरीबी, अभाव और ठहराव के मूल कारण रहे हैं। 

समाजवादी राह पर चलनेवाले सभी देशों का निराशाजनक दुर्भाग्य इस बात को साबित करता है। सोवियत संघ को लें। इसने वैज्ञानिक समाजवाद या मार्क्सवाद का अनुसरण करने का दावा किया। लेकिन इसके व्यावहारिक परिणाम क्या थे? इसने अपने चारों ओर एक दुर्भेद्य आवरण बना लिया, ताकि कोई भी उसकी आपदा की असल तसवीर को न देख सके—चारों ओर फैली गरीबी एवं भुखमरी और मानवाधिकारों का दमन। अगर चीजें वास्तव में अच्छी होतीं तो सोवियत संघ उन्हें लेकर इतना गोपनीय क्यों रहता और उन इच्छुक लोगों (पत्रकारों, लेखकों, साहित्यकारों, शिक्षाविदों, शोधकर्ताओं, राजनेताओं, समाज-शास्त्रियों और आम जनता) को बेरोक-टोक आने-जाने की अनुमति प्रदान करता तथा उन्हें खुद ही वहाँ की परिस्थितियों को देखने देता, विशेषकर तब, जब वे चाहते थे कि दूसरे देश उनका अनुसरण करें और कम्युनिस्ट बनें! सख्त पर्यवेक्षण में सिर्फ निर्देशित दौरे क्यों? आखिर वे किसको बेवकूफ बना रहे थे? शायद नेहरू जैसे लोगों को। 1920 के दशक में एक ऐसा ही निर्देशित दौरा और नेहरू पूरी तरह से शीशे में उतरे हुए थे—बिल्कुल एक ऐसे स्कूली बच्‍चे की तरह, जो निर्देशित पर्यटन से लौटा हो! इसके बाद आजादी के बाद नेहरू और उनकी बेटी—दोनों के सोवियत संघ के निर्देशित दौरे और दोनों को ही फिर प्रभावित कर दिया गया! 

आखिरकार, सोवियत संघ विघटित हो गया और उसके सभी हिस्से अभी भी समाजवाद के अपने पुराने बुरे दिनों को भूलने का प्रयास कर रहे हैं। 

सोवियत रूस में लाखों लोग भूख और अकाल के चलते मारे गए। इसके बावजूद कम्युनिस्ट नेतृत्व इतना दिलेर नहीं था कि वह बाहर से मदद माँगकर उनके जीवन की रक्षा कर ले; क्योंकि उसे इस बात का डर था कि कहीं बाहरी दुनिया को वहाँ की दयनीय स्थितियों के बारे में पता न चल जाए। माओ के नेतत्वृ वाले चीन के साथ भी बिल्लकु ऐसा ही था—भुखमरी के चलते करीब 40 लाख लोगों को अपनी जानाें से हाथ धोना पड़ा। 

‘द ब्लैक बुक अ‍ॉफ कम्युनिज्म’ (बी.बी.सी.) के अनुसार, मानव-निर्मित अकाल और सरकारी आतंक के जरिए कम्युनिज्म की बदौलत अपनी जान गँवाने वाले व्यक्तियों की देशवार अनौपचारिक अनुमानित संख्या है, सोवियत संघ-2 करोड़, चीन-6.5 करोड़, कंबोडिया-20 लाख, उत्तर कोरिया-20 लाख; यह संख्या पूरी दुनिया में मिलाकर करीब 10 करोड़ है! अब इसकी तुलना यहूदियों के कत्लेआम से पीड़ितों की अनुमानित संख्या करीब 60 लाख और द्वितीय विश्व युद्ध में सभी देशों की मिलाकर हुई करीब 2.5 करोड़ सैन्य मौतों के साथ करें। 

पूर्वी जर्मनी का उदाहरण लें। इसकी तुलना पश्चिमी जर्मनी की समृद्धि के साथ करें। आखिर बर्लिन की दीवार क्यों गिरी? पूर्वी यूरोपीय देशों—चेकोस्लोवाकिया, यूगोस्लाविया, पोलैंड, बुल्गारिया, रोमानिया का भाग्य देखें। अल्बानिया के मामले को (उसके अपने माओ एन्वर होक्सा के नेतृत्व में) देखें। महान् क्रांतिकारी फिदेल कास्त्रो के नेतृत्व वाले क्यूबा को देखें—वह अब अपने समाजवादी अतीत से पल्ला झाड़ने की कोशिश कर रहा है। अपनी कम्युनिस्ट नीतियों से धीरे-धीरे छुटकारा पाने के बाद विएतनाम की बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था को देखें। खमेर रुज और पोल पॉट के नेतृत्व में कंबोडिया के दुःखद हाल को देखें, जिसे फिल्म ‘द किलिंग फील्ड्स’ में बेहतरीन तरीके से दिखाया गया है। उत्तर कोरिया की भयावह स्थितियाँ ऐसी हैं मानो इक्कीसवीं शताब्दी में जॉर्ज अ‍ॉरवेल का ‘1984’ चल रहा है। 

“सन् 1989 में बर्लिन की दीवार के गिरने और 1992 में सोवियत संघ के विघटन के बाद बहुसंख्यक राय को उसी दिशा में और अधिक बढ़ावा मिला। इसके चलते करीब सत्तर वर्षों तक चली अर्थव्यवस्था को व्यवस्थित करने के दो वैकल्पिक तरीकों के प्रयोग का एक नाटकीय अंत हुआ—ऊपर से नीचे बनाम नीचे से ऊपर; केंद्रीय योजना और नियंत्रण बनाम निजी बाजार; अधिक साधारण शब्दों में कहें तो समाजवाद बनाम पूँजीवाद। इस प्रकार के नतीजों के पूर्वाभास छोटे स्तर पर हुए कई ऐसे ही प्रयासों से हो गया था—हांगकांग एवं ताइवान बनाम मुख्य भूभाग चीन; दक्षिण कोरिया बनाम उत्तर कोरिया। लेकिन इसे पारंपरिक ज्ञान का हिस्सा बनाने के लिए बर्लिन की दीवार के गिरने और सोवियत संघ के विघटन का नाटक करना पड़ा, ताकि अब यह ध्यान में रखा जाए कि केंद्रीय योजना वास्तव में ‘द रोड टू सर्फडम’ है, जैसाकि फ्रेडरिक ए. हेयक ने अपनी 1944 के उत्कृष्ट तर्कपूर्ण रचना का शीर्षक दिया था।” 
—‘कैपिटलिज्म ऐंड फ्रीडम’ में मिल्टल फ्राइडमैन (एम.एफ./एल-75) 

