भूल-58
विदेश नीति के लिए अजनबी
गांधी के नेहरू को स्वतंत्र भारत का पहला प्रधानमंत्री बनाए जाने का प्रमुख कारण उनकी यह धारणा थी कि अंतरराष्ट्रीय मामलों में नेहरू की बहुत अच्छी जानकारी व विशेषज्ञता है और वे अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत को अच्छे से प्रस्तुत करेंगे। नेहरू को भारत की विदेश नीति का संस्थापक होने का श्रेय दिया जाता है। वे संस्थापक तो थे, लेकिन क्या नींव मजबूत थी या जर्जर थी? या फिर, वहाँ कोई नींव थी ही नहीं? क्या वे सब हवा-हवाई बातें थीं, एक आदमी की सिद्धांतवादी बातें? इससे भी महत्त्वपूर्ण यह है कि क्या वह एक ऐसी विदेश नीति थी, जिससे भारत को फायदा पहुँचे? या फिर, वह सिर्फ नेहरू के अपने आप को दिखाने और खुद को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पेश करने का एक तरीका था? कृपया भूल-36 के तहत ‘अन्य देशों का रुख : नेहरू की विदेश नीति की विफलता’ को देखें।
अगर हमारी विदेश नीति इतनी अच्छी थी तो फिर ऐसा क्यों हुआ कि हमारे सभी पड़ोसी हमारे दुश्मन बन गए? और एक मित्रवत् पड़ोसी (तिब्बत) एक स्वतंत्र राष्ट्र का दर्जा ही खो बैठा? आखिर, कैसे हमारी सभी सीमाएँ नेहरूवादी युग के दौरान पूरी तरह से असुरक्षित हो गईं, जिनकी रक्षा करना हमें बहुत महँगा साबित हुआ? आखिर क्यों, चीन के साथ युद्ध के दौरान कोई भी देश भारत के बचाव के लिए सामने नहीं आया (जिनमें नेहरू के गुटनिरपेक्ष और समाजवादी- साम्यवादी मित्र शामिल थे), उस देश के सिवाय, जिसे नेहरू और कृष्णा मेनन ने हमेशा किनारे किया—अमेरिका (रेड1) या फिर वह देश, जिसे नेहरू ने मान्यता प्रदान करने से इनकार कर दिया—इजराइल? (हिन1) आप किसी नीति का मूल्यांकन उसके परिणामों से करते हैं, न कि उसकी लफ्फाजी और आडंबर से।
वॉल्टर क्रॉकर ने लिखा—
“उन्होंने (नेहरू) ने विदेश मंत्रालय का प्रभार अपने पास रखने पर जोर दिया। उनके लिए ऐसा करना एक अहित ही था, क्योंकि पूरी भारत सरकार के प्रमुख के रूप में उन्हें पहले से ही आंतरिक समस्याओं के ढेर का सामना करना पड़ रहा था, जो एक मस्तिष्क के लिए बहुत अधिक थीं। साथ ही, यह भारतीय विदेश मंत्रालय और भारतीय राजनयिक सेवा के लिए भी अहितकर ही था। उन्होंने दोनों को वास्तव में नुकसान ही पहुँचाया, वह भी उनकी वृद्धि के बिल्कुल प्रारंभिक और प्रभावशाली चरण में।” (क्रॉक/56)
“ ...वह एक अच्छी सेवा नहीं थी (नेहरू के नेतृत्व में विदेश सेवा)—भारत जैसे महत्त्वपर्णू देश के लिए जरा भी अच्छी नहीं। पर्याप्त प्रशिक्षण और पेशेवर क्षमता का अभाव था, साथ मिलकर काम करने की कमी थी और सिर्फ बॉस को खुश करने की बहुत अधिक उत्सुकता रहती थी। नेहरू इतने अधिक व्यस्त और ध्यानमग्न थे कि उनके पास आवश्यक जरूरी जानकारियाँ पाने का या फिर सभी अधिकारियों को जानने का समय ही नहीं था, सिर्फ कुछ चुनिंदा वरिष्ठ अधिकारियों या कुछ पसंदीदा लोगों को छोड़कर। इसने