एपिसोड 5: “तेरे जज़्बातों की गिरफ़्त में…”
“कभी-कभी कोई छू भी न पाए… फिर भी उसकी सोच रूह में उतर जाती है।”
रात के धागे अब भी उस कमरे में उलझे हुए थे जहाँ दुआ ने पहली बार ख़ुद को उसके सीने पर चैन से सोते हुए पाया था। लेकिन चैन कितना था और छल कितना — इसका हिसाब सिर्फ़ उसकी धड़कनों को था। सुबह की धूप कमरे में उतरी, लेकिन दुआ की आँखें अब भी बंद थीं… जैसे वो उस एहसास को थोड़ा और महसूस करना चाहती थी। तकिये पर पड़े वर्दान की साँसों के निशान अब ग़ायब थे, लेकिन उसकी चिट्ठी अब भी उसके सीने से चिपकी हुई थी। “तुमने पहली बार मुझे नफ़रत नहीं दी…” ये लफ़्ज़ उसके कानों में वैसे ही बज रहे थे जैसे कोई धुन — जिसकी ताल पर अब उसकी सोच नाचने लगी थी।
दुआ शीशे के सामने खड़ी थी, और अपना चेहरा देख रही थी — वो चेहरा जो अब सिर्फ़ उसका नहीं था। उसमें कहीं वर्दान की झलक थी, उसकी छुअन का असर, उसकी बातों की परछाई। एक सवाल बार-बार उठ रहा था — “क्या ये सब मोहब्बत है, या सिर्फ़ उसके हक़ की एक अजीब सी तलब?” वो खुद से लड़ रही थी। उसके स्पर्श में दरारें थीं, लेकिन दुआ अब उस दरारों में खुद को समेटना सीख रही थी। ये मोहब्बत नहीं थी शायद — लेकिन मोहब्बत जैसा कुछ ज़रूर था। और वही ‘कुछ’ अब उसकी सबसे बड़ी कमजोरी बनता जा रहा था।
दोपहर होते-होते वर्दान का फोन आया — उसकी आवाज़ सर्द थी, लेकिन उसके पीछे कुछ और भी छुपा था। “दुआ, शाम को तैयार रहना, एक मीटिंग है — मुझे चाहिए कि तुम वहाँ रहो।” दुआ ने कोई सवाल नहीं किया, न हामी भरी, न इंकार किया। सिर्फ़ फोन काट दिया। लेकिन वर्दान के लहजे में आज कुछ अलग था। वो सख़्त नहीं था, हुक्म नहीं दे रहा था… शायद, कोई इज़हार कर रहा था? लेकिन इज़हार भी उसका वैसे ही होता था जैसे वो सब करता है — ज़िद की तरह, हक़ की तरह।
शाम होते-होते दुआ ने वही हल्की नीली साड़ी पहनी जो उसे एक बार वर्दान ने दिलाई थी — सादा मगर नर्म, ठीक उसकी छुअन की तरह। जब वो नीचे आई, वर्दान पहले से मौजूद था — ब्लैक फॉर्मल सूट में, उसकी आँखों में वही आग… लेकिन इस बार वो जलाने वाली नहीं, जल जाने वाली लग रही थी। “तुम बहुत खूबसूरत लग रही हो,” उसने धीमे से कहा। दुआ ने सिर्फ़ हल्की सी मुस्कान दी — पहली बार, बिना कोई कटाक्ष, बिना कोई दूरी बनाए। शायद अब वो नफ़रत की दीवारें खुद ही गिरा रही थी।
इस बार की पार्टी पिछली बार से अलग थी। ये एक इंटिमेट बिज़नेस डिनर था — चंद ख़ास लोग, और हर नज़र दुआ पर थी। लेकिन अबकी बार, वर्दान ने उसका नाम लिया — “This is Dua. She’s not just my personal associate anymore, she’s my choice.”