किसी भी देश का ऐसा उदाहरण मौजूद नहीं है, जो समाजवाद या साम्यवाद के चलते समृद्ध हुए हों या फिर जिसके गरीबों का भला हुआ हो। ब्रिटेन जैसे लोकतांत्रिक देश, जो अपनी समाजवादी नीतियों के चलते पतन की राह पर जा रहे थे, ने मार्गरेट थैचर के नेतृत्व में अपनी नीतियों में सुधार किया और समृद्ध हुए। सिंगापुर, दक्षिण कोरिया एवं ताइवान को प्रतिस्पर्धी पूँजीवाद को अपनाकर उच्‍च दर्जे का देश बनने में जितना समय लगा, उसे देखते हुए तथा पश्चिमी जर्मनी और जापान को पूँजीवादी अर्थव्यवस्था को अपनाकर द्वितीय विश्व युद्ध की विभीषिका से उबरने में जितना समय लगा, उसके आधार पर कहा जा सकता है कि भारत भी प्रतिस्पर्धात्मक पूँजीवाद को अपनाकर और पश्चिम से मित्रता करके 1980 के दशक तक एक समृद्ध एवं उच्‍च दर्जे का देश बन गया होता। 

“द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की अवधि में मानक सिद्धांत यह था कि तीसरी दुनिया के विकास के लिए केंद्रीय योजना के साथ-साथ बड़े पैमाने पर विदेशी सहायता भी आवश्यक थी। जहाँ कहीं भी इसे प्रयोग में लाया गया, वहाँ इस सिद्धांत की विफलता, जैसाकि पीटर बेउर तथा अन्यों के द्वारा बेहद प्रभावी तरीके से सामने लाई गई थीं और ‘पूर्वी एशिया के शेर’ कहे जानेवाले हांगकांग, सिंगापुर, ताइवान एवं दक्षिण कोरिया की बाजारोन्मुखी नीतियों की सफलता ने विकास के लिए एक बिल्कुल अलग सिद्धांत सामने रखा। अब तक कई लैटिन अमेरिकी तथा एशियाई देशों, और यहाँ तक कि कुछ अफ्रीकी देशों, ने बाजारोन्मुखी दृष्टिकोण तथा सरकार के लिए एक छोटी भूमिका को अपनाया है। सोवियत संघ के कई पूर्व हिस्सों ने भी बिल्कुल ऐसा ही किया है। इन सभी मामलों में इस पुस्‍तक के विषयानुसार, आर्थिक स्वतंत्रता में वृद्धि राजनीतिक और नागरिक स्वतंत्रता में वृद्धि के कदम से कदम मिलाकर चली है; प्रतिस्पर्धी पूँजीवाद और स्वतंत्रता अविभाज्य रहे हैं।” 
—‘कैपिटलिज्म ऐंड फ्रीडम’ में मिल्टल फ्राइडमैन (एम.एफ./एल-89) 

भूख से बिलखते करोड़ों भारतीयों और ऐसे लाखों लोगों, जो आजादी के बाद अपने लिए, अपने परिवार के लिए और देश के लिए ऊँची उम्मीदें लगाए बैठे थे, के दुर्भाग्य से नेहरू ने भारत को एक गरीबी और दयनीयता के समाजवादी-नौकरशाही के अंधे कुएँ में धकेल दिया। उनके वंशजों इंदिरा और राजीव ने भी उनके ही नक्शे-कदम पर चलकर स्थितियों को और बदतर बना दिया। यूपीए-1 एवं 2 ने एक बार फिर से नेहरू और इंदिरा के विनाशकारी रास्तों पर चलकर नरसिम्हा राव और वाजपेयी की वृद्धि की प्रवृत्ति को पूरी तरह से उलट दिया। 

सरदार पटेल, राजगोपालाचारी और राजेंद्र प्रसाद समाजवाद के विरोधी थे। आजादी के बाद देश की बागडोर अगर नेहरू के बजाय इन लोगों के हाथों में होती तो भारत काफी पहले ही एक समृद्ध एवं उच्‍च दर्जे का देश बन चुका होता और इस बात की पूरी उम्मीद थी कि उसे नेहरू द्वारा स्थापित सामंती राजवंशीय लोकतंत्र (वंशवादी लोकतंत्र) से बचा लिया गया होता, जो सभी दुःखों की जड़ है। 

लोकतंत्र और समाजवाद, क्या ये तुलना योग्य हैं? 

“ ...एक समाज, जो समाजवादी है, कभी लोकतांत्रिक नहीं हो सकता, व्यक्तिगत स्वतंत्रता की गारंटी देने के संदर्भ में।” (एम.एफ.8) 

“एक समाज, जो समानता को स्वतंत्रता से आगे रखता है, उसे कुछ नहीं मिलता है। एक समाज, जो स्वतंत्रता को समानता से आगे रखता है, उसे दोनों ही मिलते हैं।”
 —मिल्टन फ्राइडमैन 

कई लोग कहते हैं कि उन्हें पूँजीवाद पसंद नहीं है, लेकिन उन्हें लोकतंत्र चाहिए। कई लोग लोकतांत्रिक समाजवाद की बात करते हैं। लेकिन लोकतंत्र का ऐतिहासिक स‍्रोत क्या है? क्या समाजवाद ने लोकतंत्र को बढ़ाया? क्या साम्यवाद ने लोकतंत्र को बढ़ाया? नहीं। ऐतिहासिक रूप से सभी समाजवादी और साम्यवादी समाजों ने आजादी का गला घोंटा है, लोकतंत्र तो दूर की बात है। क्या एक सामंती व्यवस्था या एक राजतंत्रीय व्यवस्था या एक तानाशाही ने लोकतंत्र को बढ़ावा दिया? नहीं। 

वह व्यापारिक-औद्योगिक पूँजीवाद था, जिसने लोकतंत्र की राह खोली। लोकतंत्र और पूँजीवाद साथ चलते हैं। प्रतिस्पर्धी पूँजीवाद को बढ़ने के लिए लोकतंत्र की जरूरत है। इसके उलट, जहाँ प्रतिस्पर्धी पूँजीवाद मौजूद हो, लोकतंत्र वहाँ भी विकसित हो सकता है। निश्चित ही, पूँजीवाद का बिगड़ा हुआ स्वरूप, जैसे सहचर पूँजीवाद, तानाशाही और कुलीन तंत्र के साथ चल सकता है। 

