भूल-43
गोवा की विलंबित मुक्ति
गोवा, दमन एवं दीव तथा दादरा एवं नगर हवेली (सामूहिक रूप से ‘एस्टाडो ड इंडिया’ के नाम से जाना जाता था) आजादी के बाद भी पुर्तगाल के कब्जे में ही रहे। यह लगभग 4,000 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैले थे और यहाँ की आबादी लगभग 6.4 लाख थी, जिनमें से करीब 61 प्रतिशत हिंदू, 37 प्रतिशत ईसाई और 2 प्रतिशत मुसलमान शामिल थे। भारत ने आखिरकार हवाई, समुद्री एवं जमीनी हमले को अंजाम दिया और इस सशस्त्र काररवाई को ‘अॉपरेशन विजय’ का कोड नाम दिया गया। दिसंबर 1961 में दो दिनाें के अभियान के बाद पुर्तगाल के कब्जेवाले सभी भारतीय क्षेत्रों को मुक्त कर लिया गया। 19 दिसंबर को ‘गोवा मुक्ति दिवस’ के रूप में मनाया जाता है, क्योंकि 1961 में इसी दिन 450 साल पुराने पुर्तगाली शासन को उखाड़ फेंका गया था। दादरा और नगर हवेली को पहले ही सन् 1954 में आजाद करवाया जा चुका था। आखिर ऐसा क्यों हुआ कि भारत की आजादी के 14 वर्षों के बाद 1961 में पुर्तगालियों को यहाँ से बाहर निकाला गया? क्या नेहरू एक छोटे से क्षेत्र को भी आजाद करवाने में सक्षम नहीं थे?
सन् 1950 में विदेश मामलों की समिति में गोवा पर एक लंबी चर्चा के दौरान सरदार पटेल काफी देर तक विभिन्न साधारण विकल्पों के बारे में सुनते रहे और तभी वे अचानक उठे और अंत में बोले, “क्या हम अंदर घुसें? यह सिर्फ दो घंटों का काम है!” पटेल 14 मई, 1946 को अपने पत्र में गोवा कांग्रेस को दिए गए आश्वासन को पूरा करने को लेकर बेहद उत्सुक थे, जिसमें उन्होंने उसे विदेशी प्रभुत्व से मुक्त करवाने का वादा किया था। वे इस मामले को जल्द सुलझाने के लिए बल-प्रयोग हेतु पूरी तरह से तैयार थे। लेकिन नेहरू कोई भी प्रभावी कदम उठाने को लेकर बेहद नरम थे। पटेल उत्तेजित हो रहे थे। (बी.के./251)
दुर्गा दास ने लिखा— “गांधी ने भारत के फ्रांस और पुर्तगाल के कब्जेवाले क्षेत्रों के लोगों (भारतीयों) को अपने अधिपतियों के खिलाफ 15 अगस्त को विद्रोह न करने की सलाह दी और साथ ही नेहरू पर आँखें मूँदकर उसके लिए भरोसा करने की सलाह दी, जो वे इंडोनेशियाइयों को आजाद करवाने में मदद करने के लिए कह रहे थे। गांधी ऐसा करते हुए अपरोक्ष रूप से इस बात को प्रमाणित कर रहे थे कि गोवा और पुदुच्चेरी तथा अन्य विदेशी परिक्षेत्रों को लेकर उनका दृष्टिकोण पटेल के दृष्टिकोण से बिल्कुल भिन्न है और वे नेहरू के साथ सहमत थे कि उनकी मुक्ति के सवाल को कुछ और समय के लिए टाला जा सकता है।” (डी.डी./250)
अगर पटेल की सलाह को माना गया होता तो गोवा वर्ष 1948 के पहले ही भारत गणराज्य का हिस्सा बन चुका होता। हालाँकि, नेहरू और गांधी जैसे शांतिवादियों के रहते वांछित काररवाई हमेशा इंतजार कर सकती थी और निर्णय व काररवाई का स्थान आत्म-प्रशंसा वाली बातों ने ले लिया। अगर पटेल मौके पर नहीं होते और मामलों को नेहरू व गांधी पर छोड़ दिया होता तो हैदराबाद एवं जूनागढ़ एक और कश्मीर या पाकिस्तान बन गए होते; दर्जनों ऐसी स्वतंत्र रियासतें मौजूद होतीं, जो ब्रिटेन या पाकिस्तान को खुश कर रही होतीं और स्थायी सिरदर्द बन गई होतीं!
सीता राम गोयल ने तब, गोवा पर कब्जे से पहले, टिप्पणी की—
“और यह वास्तविकता कि पं. नेहरू ने भारतीय सेना को गोवा में कूच करने का आदेश नहीं दिया है और न ही फ्रांस के संदर्भ में फ्रांसीसी कब्जेवाली संपत्तियों को भारतीय गणराज्य में मिलाया है, यह भी इस बात का सकारात्मक प्रमाण है कि वे भारत के प्रति निष्ठावान् नहीं हैं। मुझे इस बात का पूरा विश्वास है कि अगर फ्रांस के कब्जेवाली संपत्तियों को भारत में मिला लिया जाता है तो फ्रांस में एक मक्खी भी नहीं भिनभिनाएगी। पुर्तगाल द्वारा गोवा के मामले में विरोध किए जाने की पूरी संभावना है। लेकिन एक बार फिर मुझे इस बात का पूरा भरोसा है कि कोई भी पश्चिमी शक्ति न तो उसके प्रति अधिक सहानुभूति प्रकट करेगी और न ही उसका समर्थन करेगी। बिना विधिवत् स्थानांतरण के पुर्तगाली और फ्रांसीसी कब्जेवाला गोवा सिर्फ नेहरू के कम्युनिस्ट खेल के बहाने हैं, ताकि वे भारतीय राष्ट्रवाद को प्रभावित कर सकें और उसे पश्चिमी खेमे के खिलाफ स्थापित कर सकें। अगर गोवा और फ्रांस के कब्जेवाले स्थानों को भारत अपने कब्जे में ले लेता है तो वे दिन-रात उत्तरी अटलांटिक गठबंधन के खिलाफ बड़ी-बड़ी बातें नहीं कर पाएँगे।” (एम.आर.जी.2/170)