भूल-60
पूर्वोत्तर की उपेक्षा
असम और उत्तर-पूर्व की सारी समस्याओं की जड़ नेहरूवादी युग था और उसके मूल कारण थे—मुद्दों की दोषपूर्ण समझ, दुनिया को देखने का गलत दृष्टिकोण, राष्ट्रीय सुरक्षा हितों की दोषपूर्ण समझ और उनसे निकलनेवाली दोषपूर्ण नीतियाँ तथा सुधार। नेहरू, जो पूरी तरह से वोट बैंक की राजनीति से प्रेरित थे, ने पूर्वी पाकिस्तान से पलायन को जारी रहने दिया (कृपया भूल#5, 59 देखें)। इसके अलावा, ईसाई मिशनरियों द्वारा बेरोक-टोक पृथकतावादी और राष्ट्र-विरोधी प्रवृत्तियों को बढ़ावा देना जारी रहा। (इसके बारे में अगली भूल—भूल#61 में विस्तार से बताया गया है।)
कुछ चुनिंदा जातीय समूहों को संतुष्ट करने के लिए असम को कई छोटे राज्यों में विभाजित करने की नेहरू की नीति वास्तव में बिल्कुल उलटी साबित हुई। एक तो चूँकि कई जातीयताएँ मौजूद थीं—200 से भी अधिक नस्लीय समूह। आखिर आप किस हद तक विभाजन कर सकते हैं? दूसरा, इसने विभाजनकारी पहचान की राजनीति को जन्म दे दिया। तीसरा, ऐसे छोटे राज्य आर्थिक रूप से व्यवहार्य नहीं हैं।
आदिवासी मामलों पर नेहरू के सलाहकार एक ब्रिटिश मिशनरी और मानव-विज्ञानी वेरियर एल्विन के अनुसार, नेहरू की व्यापक नीति नागाओं और उनके जैसे अन्यों के साथ ‘मानव जन्य नमूनों’ के रूप में व्यवहार करने की थी। यह बात पूर्वोत्तर के विकास और एकीकरण के रास्ते में सबसे बड़ी बाधा बनकर सामने आई। डॉ. एन.एस. राजाराम लिखते हैं—
“सेना प्रमुख जनरल (बाद में फील्ड मार्शल) करियप्पा ने नेहरू को सलाह दी कि पूर्वोत्तर का विकास किया जाए, ताकि वहाँ की आबादी को राष्ट्र की मुख्य धारा में लाया जा सके। लेकिन वेरियर एल्विन नामक एक ब्रिटिश मिशनरी ने नेहरू को सलाह दी कि जिस क्षेत्र में विभिन्न आदिवासी समुदाय मौजूद थे, वहाँ पर जरा भी हस्तक्षेप न किया जाए, ताकि वे अपने प्राचीन चरित्र को संरक्षित करने में कामयाब रहें। इस कदम ने उन ईसाई मिशनरियों के लिए दरवाजा खुला छोड़ दिया, जो बाद में उस क्षेत्र पर हावी हो गए।” (डब्ल्यू.एन.2)
“एल्विन एक ब्रिटिश मिशनरी था, जिसने मानव-विज्ञानी होने का चोला ओढ़कर आदिवासी लड़कियों का शोषण किया और कई बार तो कम उम्र की लड़कियों का भी। एल्विन जब 40 साल का था, तब उसने 13 वर्षीया एक आदिवासी लड़की कोसी से शादी की, जो उसकी छात्रा थी। उसने उसका इस्तेमाल एक बलि के बकरे के रूप में किया। उसके मानव-शास्त्रीय अध्ययन के विषय में अंतरंग यौन विवरण को प्रकाशित करना भी था, जिसे ‘सहभागी अवलोकन’ कहा जाता है। शादी के करीब नौ साल बाद एल्विन ने उसे छोड़ दिया और नेफा (NEFA) (अरुणाचल प्रदेश) की रहनेवाली एक आदिवासी लड़की लीला से शादी कर ली और कोसी को गरीबी में मरने के लिए छोड़ दिया।” (डब्ल्यू.एन.2)
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‘द धर्म डिस्पैच’ का एक लेख बताता है—
“यह पैशाचिक विकृत व्यक्ति (वेरियर एल्विन) नेहरू को इस हद तक बहकाने में सफल रहा कि उन्होंने एल्विन को एन.ई.एफ.ए. की सरकार (आज : अरुणाचल प्रदेश) के मानव-विज्ञानी सलाहकार के रूप में नियुक्त कर दिया। एल्विन के भीतर का मिशनरी जाग्रत् रहा। आदिवासी पहचान, रीति-रिवाज आदि के संरक्षण के उसके चाशनी चढ़े आग्रहों के पीछे एक ही औपनिवेशिक छल काम कर रहा था, जिसके अनुसार भारत कभी भी एक साझा विरासतवाले लोगों का देश नहीं था और यह कि आदिवासी यहाँ के ‘मूल निवासी’ थे। इसका नतीजा? लगभग 50 से भी अधिक वर्षों तक लगभग पूरे पूर्वोत्तर क्षेत्र का करीब-करीब पूर्ण अलगाव। एल्विन की संरक्षणवादी नीति का नतीजा था—गिरजाघरों का एक विनाशकारी चिह्न, समुदायों के भीतर व बाहर शत्रुता और एक अलग ईसाई राज्य ‘नागालैंड’। शेष भारत के लिए बाँध, राजमार्ग, भारी उद्योग, विश्वविद्यालय एवं अस्पताल। उत्तर-पूर्व के लिए सिर्फ ‘बाइबल’ एवं गिरजाघर तथा साम्यवाद और बंदूकें।” (डब्ल्यू.एन.2)