हालाँकि, समाजवाद और साम्यवाद, जहाँ सत्ता हावी होती है और उत्पादन के साधनों को नियंत्रित करती है, में कभी वास्तविक लोकतंत्र नहीं हो सकता; क्योंकि वास्तविक लोकतंत्र इन प्रणालियों के लिए पूरी तरह से अनुपयुक्त है। इसलिए जब भारत इंदिरा के नेतृत्व में अधिक समाजवादी बना, तब कठिन आर्थिक परिस्थितियों के चलते उन्हें लोकतंत्र का गला घोंटना पड़ा और आपातकाल की घोषणा करनी पड़ी। 

पूँजीवाद बनाम रचनात्मकतावाद 

“वे लोग, जो जीव-विज्ञान में क्रमागत उन्नति पर विश्वास करते हैं, अकसर सृज- नवाद में भी विश्वास करते हैं। दूसरे शब्दों में, वे इस बात पर भरोसा करते हैं कि ब्रह्म‍ांड और उसमें मौजूद सभी जीव अनायास ही क्रमागत उन्नति करते हैं; किंतु यह भी कि अर्थ- व्यवस्था को राजनेताओं के निर्देशन के बिना संचालित करना बेहद जटिल है।”
—थॉमस सोवेल

 ऐसा नहीं है कि आर्थिक प्रणालियों की कोई निश्चित विकल्प-सूची है और कोई जो चाहे वह विकल्प चुन सकता है। रचनात्मकतावाद अर्थशास्त्र के क्षेत्र में काम नहीं करता है। जटिल आर्थिक, व्यापारिक, औद्योगिक, सामाजिक, अस्तित्व, सांस्कृतिक, मानस एवं संगठनात्मक कारकों के एक सेट ने मुक्त उद्यम और पूँजीवाद के लिए प्रेरित किया है। मुक्त उद्यम और पूँजीवाद कुछ ऐसा नहीं है, जिसके बारे में पहले सोचा गया, फिर उसकी योजना बनाई गई और फिर उसे लागू किया गया या थोप दिया गया। वे सभ्यतागत विकास के एक क्रम के रूप में विकसित हुए, उनका संज्ञान लिया गया और फिर तथ्यों के आधार पर अनुमान लगाया गया। वास्तविकता और व्यवहार ने सिद्धांत की राह दिखाई और फिर सिद्धांत ने व्यवहार को आगे बढ़ाया। इसके बाद वह एक लाभदायक उन्नत चक्र था, जो एक-दूसरे को आगे बढ़ने में मदद करता था। इसके दूसरी तरफ, लोकतंत्र मुक्त उद्यम एवं पूँजीवाद से विकसित हुआ और फिर दोनों के बीच एक चक्रीय प्रभाव था, जिसने दोनों को आगे बढ़ने में मदद की। 

इसकी तुलना में समाजवाद, साम्यवाद या गांधीवाद के बारे में कुछ भी प्राकृतिक, जैविक या विकासवादी नहीं है। वे सभी कृत्रिम निर्माण हैं। आप पहले धारणा तैयार करते हैं, इसके बाद योजना बनाते हैं कि धारणा को व्यवहार में कैसे लागू किया जा सकता है। और फिर, जब आप इसे लागू करते हैं तो आपको पता चलता है कि इसके कई सारे परिवर्तित कारक, कई सारे अज्ञात, कई सारी व्यावहारिक कठिनाइयाँ और अप्रत्याशित मानवीय पहलू तथा गलतियाँ हैं, जिनका सामना करना है। रूसियों ने इसे करीब 70 वर्षों से अधिक समय तक आजमाया, विफल हुए, दोबारा इस पर वापस लौटे और उसके बाद से ही पूँजीवाद को लागू करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। पूर्वी यूरोपीय देश, जो रूस की बदौलत कम्युनिस्ट हुए, के साथ भी बिल्कुल ऐसा ही है। चीन ने अधिक देर होने से पहले ही माओवाद से पीछा छुड़ा लिया और खुद को बड़े आराम से पूँजीवाद में ढाल लिया। 

गांधीवाद! गांधी के चुने हुए शिष्य नेहरू—गांधी के जोर देने के बावजूद इसे आजमाने तक से कतराते रहे। यह एक बिल्कुल अलग बात है कि नेहरू ने इसके एक बेहद बुरे कृत्रिम नुस्खे—रूसियों की नकल को आजमाने की कोशिश की। सच्‍चाई तो यह है कि गांधी अपने खुद के नियमों और सिद्धांतों को अपने ही आश्रमों के प्रतिबंधात्मक माहौल तक में संतोषजनक ढंग से लागू करने में असफल रहे, जहाँ वे एक सर्वेसर्वा थे। 

नेहरूवादी समाजवादी खुदकुशी 

नेहरू ने समाजवाद को बिना आलोचना के स्वीकार कर लिया। यह अपने आप में बड़ी अजीब सी बात है कि हालाँकि नेहरू की पुस्तकें मार्क्सवाद और समाजवाद के बारे में बात करती हैं, लेकिन उनके द्वारा अधिक प्रतिस्पर्धी आर्थिक विचारों पर कोई तुलनात्मक विश्लेषण नहीं किया गया है। ऐसा लगता है जैसे नेहरू के लिए एडम स्मिथ, अल्फ्रेड मार्शल, जे.एस. मिल, जॉन मेनार्ड कीन्स और अन्य मौजूद ही नहीं थे; न ही उन्होंने मिल्टन फ्राइडमैन (1912-2006) और फ्रेडरिक हेयक (1899-1992) को पढ़ने की जहमत उठाई। 

नेहरू ने सिर्फ उसका अनुसरण किया, जो ब्रिटेन के उच्‍च वर्ग के बीच लोकप्रिय और प्रचलित था, वह भी बिना अर्थशास्त्र के किसी गहन अध्ययन के (जेल में कई वर्ष बिताने के बावजूद भी, जहाँ उनके पास इतना खाली समय और हर प्रकार की पुस्तकों की उपलब्धता थी), यहाँ तक कि उसकी मूल बातों की एक उचित समझ के बिना; हालाँकि अर्थशास्त्र किसी भी राजनेता के लिए सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण विषय है। 

वास्तव में, पूँजीवाद को लेकर नेहरू का पूर्वाग्रह (जो उनके अंदर हैरो और कैंब्रिज में आया था) उनके भीतर एक उच्‍च वर्ग के अंग्रेज के रूप में समझने की प्रवृ‌ित्त को जमाने का अधिक जिम्मेदार था, जो अर्थशास्त्र या आर्थिक इतिहास की समझ की तुलना में व्यापार के खिलाफ पूर्वाग्रह रखता था; जैसे उनका समाजवाद गरीबी के खिलाफ किसी भी वास्तविक अनुभव या विद्रोह की तुलना में उच्‍च वर्ग के अंग्रेजी फैबियंस (जैसे बर्नार्ड शॉ) के साथ अधिक था। वर्ग या फिर जाति के प्रति नेहरू का पूर्वाग्रह उनकी आत्मकथा (जे.एन.2) से पूरी तरह स्पष्ट है, जिसमें उन्होंने उल्लेख किया है—“इतिहास के प्रारंभ से पुरातन भारतीय आदर्श ने हमेशा पैसे और पैसे बनानेवाली पेशेवर श्रेणी पर ध्यान दिया और आज वह पूँजीवादी पश्चिम की बनिया (वैश्य) सभ्यता के नए और बेहद मजबूत विपक्ष के खिलाफ लड़ रहा है।” (जे.एन.2/449/एल-7663) 