चाटुकारिता, व्यक्तिगत तदर्थ पहुँच एवं अनाड़ीपन और व्यक्तिवाद के एक मिश्रण को प्रोत्साहित किया। भारतीय दूतावास नई दिल्ली को अकसर ऐसी रिपोर्टें भेज रहे थे, जो उनके अनुसार उनके मालिक के अनुकूल थीं। यह स्थिति कृष्णा मेनन को मिली हुई अस्पष्ट स्थिति के बाद थोड़ी-बहुत सुधरी, जो कुछ क्षेत्रों में एक प्रकार से पाँच साल तक दूसरे विदेश मंत्री की तरह रहे या कहें तो सन् 1962 में उनके पतन से पहले तक।...” (क्रॉक/57)
डॉ. आंबेडकर ने 27 सितंबर, 1951 को अपने इस्तीफे (नेहरू मंत्रिमंडल से) के दौरान दिए गए भाषण में यह कहा था—
“वह तीसरा मामला, जिसने मुझे कारण दिया है, सिर्फ असंतोष का ही नहीं, बल्कि वास्तविक चिंता और यहाँ तक कि परेशानी का भी, वह है देश की विदेश नीति। कोई भी व्यक्ति, जिसने हमारी विदेश नीति की प्रगति को और उसके साथ-साथ दूसरे देशों के भारत के प्रति रुख को देखा है, वह हमारे प्रति उनके रुख में अचानक हुए परिवर्तन को समझने में चूक नहीं कर सकता। 15 अगस्त, 1947 को जब हमने एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में अपना नया जीवन प्रारंभ किया, तब कोई भी ऐसा देश नहीं था, जो हमारे लिए बुरा सोचता हो। दुनिया का हर देश हमारा मित्र था। सिर्फ चार साल बाद हमारे सभी मित्र हमसे दूर हो चुके हैं। हमारे पास कोई मित्र नहीं बचा है। हम अपनी खिचड़ी बिल्कुल अलग ही पका रहे हैं और संयुक्त राष्ट्र में हमारे प्रस्तावों पर साथ देनेवाला तक कोई नहीं है।” (आंबे.5)
आंबेडकर ने यह कहते हुए नेहरू की विदेश नीति की आलोचना की—“हमारी विदेश नीति का प्रमुख उद्देश्य दूसरे देशों की समस्याओं का समाधान करना है, न कि अपने देश की समस्याओं का समाधान करना!” (डी.के./456)
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“नेहरू ने भारत की विदेश नीति को राष्ट्रीय हितों की पूर्ति करनेवाली रणनीतिक अवधारणाओं के बजाय अमूर्त विचारों पर आधारित किया। उन्होंने गठबंधन, संधियों और समझौतों को व्यावहारिक राजनीति के पुराने नियमों के हिस्से के रूप में लेते हुए उनका तिरस्कार किया, साथ ही वे सैन्य मामलों को लेकर उदासीन रहे। नेहरू ने आशा को आकलन के ऊपर रखा। उदाहरण के लिए, जब उन्हें चेतावनी दी गई कि कम्युनिस्ट चीन संभवतः तिब्बत पर कब्जा करने का प्रयास कर सकता है, तो उन्होंने यह कहते हुए उस पर संदेह जताया कि ऐसा करना बेवकूफी और अव्यावहारिक साहस होगा। सन् 1951 में बीजिंग द्वारा तिब्बत पर कब्जा कर लिये जाने के बाद भी नेहरू भारत की उत्तरी सीमा पर चीनी हितों की प्रकृति का पुनर्मूल्यांकन नहीं कर पाए।” —फरीद जकारिया (जक/148)
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नेहरू ने अपनी मूर्खता स्वीकार की
नेहरू ने खुद ही स्वीकार किया था, “हम आधुनिक विश्व की वास्तविकता से दूर होते जा रहे थे और हम अपने ही बनाए हुए एक कृत्रिम माहौल में जी रहे थे।” (जक/149)