जब हम इसके उलट, ईसाई मिशनरियों की शांतिपूर्ण सेनाओं द्वारा उन गैर-ईसाई क्षेत्रों में किए गए कुकृत्यों पर नजर डालते हैं, जिनमें उन्होंने अपने पाँव पसारे, तो अधिक अंतर देखने को नहीं मिलेगा। उन्होंने साठ से अधिक सालों के दौरान व्यवस्थित रूप से इस सांस्कृतिक व पारंपरिक निरंतरता को सिरे से उखाड़ फेंका और उत्तर-पूर्व की अंतर- सामुदायिक सद्भावना को पूरी तरह से बरबाद कर दिया, जिसके लिए आध्यात्मिक चोरी पर आधारित उनका युद्धप्रिय धर्म जिम्मेदार है। और यह आकस्मिक नहीं था। इसके लिए जवाहरलाल नेहरू के व्यक्तित्व में मौजूद दो चरित्र जिम्मेदार हैं—एक तो ज्ञान के खिलाफ उच्च-विकसित प्रतिरोधक क्षमता और सफेद चमड़ी के प्रति उनका लाइलाज आकर्षण। उन्होंने जिस प्रकार से उस क्षेत्र के लाखों निवासियों की नियति को घृणित वेरियर एल्विन को सौंपकर लुटा दिया, उसे विस्तार से बताने के लिए और कुछ नहीं है। (डब्ल्यू.एन.2)
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लोगों के दिलों को जीतने और उन्हें मुख्यधारा में शामिल करने को प्रत्येक समूह के लिए एक अलग राज्य की आवश्यकता नहीं थी, क्योंकि इसका फायदा सिर्फ कुछ चुनिंदा संभ्रांतों को हुआ था; बल्कि ठोस, अच्छा, सहानुभूतिपूर्ण शासन, प्रभावी आपराधिक न्याय प्रणाली, लोगों को सुरक्षा का आश्वासन, सेवाओं का प्रतिपादन, शिक्षा, स्वास्थ्य-देखभाल, कनेक्टिविटी एवं संचार प्रदान करना, पर्याप्त बुनियादी ढाँचा और आर्थिक विकास करके ऐसा किया जा सकता था। लकिन ऐसा करने के लिए समर्पित, प्रतिबद्ध, सक्षम, सशक्त और ईमानदार मानव संसाधन चाहिए, जिन्हें सुनिश्चित करना स्वतंत्र भारत का सर्वोच्च प्राथमिकता वाला कार्य होना चाहिए था। लकिे न ऐसा नहीं हुआ। अभिमानी, कठोर, मतलबी, अपना फायदा सोचनेवाले, शोषक, रेंट-सीकिगं, भ्रष्ट, जनता-विरोधी बाबूवाद नौकरशाही और आपराधिक न्याय प्रणाली ने बदलने या सुधारे जाने के बजाय पहले की तरह काम करना जारी रखा, बल्कि यह और अधिक बदतर और भ्रष्ट बन गई, जैसाकि वेद मारवाह अपनी पस्तु क ‘इंडिया इन टर्माइल’ में सामने लाते हैं। (वी.एम.)
इसके अलावा, नेहरूवादी मत के रूप में समाजवाद के साथ भारत ने खुद को गरीबी, अभाव और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हाथ फैलाने तक गिरा दिया था और देश के पास न तो विकास में निवेश करने के लिए अधिशेष था, न ही निजी निवेश एवं विदेशी निवेश को बढ़ावा देने के लिए नीतियाँ। पूर्वोत्तर के राज्य न तो अपने विकास का और न ही अपने खर्चों का वहन कर पाने में सक्षम हैं। सभी राज्यों को विशेष श्रेणी के राज्यों के रूप में वर्गीकृत किया गया है—उन्हें अनुदान के रूप में केंद्र सरकार से 90 प्रतिशत धन मिलता है और उन्हें सिर्फ बचे हुए 10 प्रतिशत को ही उत्पन्न करना पड़ता है।
‘पी.सी.बी. गठजोड़’ (राजनेताओं के लिए ‘पी’, ठेकेदारों के लिए ‘सी’ और व्यवसायियों एवं बाबुओं/नौकरशाहों के लिए ‘बी’) और कई क्षेत्रों में ‘पी.सी.बी.आई. गठजोड़’ (पी.सी.बी. के साथ विद्रोहियों के लिए ‘आई’) अधिकांश निधियों के प्रमुख हिस्से का खयाल रखता है। केंद्र सरकार निधियों के समुचित उपयोग को सुनिश्चित किए बिना इस क्षेत्र के लिए विशेष आर्थिक पैकेजों की घोषणा करती रहती है, जिसमें से अधिकांश पी.सी.बी.आई. की जेबों में जाता है। जारी उग्रवाद और इससे निबटने के लिए विकास की आवश्यकता लूटने के लिए और अधिक धन पाने का बेहतरीन बहाना बनाते हैं।