इसके अलावा, अगर नेहरू ने गलती से यह बात मान भी ली थी कि साम्यवाद ने एक देश (सोवियत संघ) का भला भी किया था, तो भी ऐसा कैसे हो सकता है कि उनका ध्यान अमेरिका, पश्चिमी यूरोपीय और दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों की तरफ न गया हो, जो पूँजीवाद को अपनाकर समृद्ध हो रहे थे! क्या नेहरू, ‘वैज्ञानिक मस्तिष्कवाले’ व्यक्ति, वास्तविकता के बजाय व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों तथा सनक में चल रहे थे? 

नेहरू के शासन के वर्षों के बढ़ने के साथ आँकड़े चिंता बढ़ाने लगे, देश की स्थिति बद से बदतर होने लगी और भुखमरी के हालात बन गए। वैज्ञानिक सोच, नेहरू जिसकी पूरे दिल से वकालत करते थे, माँग करती है कि आप आँकड़ों और वास्तविकताओं को गंभीरता से लें, डाटा का विश्लेषण करें, कारण खोजें, देखें कि आप कहाँ गलत हो गए, यह तलाशें कि दूसरे देश क्या कर रहे हैं और सफल हो रहे हैं तथा उसके आधार पर सुधार करें। लेकिन चूँकि आप पहले से ही वास्तव में वैज्ञानिक नहीं थे, अतः फिर उचित सुधार का मतलब ही क्या है? आप और आपका समाजवाद तथा आपका रास्ता गलत नहीं हो सकता। आप नाक नहीं कटवा सकते। अड़े रहें। बहाने तलाशें—सार्वजनिक क्षेत्र लाभ कमाने के लिए नहीं है! 

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“नेहरू ने एक बार उनसे (जे.आर.डी. टाटा से) कहा था, ‘मैं विशेष रूप से ‘लाभ’ शब्द का उल्लेख भी पसंद नहीं करता हूँ।’ जे.आर.डी. ने जवाब दिया, ‘जवाहरलाल, मैं सार्वजनिक क्षेत्र के लाभ कमाने की आवश्यकता की बात कर रहा हूँ!’ नेहरू ने दोहराया, ‘मेरे सामने कभी ‘लाभ’ शब्द के बारे में बात मत करना। यह एक गंदा शब्द है।’” (टी.टी.जी./414) 

यह अज्ञानता के शीर्ष पर स्थित अहंकार है! क्या किसी देश को अधिक औद्योगिकीकरण, बुनियादी ढाँचे, स्वास्थ्य एवं सामाजिक क्षेत्रों आदि में निवेश करने के लिए लाभ/अधिशेष की आवश्यकता नहीं है? सिर्फ इसलिए कि आपके (होना ही था) बुरी तरह से प्रबंधित सार्वजनिक क्षेत्र डूब रहे हैं और कोई लाभ नहीं कमा रहे हैं—‘लाभ एक गंदा शब्द है’! 
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स्वतंत्रता के बाद और 1950 के दशक की शुरुआत तक भारत ने दुनिया भर में बहुत सम्मान और प्रतिष्ठा हासिल की तथा उन्हें विकासशील देशों, विशेष रूप से जल्द ही स्वतंत्र होनेवाले उपनिवेशों, के लिए एक उदाहरण के रूप में लोकतांत्रिक भारत से काफी उम्मीदें थीं। दुर्भाग्य से, नेहरू की नीतियाँ वास्तव में इतनी विनाशकारी साबित हुईं कि सभी उम्मीदें धरी-की-धरी रह गईं। नेहरू के समाजवाद ने न सिर्फ विकास और गरीबी-उन्मूलन के क्षेत्र में कुछ न करने का काम किया, बल्कि वह सामाजिक न्याय प्रदान करने में भी पूरी तरह से नाकाम रहा। 

द्वितीय विश्व युद्ध से बुरी तरह से प्रभावित पश्चिमी यूरोपीय देश (विशेषकर पश्चिमी जर्मनी, जिसे राख के ढेर में तब्दील कर दिया गया था) न सिर्फ राख से जी उठे, विकास किया और अत्यधिक समृद्ध हो गए। युद्ध और परमाणु बम ने जापान को पूरी तरह से तबाह कर दिया था। राज कपूर का ’50 के दशक का मशहूर गाना याद कीजिए—‘मेरा जूता है जापानी ...’, जिसमें वे अपने फटे हुए जूतों की ओर इशारा कर रहे होते हैं, जो उस समय के जापान के हालात को दिखा रहा था। जापान ने खुद को व्यवस्थित तरीके से आर्थिक रूप से पुनर्जीवित किया; कुछ ऐसा, जिसकी नेहरू को भी नकल करनी चाहिए थी। जापान ने सबसे पहले शिक्षा को सार्वभौमिक और अनिवार्य बनाया। कृषि का आधुनिकीकरण किया गया, बुनियादी ढाँचे (सड़क, रेल और दूरसंचार) में काफी सुधार किया गया और सभी गाँवों को आपस में जोड़ा गया। इन सभी उपायों की बदौलत जापान जल्द ही उठ खड़ा हुआ और करीब तेईस वर्षों से भी अधिक समय तक 9 प्रतिशत की दर से वृद्धि की तथा दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक बन गया। इसके विपरीत, भारत युद्ध की विभीषिका और तबाही से बचा हुआ था। इसके बावजूद, भारत एक ऐसा तीसरे दर्जे का, तीसरी दुनिया का देश बना रहा, जो अपने करोड़ाें भूखे लोगों का पेट तक भरने में असमर्थ था। 

