भूल-63
कमजोर तबके की असुरक्षा
किसी भी सरकार से उम्मीद की जाती है कि वह अपने नागरिकों का बचाव और सुरक्षा करेगी, विशेषकर गरीब, अल्पसंख्यकों, दलितों, महिलाओं और बच्चों जैसे कमजोर वर्गों की। यह आधारभूत है, बाकी की चीजें बाद में आती हैं। लोगों को आतंकवादी, सांप्रदायिक, जातिगत, लैंगिक या घरेलू हिंसा के प्रति असुरक्षित महसूस नहीं करना चाहिए। उन्हें स्वतंत्र रूप से साँस लेने और निडर होकर जीने में सक्षम होना चाहिए, अन्यथा स्वतंत्रता प्राप्त करने का क्या फायदा है!
सुरक्षा वह पहला मसला है, जिस पर स्वतंत्र भारत को अपने अस्तित्व के प्रारंभिक पाँच से दस वर्षों के भीतर दृढ़ता के साथ सुनिश्चित करना चाहिए था। इच्छा और इच्छा-शक्ति को देखते हुए इसे हासिल करना जरा भी मुश्किल नहीं था। सुरक्षा और सामाजिक न्याय को हर हाल में सुनिश्चित किया जाना चाहिए था, चाहे इसके लिए जो कुछ भी करना पड़ता (अनुनय, शिक्षा, प्रचार, निष्पक्ष व सहानुभूति-पूर्ण शासन और अपराधियों को दंडित करनेवाली न्याय प्रणाली), यहाँ तक कि जहाँ आवश्यक हो, वहाँ हिंसा द्वारा भी।
आजादी के बाद हालाँकि कोई बदलाव नहीं देखने को मिला, बल्कि अगर कुछ बदला तो वह बदतर की ओर था। बेरहम, कमजोर-विरोधी, गरीब-विरोधी एवं अपराधी-न्याय-पुलिस व्यवस्था और बाबूवाद वैसे ही जारी रहा, जैसे औपनिवेशिक काल में था। उसमें न तो कोई सुधार हुआ और न ही उसे बदला जा सका। गरीब, अल्पसंख्यक, दलित, महिलाएँ और बच्चे अत्यधिक असुरक्षित बने रहे। वर्ष 1947 एवं 1964 के बीच कथित तौर पर 243 सांप्रदायिक दंगे हुए तथा गरीबों व दलितों की स्थिति में मामूली सुधार ही हुआ।
डॉ. आंबेडकर ने 27 सितंबर, 1951 को अपने इस्तीफे (नेहरू मंत्रिमंडल से) में कहा था—
“आज अनुसूचित जाति (स्थिति) क्या है? जहाँ तक मैं देख पा रहा हूँ, वह बिल्कुल पहले जैसी ही है। वही पुराना अत्याचार, वही पुराना जुल्म, वही पुराना भेदभाव, जो पहले मौजूद था, अब भी मौजूद है—शायद सबसे खराब रूप में। मैं सैकड़ों ऐसी घटनाओं का उल्लेख कर सकता हूँ, जिनमें दिल्ली और उसके आसपास के क्षेत्रों के अनुसूचित जाति के लोग ऊँची जातिवाले हिंदुओं और पुलिस के प्रति अपनी शिकायतों का पुलिंदा लेकर मेरे पास आते हैं, जिन्होंने उनकी शिकायत दर्ज करने या फिर किसी भी प्रकार की मदद देने से इनकार कर दिया है। मैं इस सोच में डूबा हुआ हूँ कि क्या इस पूरी दुनिया में भारत में अनुसूचित जाति की परिस्थितियों जैसा और कोई उदाहरण भी है? मुझे तो कोई नहीं मिलता। इसके बावजूद अनुसूचित जाति को कोई राहत क्यों नहीं प्रदान की जा रही है? इसकी तुलना सरकार द्वारा मुसलमानों की सुरक्षा को लेकर की गई चिंता के साथ करें। प्रधानमंत्री का पूरा समय और ध्यान मुसलमानों की सुरक्षा के प्रति समर्पित है। भारत के मुसलमानों को पूरी सुरक्षा (जब भी और