उसका ये बयान… दुआ की रूह में उतर गया। लोगों की निगाहें अब ताज़्जुब से बदलकर क़द्र में तब्दील हो गईं। लेकिन दुआ की आँखें — वो अब भी सवालों से भरी थीं। ये जो पहचान वर्दान ने दी, क्या वो सिर्फ़ भीड़ को दिखाने के लिए थी… या वाकई अब वो उसका सच बन चुकी थी?
रात के अंत में जब दोनों गाड़ी में थे, वर्दान ने खामोशी तोड़ी — “दुआ, तुम्हारी आँखों में जो डर है… वो अब भी मेरे बारे में है, या तुम्हारे अंदर के एहसासों से?”
दुआ ने पलटकर देखा, उसकी आँखों में एक अनकही गिरफ़्त थी।
“शायद दोनों…”
वर्दान मुस्कराया नहीं, न ही कुछ बोला। लेकिन उसने उसका हाथ थाम लिया — बिना दबाव, बिना हुक्म। बस थामा… जैसे अब वो कुछ खोना नहीं चाहता।
रात के उस पल में जब सब थम गया था, वर्दान ने पहली बार बिना छुए — दुआ को महसूस किया। उसने उसका चेहरा अपने हाथों में लिया और बोला,
“मैं तुम्हें खोना नहीं चाहता, लेकिन पा भी नहीं सकता… जब तक तुम खुद को मुझे देना न चाहो।”
दुआ का दिल धड़कने लगा, लेकिन अब वो डर नहीं था — अब वो मोहब्बत जैसा कुछ था। उसने उसकी तरफ़ देखा, और पहली बार कुछ नहीं कहा। कभी-कभी खामोशी, इज़हार से ज़्यादा ज़रूरी होती सुबह होते ही एक खबर आई — वर्दान की कंपनी के खिलाफ़ कोई लीगल नोटिस जारी हुआ था। एक पुरानी डील में फ्रॉड का आरोप लगा था। वो ग़ुस्से में था, मगर दुआ उसके पास गई।
“क्या मैं कुछ मदद कर सकती हूँ?”
वर्दान ने पहली बार अपनी आँखों में कमजोरी दिखाई — “शायद तुम ही हो जो इस वक़्त मेरे साथ हो… बाक़ी सब तो मेरी ताक़त से जुड़े थे, तुम मेरी कमजोरी से।”
दुआ ने बिना कुछ कहे उसका हाथ थाम लिया।
अब रिश्ता सिर्फ़ एक Addiction नहीं रह गया था… अब वो जुड़ाव था। दुआ के अंदर अब डर नहीं, समझ थी।
वर्दान अब भी वही था — सख़्त, जुनूनी, ज़िद्दी — लेकिन उसके भीतर एक टूटी हुई आत्मा थी, जिसे अब दुआ छू रही थी… उसकी रूह से।
कभी-कभी किसी को बदलने की नहीं, उसे समझने की ज़रूरत होती है। और दुआ अब समझ रही थी कि मोहब्बत सिर्फ़ फूल नहीं, काँटे भी है — लेकिन सही हाथ में हो तो वो कांटे भी गुलाब की तरह महसूस होते हैं।
रात के आखिरी लम्हों में, दुआ ने अपनी डायरी का अगला पन्ना खोला:
“वो जो कल तक ज़हर लगता था… आज उसकी आँखों में दवा है।
मैं अब भी डरती हूँ उससे, लेकिन अब उस डर में मोहब्बत है।
कभी-कभी हम जिसे कैद समझते हैं, वो दरअसल हमारी आज़ादी का रास्ता होता है।
वो मेरी रूह को छू चुका है… अब ये जिस्म उसका क्या कर लेगा?”
← END
To Be Continued…
अब क्या दुआ, वर्दान की जंग में उसका साथ दे पाएगी?
या फिर किसी पुराने राज़ की दस्तक… इस रिश्ते को फिर से तोड़ देगी?
जानने के लिए पढ़ते रहिए… ‘तेरे नाम की कैद, मेरी रूह की सज़ा’ का अगला हिस्सा…