भारत क्यों विफल हुआ? इसके अनगिनत सुविधाजनक और झूठे स्पष्टीकरण हैं—राष्ट्रीय चरित्र की समस्या; लोग परिश्रमी नहीं हैं, अनुशासन की कमी; औपनिवेशिक बोझ; लोकतंत्र, जो ‘नरम’ है; और अब जो आवश्यक है, वह तानाशाही है, विशेषतः सैन्य तानाशाही। ऐसी दलीलों का समर्थन करनेवालों से यह पूछा जाना चाहिए, “अर्थव्यवस्था अब अपेक्षाकृत बेहतर कैसे कर पा रही है? पुराने दौर के आलसी अचानक से मेहनती कैसे हो गए हैं? क्या राष्ट्रीय चरित्र बदलकर बेहतर हो गया है? क्या लोग अब अधिक अनुशासित हो गए हैं?” कष्टों की असल वजह का इन कारणों से कुछ लेना-देना नहीं है। यह समाजवाद का एक सादा, बुरा, उधार लिया हुआ, नेहरूवादी आर्थिक मॉडल था, जिसने हमारे साथ ऐसा किया। 

नेहरू और समाजवादी बनाम सरदार पटेल 

समाजवादी-कम्युनिस्ट कीड़े ने 1920 के दशक से ही भारतीय नेताओं को काटना शुरू कर दिया था। कई तो सिर्फ इसके विधान से ही इसके दीवाने हो गए। यह ‘प्रगतिशील’, ‘भविष्योन्मुखी’, ‘वैज्ञानिक प्रवृत्ति’, ‘गरीब-समर्थक’, ‘उन्नति कर रहे विकास के साथ’ इत्यादि था। नेहरू, जिन्हें अर्थशास्त्र की न तो जरा भी समझ थी और न ही जानकारी, भी इसके मोहपाश में उलझ गए। इसने उन्हें बुद्धिजीवी और गरीब-समर्थक जैसा दिखाया; हालाँकि वे एक विलासिता भरा जीवन जीते थे (अपने पिता के पैसे पर) और उच्‍च वर्ग के ब्रिटिश कम्युनिस्टों की नकल करते थे। आखिर, कैसे उन्नीसवीं शताब्दी का एक विफल विचार इतना आकर्षक कैसे हो गया, यह एक रहस्य ही है। अर्थशास्त्र में शून्य इसके पाश में फँस गए और अब तक फँसते आ रहे हैं! जब जवाहरलाल नेहरू ने सन् 1931 के कांग्रेस के कराची प्रस्ताव को अन्य बातों के अलावा ‘प्रमुख उद्योगों और सेवाओं के राज्य स्वामित्व या नियंत्रण’ के लिए प्रतिबद्ध किया, तब यह ‘समाजवादी’ शब्द कांग्रेस के उद्घोषों में शामिल हो गया। 

वर्ष 1936 में नेहरू के कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद उन्होंने कांग्स के रे लखनऊ अधिवेशन में समाजवाद के गुणों की प्रशंसा की। नेहरू ने 14 सदस्यीय कांग्रेस कार्यकारिणी समिति (सी.डब्‍ल्यू.सी.) में तीन समाजवादियों—जयप्रकाश नारायण (जे.पी.), आचार्य नरेंद्र देव और अच्युत पटवर्धन को शामिल किया। सुभाष चंद्र बोस भी इसमें शामिल थे। नेहरू ने जल्दी ही पार्टी के मंचों से समाजवाद का बखान करना शुरू कर दिया था। 

इसके चलते पटेल और नेहरू के बीच कटुतापूर्ण आदान-प्रदान हुआ। पटेल ने नेहरू द्वारा उस समाजवाद का समर्थन करने पर आपत्ति जताई, जिसे कांग्रेस ने स्वीकार तक नहीं किया था। सरदार ने कांग्रेस के राजनीतिज्ञों के एक समूह को ‘दिखावटी, नारों और सिर्फ विद्वत्तापूर्ण बातें करने के लिए’ (ग्रोव/373) तब दंडित भी किया, जब उन्होंने सन् 1934 में कांग्रेस के भीतर ही काम करने के लिए कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना की। सरदार ने आचार्य नरेंद्र देव को खुलकर बताया कि वे समाजवादियों के बारे में क्या सोचते हैं। सरदार ने कांग्रेसी समाजवादियों की व्याख्या सिर्फ कम्युनिस्ट पार्टी के ‘खंदक खोदनेवाला और खनिक’ के रूप में की। नेहरू के साथ रहनेवाले मीनू मसानी एवं जयप्रकाश नारायण सहित अन्य समाजवादियों को बाद में पटेल के बयानों की सच्‍चाई का अहसास हुआ। समाजवादी आई.सी.सी. के करीब एक-तिहाई प्रतिनिधिमंडलों के नियंत्रण में थे और उनकी योजना कम्युनिस्टों के साथ मिलकर कांग्रेस को अपने कब्जे में लेने की थी; लेकिन पटेल एक चट्टान की तरह अड़ गए और उनके प्रयासों को विफल कर दिया। 

हालाँकि, उस समय, 1930 और 1940 के दशक में, दुर्भाग्य से गांधी, पटेल, राजाजी, राजेंद्र प्रसाद जैसे दिग्गजों ने समाजवादी-सांप्रदायिक पंथ का विरोध उतने ठोस और प्रभावी तरीके से नहीं किया, जितना उन्हें करना चाहिए था। इस कीटाणु को सिर उठाते ही सुविज्ञ बहस से कुचला नहीं गया था और इस वजह से यह फैलता गया। गांधी और उनकी मंडली के पास इस सवाल से निबटने के लिए आवश्यक बौद्धिक कठोरता का अभाव था। जब नेहरू समाजवादी और उनकी मंडली खुद को बुद्धिजीवी, उग्र सुधारवादी एवं प्रगतिशील के रूप में दिखाने के लिए संघर्ष कर रहे थे, तब गांधी और उनकी मंडली उन्हें उजागर करने के बजाय उनके रास्ते से हट गई, ताकि यह दिखाया जा सके कि वे (सादा जीवन जीनेवाले, बिना किसी संपत्ति के और जनता की भलाई के लिए, विशेष रूप से गरीबों के लिए काम करनेवाले) अधिक समाजवादी हैं। वे समाजवाद का गुणगान कर रहे थे। वे मान रहे थे कि समाजवाद-साम्यवाद मजदूर-समर्थक, किसान-समर्थक एवं गरीब-समर्थक था और यह कि उसके समर्थक साधारण जीवन-यापन में विश्वास करते थे; जबकि सच्‍चाई इसके बिल्कुल उलट थी। 