जहाँ भी चाहिए) प्रदान करने की मेरी इच्छा किसी से कम नहीं है, यहाँ तक कि प्रधानमंत्री से भी। लेकिन मैं यह बात जानना चाहता हूँ कि क्या सिर्फ मुसलमानों को ही सुरक्षा की आवश्यकता है? क्या अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों को सुरक्षा की कोई जरूरत नहीं है? उन्होंने इन समुदायों के प्रति क्या चिंता व्यक्त की है? जहाँ तक मैं जानता हूँ, जरा भी नहीं; और इसके बावजूद ये ऐसे समुदाय हैं, जिनके प्रति मुसलमानों की तुलना में कहीं अधिक देखभाल और ध्यान देने की आवश्यकता है।” (आंबे.5)
यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण था कि भारत को छुआछूत के अभिशाप से मुक्ति दिलवाने के लिए डॉ. आंबेडकर के साथ काम करने, समन्वय स्थापित करने और कमजोर वर्गों को सहायता प्रदान करने के बजाय नेहरू ने खुद डॉ. आंबेडकर से छुटकारा पाने का विकल्प चुना। इसके अलावा, नेहरू ने उनकी हार सुनिश्चित करने के लिए चुनावों में उनके खिलाफ प्रचार भी किया। डॉ. आंबेडकर बहुआयामी प्रतिभा के धनी थे और उनकी सेवाएँ कई अन्य महत्त्वपूर्णक्षेत्रों में भी ली जा सकती थीं। अकादमिक तौर पर और अनुभव को देखते हुए वे वित्त मंत्री बनने के लिए सबसे अधिक योग्य थे। अगर सरदार पटेल भारत के पहले प्रधानमंत्री और उनके बाद डॉ. आंबेडकर होते तो यह वास्तव में बहुत अच्छा होता। क्या किसी भी राजनीतिक नेता के लिए व्यक्तिगत रूप से गैर-सांप्रदायिक होना, लेकिन सांप्रदायिक सौहार्द के लिए कुछ न करना उचित है? अगर सांप्रदायिक दंगे होते रहें और अल्पसंख्यक, दलित एवं पिछड़े वर्ग उनके भुक्तभोगी होते रहें तो आपका व्यक्तिगत तौर पर गैर-सांप्रदायिक या फिर कमजोर-समर्थक होने का क्या लाभ है? किसी भी धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी नेता की असल परीक्षा तथा कमजोरों के प्रति उनकी सहानुभूति वह होती है, जिसे वे वास्तव में प्राप्त करते हैं। आजादी के बाद से भारत और उसके शासक इस मापदंड पर खरे नहीं उतरते हैं।
अधिकांश भारतीयों का मानना है कि स्वतंत्रता के एक दशक के भीतर सांप्रदायिकता पर अंकुश लगा दिया जाना चाहिए था और सन् 1957 तक धर्मनिरपेक्षता एवं सांप्रदायिकता को गैर- मुद्दा बना दिया जाना चाहिए था। स्वतंत्रता के बाद यदि दसवीं कक्षा तक की सार्वभौमिक शिक्षा अनिवार्य कर दी गई होती; यदि लोगों को धर्मनिरपेक्षता, जातिवाद और महिलाओं के अधिकारों के बारे में शिक्षित किया गया होता तो स्वतंत्रता के बाद की पीढ़ी अलग हो सकती थी, यहाँ तक कि बचे हुए सांप्रदायिक और जातिवादी तबकों से भी आसानी से निबटा जा सकता था। अगर कांग्रेस ने जमीनी स्तर पर हमारी आपराधिक-न्याय-पुलिस प्रणाली और बाबूवाद को खत्म करने की दिशा में वास्तविक काम किया होता, इस मुद्देपर जोरदार शैक्षिक अभियान शुरू किया होता, गड़बड़ियों व दंगों के लिए नेताओं और प्रशासन तथा पुलिस में जिम्मेदार लोगों को उत्तरदायी ठहराया होता, दोषियों को दंडित करके उनका उदाहरण स्थापित किया होता और इस मामले पर गैर-समझौतावादी रवैया अपनाया होता तो सांप्रदायिकता और जातिवाद का अभिशाप तथा दलितों व गरीबों के साथ दुर्व्यवहार आजादी के एक दशक के भीतर ही गायब हो चुका होता।