नेहरू और उनकी मंडली को समाजवाद-साम्यवाद के उनके तरीकों की कमी दिखाने के बजाय गांधी ने उनका परिहास किया। गांधी और उनकी मंडली ने सिर्फ यह कहा कि समाजवादी काफी तेजी से आगे बढ़ने की कोशिश कर रहे हैं। वे एक बार में एक कदम चलना चाहते थे। पहले आजादी हासिल करो, फिर बाकी काम करो! और जाहिर है, वर्ग-युद्ध से बचें। उन्होंने कभी यह दिखाने का प्रयास नहीं किया कि समाजवाद और साम्यवाद गरीबी खत्म करने के लिए फर्जी समाधान थे; और यह भी कि आजादी के बाद भी समाजवाद को अपनाना बड़ी मूर्खता होगी। समाजवादी-साम्यवादी पंथ को उजागर करने के लिए पर्याप्त सामग्री उपलब्ध थी और पर्याप्त उदाहरण भी थे; लेकिन गांधी और उनकी मंडली ने उनका अध्ययन या विश्लेषण नहीं किया या फिर उनका उपयोग ही नहीं किया।

 एक बार सरदार पटेल और गांधी जैसे समाजवादी-विरोधियों के न रहने के बाद नेहरू देश को समाजवादी दलदल में लेकर आगे बढ़ गए। सरदार पटेल का कहना था, “एक सरकार, जो खुद को व्यापार में ले आती है, आखिर में पछताती है।” (पी.एन.सी./वी-15/2) 

एच.वी. होडसन ने अपनी पुस्‍तक ‘द ग्रेट डिवाइड’ में दावा किया है कि अगस्त 1947 में नेहरू द्वारा प्रस्तुत कैबिनेट की सूची में शुरू में सरदार पटेल का नाम गायब था! इसके तीन कारण हो सकते हैं (उस पुस्‍तक में नहीं दिए गए)—एक, नेहरू को डर था कि पटेल उनकी समाजवादी नीतियों का विरोध करेंगे। दो, पटेल के पास नेहरू के मुकाबले अधिक सम्मान और समर्थन था तथा उनके पास इतनी शक्ति थी कि वे नेहरू की नीतियों को अधिक वोट से पराजित कर सकते थे। तीसरा, नेहरू ‘महान् प्रजातंत्रवादी’, सिर्फ अपने तरीके से चलना चाहते थे और सत्ता को किसी के भी साथ बाँटना नहीं चाहते थे। 

सरदार पटेल ने कभी नहीं माना कि समाजवाद एक रामबाण दवा है, जैसे नेहरू और कई अन्य समाजवादी, जिनमें जयप्रकाश नारायण और राम मनोहर लोहिया शामिल थे, विश्वास करते थे। सरदार इतने अधिक उदार थे कि वे समाजवादियों को इन शर्तों पर प्रस्ताव भी देते थे, “किसी एक प्रांत को चुनें और उसे समाजवादी सिद्धांतों पर संचालित करें! अगर वे दूसरों की तुलना में बेहतर संचालित होते हैं तो वे खुशी-खुशी देश उनके हाथों में सौंप देंगे।” (आर.जी./491) हालाँकि उनके इस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं किया गया, जिस पर बाद में जे.पी. और लोहिया ने खेद जताया। 

सरदार ने कहा, “जो समाजवाद की रट लगाए हुए हैं, उनके बिल्कुल उलट मेरे पास अपनी कोई संपत्ति नहीं है। समाजवाद के बारे में बात करने से पहले आपको अपने आप से यह बात पूछनी चाहिए कि आपने अपनी मेहनत से कितनी संपत्ति अर्जित की है? अनुभव के आधार पर मुझे इस बात का भरोसा है कि हमारे लिए यह आवश्यक है कि हम पहले यह सीखें कि अधिक संपत्ति कैसे अर्जित करनी है तथा उसके बाद संपत्ति अर्जित करें और फिर उसके बाद यह सोचें कि अब उसका करना क्या है?” (एस.पी.3) 

हालाँकि, पटेल ने डंके की चोट पर बिड़ला सहित अन्य व्यवसायियों के साथ मित्रता रखी, लेकिन वे उनसे पूरी तरह से स्वतंत्र थे। उन्होंने उनसे कभी भी अपने खुद के लिए या फिर अपने परिवार के लिए व्यक्तिगत अनुग्रह की माँग नहीं की। उन्होंने सादा जीवन जिया। हालाँकि, पटेल एक बेहद सफल अधिवक्ता थे, जो बहुत अच्छा कमा रहे थे; लेकिन एक बार स्वतंत्रता आंदोलन का हिस्सा बनने के बाद उन्होंने सबकुछ त्याग दिया। सरदार गांधीवादी सादगी के प्रतीक थे। वे कहते थे, “बापू कहते थे कि जो लोग राजनीति में होते हैं, उन्हें संपत्ति नहीं रखनी चाहिए, और मेरे पास कुछ नहीं है।” पटेल उन वामपंथियों के विपरीत थे, जिन्होंने पूँजीपतियों से पैसे लिये और उनके साथ दुर्व्यवहार किया। पटेल नेहरू के विपरीत थे, जो इस ठाठबाट से दूर रहते थे। उनकी इकलौती बेटी मणिबेन 1980 के दशक में मृत्यु होने तक एक कमरे के अपार्टमेंट में रहीं। पटेल उन वामपंथियों के विपरीत थे, जो पूँजीपतियों से पैसे भी लेते थे और उन्हें गालियाँ भी देते थे। पटेल नेहरू के पूरी तरह से विपरीत थे, जो राजसी जीवन जीते थे। 

समाजवादियों के प्रति सरदार पटेल बहुत कम धैर्यवान् थे। वे मानते थे कि उनमें से अधिकांश सिर्फ बोलनेवाले हैं; साथ ही उनकी संख्या भारत में मौजूद उप-समूहों और उप-जातियों की ही तरह है। उन्होंने वर्ष 1934 के अंत में कहा था, “ब्राह्म‍णों में 84 जातियाँ हैं, जबकि ऐसा लगता है कि 85 विभिन्न प्रकार के समाजवादी हैं!” (आर.जी./एल-4243) वे कांग्रेस के भीतर एक संगठित समाजवादी उप-समूह के भी विरुद्ध थे। 

दोहरी सदस्यता के मुद्दे को उठाते हुए पटेल ने सन् 1948 में कांग्रेस कार्य समिति (सी.डब्ल्यू.सी.) को कांग्रेस के भीतर ‘एक अलग सदस्यता, संविधान और कार्यक्रम’ के साथ अन्य दलों के अस्तित्व को प्रतिबंधित करने के लिए तथा पार्टी संविधान को संशोधित करने के लिए मना लिया, जिसके परिणामस्वरूप कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी (सी.एस.पी.) कांग्रेस से बाहर हो गई। सी.एस.पी. सहित समाजवादी नेहरू के बेहद करीबी थे और उनका यह कदम नेहरू द्वारा पार्टी संगठन पर अपना वर्चस्व स्थापित करने में आड़े आ गया। 

अगर सरदार पटेल के मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था के मॉडल को अपनाया जाता तो भारतवर्ष 1980 तक ही एक समृद्ध ओर प्रथम श्रेणी का विकसित देश बन गया होता। 


भूल-70 (क) 
नेहरू और समाजवाद को लेकर अन्य लोगों ने क्या कहा 

“मुझ पर इस परमिट राज का भूत सवार नहीं है, बल्कि यह एक ऐसा बड़ा साँप है, जिसने खुद को अर्थव्यवस्था के चारों ओर लपेट लिया है।” 
—15.01.1966 को ‘स्वराज्य’ में राजाजी (आर.जी.3/415) 

“समाजवाद के जरिए ब्रिटिश बीमारी का इलाज करना ल्यूकेमिया को जोंक से ठीक करने की कोशिश करने जैसा था।” 
—मार्ग्रेट थैचर 

“भविष्य अगर आशा से भरा है तो ऐसा काफी हद तक सोवियत रूस के कारण है।” 
—नेहरू

 “एक युवा, जो समाजवादी नहीं है, उसके पास हृदय नहीं है और एक बुजुर्ग, जो समाजवादी नहीं है, उसके पास बुद्धि नहीं है।” 
—1920 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड लॉयड जॉर्ज 

“राजा व्यापारी तो प्रजा भिखारी।” 
—भारतीय कहावत 

“श्रीमान जवाहरलाल नेहरू कैंब्रिज से इस विचार के साथ लौटे कि कैसे एक सर्वशासक हस्तक्षेपवादी राज्य समाजवाद के जरिए लोगों को सुख व समृद्धि के लिए मजबूर कर सकता है।... वे अपने इस पूर्वाग्रह से ही चिपके रहे, जबकि पूरी दुनिया के अनुभव का प्रदर्शन इसके बिल्कुल खिलाफ था।...मुझे मौजूदा अहंकार और मूर्खता से उतनी ही नफरत है, जितनी मैं उन दिनों के विदेशी अभिमान से करता था।” 
—राजाजी (आर.जी.3/378) 

“गरीब देश इसलिए गरीब हैं, क्योंकि जिन लोगों के हाथों में सत्ता है, उन्होंने गरीबी पैदा करनेवाले विकल्पों को चुनने का फैसला किया है। ऐसे देश, ऐसे ‘शोषण करनेवाले’ संस्थानों को विकसित करते हैं, ‘जो गरीब देशों को गरीब ही रखते हैं।’ ” 
—डेरेन ऐसमोग्लू और जेम्स ए. रॉबिंसन 
‘व्हाय नेशंस फेल : दि ओरिजंस ऑफ पावर, प्रॉस्पेरिटी एंड पॉवर्टी’ (डब्‍ल्यू.एन.एफ./62) 

(समाजवादी संस्थाएँ शोषण करने की प्रवृत्ति रखती हैं। नेहरू ऐसे शोषण करनेवाले संस्थानों के संस्थापक थे, जो भारत के तीसरे दर्जे का राष्ट्र बने रहने के मूल में हैं।) 

“अगर आप एक केंद्रीय सरकार को सहारा के रेगिस्तान का प्रभारी बना दें तो पाँच वर्षों में वहाँ रेत की भी कमी हो जाएगी।” 
—मिल्टन फ्राइडमैन 

“साम्राज्यवाद के साथ पश्चिमी पूँजीवाद के अपने गहरे जड़ वाले मार्क्सवादी समीकरण से ऊपर उठने में नेहरू की असमर्थता और उनके लगभग पागल, आंशिक रूप से कुलीन, अपने सबसे सफल रूप में ‘अशिष्ट’ के रूप में मुक्त उद्यम का अविश्वास उनके बचे हुए शासनकाल में भारत के समग्र विकास को धीमा करने का सबसे प्रमुख कारण रहा और इसके अलावा, उनकी अधिक संकीर्ण सिद्धांतवादी बेटी के लंबे समय तक चला शासन भी।” 
—स्टेनली वोल्पर्ट
 ‘नेहरू : ए ट्रिस्ट विद डेस्टिनी’ (वॉल्प2/447) 

“उन्हें (नेहरू को) अर्थशास्त्र की कोई जानकारी नहीं थी। वे समाजवाद की बात तो करते थे, लेकिन उन्हें इस बारे में कुछ नहीं पता था कि इसे परिभाषित कैसे किया जाए! वे सामाजिक न्याय की बात करते थे; लेकिन मैंने उनसे कहा कि वे इसे तभी हासिल कर सकते हैं, जब उत्पादन में वृद्धि हो। यह बात उनकी समझ में नहीं आई। इसलिए, आपको एक ऐसे नेता की जरूरत है, जो आर्थिक मुद्दों को समझे और आपकी अर्थव्यवस्था को मजबूत करे।” 
—चेस्टर बाउल्स 
भारत में तत्कालीन अमेरिकी राजदूत 

“साम्यवाद और समाजवाद के बीच कोई अंतर नहीं है, सिर्फ एक अंतिम लक्ष्य को पाने के तरीके के अलावा : साम्यवाद मनुष्यों को बलपूर्वक गुलाम बनाने का प्रस्ताव रखता है, जबकि समाजवाद मतदान के जरिए। यह बिल्कुल हत्या और आत्महत्या के बीच के अंतर जैसा है। 
—एयन रैंड 

“समाजवाद के साथ यह समस्या है कि आप अंततः दूसरों के पैसों को खत्म कर देते हैं।” 
—मार्गरेट थैचर 

“आप एक वामपंथी को कैसे पहचानते हैं?
बहरहाल, वह मार्क्स और लेनिन को पढ़ने वाला है।
और आप एक वामपंथ-विरोधी को कैसे पहचानते हैं?
वह मार्क्स और लेनिन को समझने वाला होता है।” 
—रोनाल्ड रीगन 

“मैं गांधीजी से मुलाकात के बाद अकसर उत्साहित और प्रेरित होकर बाहर आता था, लेकिन हमेशा थोड़ा संशय में रहता था और जवाहरलाल के साथ बातचीत के बाद भावनात्मक जोश से भर जाता था; लेकिन अकसर भ्रमित और असहमत, जबकि वल्लभभाई के साथ मुलाकातें खुशगवार होती थीं, जिनसे मिलकर वापस आने के बाद मैं देश के भविष्य को लेकर एक नए विश्वास के साथ लौटता था। मैं अकसर यह सोचता हूँ कि अगर भाग्य ने फैसला किया होता कि वह जवाहरलाल के बजाय उम्र में छोटे होते तो भारत एक बिल्कुल ही अलग राह पर चला होता और आज की तुलना में कहीं बेहतर आर्थिक स्थिति में होता।” 
—जे.आर.डी. टाटा (बी.के.2/वी) (लाला/174) 