यह एक ऐसा लक्ष्य नहीं था, जिसे हासिल न किया जा सके। लेकिन जब आप खुद ही सांप्रदायिक, धार्मिक एवं जातिगत आधारों पर उम्मीदवार चुनते हैं और चुनाव लड़ते हैं तो फिर इलाज क्या है? अधिकांश तथाकथित धर्मनिरपेक्ष-समाजवादी राजनीतिक दल इस मामले पर बोलते तो बहुत अच्छा हैं, लेकिन करते कुछ नहीं हैं। वे वोट हासिल करने के लिए सांप्रदायिक, धार्मिक और जातिगत भावनाओं को भड़काए रखते हैं, क्योंकि धरातल पर व्यावहारिक रूप से वे किसी भी वास्तविक मुद्दे को सुलझाने में पूरी तरह से असमर्थ हैं।
वास्तव में दलों, लोगों और समूहों के धर्मनिरपेक्ष या सांप्रदायिक, जातिवादी या अन्यथा, दलित-समर्थक या दलित-विरोधी, महिला-समर्थक या पुरुष-समर्थक, परंपरावादी या आधुनिक, रूढ़िवादी या उदारवादी होने की पूरी बहस समाज के कमजोर वर्गों, यानी गरीबों, अल्पसंख्यकों, दलितों, महिलाओं और बच्चों की सुरक्षा के मुद्देपर पूरी तरह से अप्रासंगिक है। असल मुद्दा है शासन, जिसमें ‘कानून का शासन’ लागू करना शामिल है। इसलिए, अगर कोई दल धर्मनिरपेक्ष होने का दावा करता है तो उसकी साख का आधार शासन है। अगर उसका शासन खराब है तो वह धर्मनिरपेक्ष दल कहलाए जाने के लायक नहीं है। जैसे जी.डी.पी., प्रति व्यक्ति आय, साक्षरता, गरीबी, मानव विकास सूचकांक (एच.डी.आई.), निर्वहन सूचकांक और अन्य को मापा जाता है, बिल्कुल वैसे ही प्रत्येक राज्य और केंद्र सरकार के लिए एक जी.आई. (शासन इंडेक्स) की भी आवश्यकता है। यही जी.आई. वास्तव में धर्मनिरपेक्षता इंडेक्स (एस.आई.) और जातिवाद-विरोधी इंडेक्स (ए.सी.आई.) का निर्धारण करेगा। एस.आई. एवं ए.सी.आई. को आपके शोर मचाने के स्तर और आपके विरोधों द्वारा नहीं मापा जा सकता। इसे सिर्फ आपके वास्तविक कामों से ही मापा जा सकता है, जो जमीनी स्तर पर किए गए हों। मुश्किल काम है न!
सिंगापुर का उदाहरण लीजिए—ली कुआन यू ने अपने शासन के पहले 15 वर्षों के दौरान बहुसंस्कृतिवाद की छत्रच्छाया में एक अद्वितीय सिंगापुर की पहचान बनाने में कामयाबी हासिल की, बावजूद इसके कि सिंगापुर में कभी भी एक ऐसी प्रमुख संस्कृति नहीं थी, जिसे स्थानीय निवासी और आप्रवासी आत्मसात् कर सकते थे। उन्होंने दशकों से धार्मिक और नस्लीय सद्भाव सुनिश्चित किया है। सिंगापुर को लगातार दुनिया का सबसे सुरक्षित देश माना जाता है और पुलिस सेवाओं की विश्वसनीयता के संदर्भ में यह वैश्विक प्रतिस्पर्धात्मकता रिपोर्ट में शीर्ष पाँच में शामिल है।