“सहायता माँगने में ज्यादा संकोच नहीं था; और कुछ आलोचकों के अनुसार, बहुत अधिक आभार भी नहीं। अकसर होनेवाला एक नोट था—सहायता बड़ी होनी चाहिए ...भूखे और भारी कर्ज के बोझ तले दबे हुए ऋणी की स्वतंत्रता सामान्यतः अनिश्चित ही होती है।...जिस दौरान मैं भारत में था, तब कीमतें लगभग दोगुनी हो गई थीं।...इसके अलावा, व्यापारी और मध्यम वर्ग, जो पहले से ही करों के भारी बोझ से दबा हुआ था और साथ ही मुद्रास्फीति के भी, आर्थिक पैमाने पर और अधिक नीचे चला गया। इसके अलावा, नेहरू की योजनाओं के चलते राज्य का हस्तक्षेप भी बढ़ा। परमिट, लाइसेंस, नियंत्रण, विदेशी मुद्रा संबंधी रुकावटें लगातार बढ़ रही थीं। इसके साथ-साथ भ्रष्टाचार भी बढ़ गया...भारत में भोजन की संकटमय स्थिति, प्रति एकड़ उपज की खराब स्थिति, जो लगातार गिर रही थी ...बेहद खतरनाक तरीके से छिपाई जा रही थी ...अमेरिका से लाए जा रहे मुफ्त के या फेंके हुए भोजन के जरिए। इस डर से बचना मुश्किल है कि नेहरू की आर्थिक व सामाजिक नीति की मुख्य उपलब्धि सामाजिक व्यवधान बन जाएगी...और यह भी निश्चित है कि भारत के अधिकांश भागों में ग्रामीण क्षेत्रों के निम्न जीवन-स्तर में कोई सुधार नहीं हुआ है; बल्कि बीते दस वर्षों में अधिकांश भारत में यह और खराब ही हुआ है। समाजवादी सरकारें कुटिल तरीके से खाद्य उत्पादों को लेकर कठिनाइयों में जाती हैं; जैसाकि कम्युनिस्ट चीन ने हाल के वर्षों में किया है और सोवियत रूस क्रांति के 40 के करीब वर्षों के बाद से करता आ रहा है।...” 
—वाल्टर क्रॉकर
 ‘नेहरू : ए कंटेंपरेरी एस्टीमेट’ (क्रॉक/42-43) 

“मैं (1950 के दशक के अंत में) कुछ यूरोपीय देशों की राजधानियों से गुजरा, जिनकी रुचि भारत में बेहद कम हो गई थी; क्योंकि उन्हें यह देश वैश्विक मामलों में एक नई ताकत के अगुआ के रूप में न दिखाई देकर सहायता के लिए हाथ फैलाए खड़े देश के रूप में दिखाई देने लगा था। सिर्फ पश्चिमी जर्मनी इसका एक अपवाद था, जो भारतीय संस्कृति के प्रति सम्मान दिखाता है। जर्मन भारतविद् संस्कृत पढ़ते हैं, जबकि उनके ब्रिटिश समकक्ष खुद को इंडो-मुसलिम काल तक ही सीमित रखते हैं।” 
—दुर्गा दास (डी.डी./354) 
क्रॉकर द्वारा ऊपर वर्णित ‘सहायता’ के संदर्भ में 

“नेहरू के निर्देशन में चलनेवाली कांग्स रे पार्टी का बेपरवाह और रेंगनेवाला अधिनायकवाद रूढ़िवादी कम्युनिस्टों के स्वीकृत अधिनायकवाद से भी बदतर है। कम्युनिस्टों का स्वीकृत अधिनायकवाद हमें सीधे द्वंद्व युद्ध की चुनौती देता है। उस द्वंद्व के मुद्देबिल्लकु स्पष्ट हैं और हमारे धर्म को एक निश्चित बढ़त देते हैं और जीत सुनिश्चित मानी जा सकती है। कांग्रेस के समाज रे वाद में शामिल बेपरवाह और रेंगनेवाला अधिनायकवाद कहीं अधिक खतरनाक बुराई है; क्योंकि यह पूरे रास्ते धोखा देता है और ठगता है तथा जनता की राय और प्रेस व देश को एक ऐसी अंधी गली में ले जाता है, जिसका बंद सिरा राज्य की मजबूरी और जीवन को नियंत्रित करता है। बिल्लकु स्पष्ट मुद्दा उन लोगों के लिए बहुत अच्छा रहता है, जिन्हें अत्याचार का विरोध करना होता है। यह एक राष्ट्र की सारी स्थिर ऊर्जा और उसके बलिदान की क्षमता का आह्व‍ान करता है; जबकि समाजवादी पैटर्न के रेंगनेवाले अधिनायकवादी अत्याचार नागरिकों को निरस्त्र करते हैं, उन्हें वर्गों में विभाजित करते हैं और आपसी संघर्षों को प्रेरित तथा स्थापित करके उन्हें कमजोर करते हैं औैर राज्य की शक्ति के माध्यम से अत्याचार के खिलाफ खुद को संगठित करके होनेवाले बलिदानों पर रोक लगाते हैं।” 
—स्वराज्य, पत्रिका (स्व8) 

“समानता को स्वतंत्रता से पहले रखने वाले समाज को कुछ नहीं मिलता। स्वतंत्रता को समानता के मुकाबले वरीयता देने वाला समाज दोनों के उच्‍च स्तर को पाता है।” 
—मिल्टन फ्राइडमैन 
अर्थशास्त्र के ‘नोबेल पुरस्कार’ विजेता 

“मैं इस बात को नहीं मानता कि सिर्फ ठीक लोगों का चुनाव करना ही हमारी समस्या का समाधान है। महत्त्वपूर्ण यह है कि समझ का एक ऐसा राजनीतिक माहौल तैयार किया जाए, जिसमें गलत लोगों के लिए ठीक काम करना राजनीतिक तौर पर फायदेमंद हो। जब तक गलत लोगों के लिए ठीक काम करना राजनीतिक तौर पर फायदेमंद नहीं होगा, तब तक सही लोग भी ठीक काम नहीं करेंगे और अगर वे ऐसा करेंगे भी तो उन्हें जल्द ही उनके पद से हटा दिया जाएगा। 
—मिल्टन फ्राइडमैन 
अर्थशास्त्र के ‘नोबेल पुरस्कार’ विजेता 

“फासीवाद (Fascism) वह अवस्‍था है जाे कि साम्यवाद के एक भ्रम साबित होने के बाद जन्म लेती है।” 
—फ्रेडरिक वॉन हेयक