भूल-41
सत्य को कुचलना
लोगों को तब बेहद हैरानी होती है, जब उन्हें भारत-चीन युद्ध की पृष्ठभूमि और उसकी विस्तृत जानकारी के बारे में पता चलता है; क्योंकि इन सभी बातों को इतना लंबा समय बीत जाने के बाद भी राष्ट्रीय सुरक्षा हितों की आड़ में जनता से छिपाया गया है। ब्रिगेडियर जे.पी. दलवी ने लिखा—
“भारत के लोग सच्चाई जानना चाहते हैं, लेकिन राष्ट्रीय सुरक्षा की आड़ लेकर इसे छिपाया गया है। इसका नतीजा रहा है व्यंग्योक्ति, मिथकों, अटकल, सीधे आक्षेप और भ्रमित करने तथा सच को छिपाने के प्रयास का एक असाधारण समागम। यहाँ तक कि संक्षिप्त एन.ई.एफ.ए. जाँच (हेंडरसन-ब्रूक्स रिपोर्ट) को भी रोक दिया गया है और 2 सितंबर, 1963 को लोकसभा में सिर्फ इसके कुछ भावानुवादित उद्धरण ही पढ़े गए हैं। कुछ अज्ञात कारणों के चलते मुझे और न ही स्वदेश लौटे मेरे कमांडिंग अफसरों (चीन ने दलवी एवं कुछ अन्य को बंदी बना लिया था और उन्हें सन् 1963 में रिहा किया गया था) से इस निकाय के सामने सबूत पेश करने को कहा गया (युद्ध के दौरान अग्रिम मोरचे पर होने के बावजूद)।” (जे.पी.डी./एक्सवी)
नेहरू ने एक तानाशाह की तरह पूरी बात को गुप्त रखा। नेविल मैक्सवेल ने लिखा—“...यह सीमा के मसले (चीन के साथ) का सच था, जिसे न सिर्फ मंत्रिमंडल और उसके विदेश मंत्रालय तथा रक्षा समितियों से छिपाया गया था, बल्कि संसद् से भी, जब तक कि सशस्त्र संघर्षों ने इसे छिपाया जाना असंभव नहीं बना दिया।” (मैक्स.)
कोई भी लोकतांत्रिक देश इतना गोपनीय नहीं होता। ब्रिटेन और अमेरिका दोनों और बाकी के लोकतांत्रिक देश भी कुछ वर्षों के अंतराल के बाद अपने तमाम आधिकारिक दस्तावेजों को अपने कानूनों के अनुसार सार्वजनिक कर देते हैं, ताकि इतिहासकार, शिक्षाविद्, शोधकर्ता, विशेषज्ञ, नेता और अन्य उनका अध्ययन कर सकें। यह ठीक इतिहास लिखने, उचित निष्कर्ष निकालने और भविष्य के लिए सबक सीखने में मदद करता है। लेकिन भारत में नेताओं और नौकरशाहों को अपनी बेईमानी और अक्षमता के उजागर होने का डर रहता है। वे अपने वर्तमान और अपने अस्तित्व को लेकर सजग रहते हैं और उन्हें देश के भविष्य से कोई मतलब नहीं होता। इसके अलावा, एक डायनेक्रेसी (वंशवादी लोकतंत्र) में मौजूदा राजवंश अपने पुरखों की प्रतिष्ठा को हमेशा बचाए रखते हैं, क्योंकि ऐसा करना उनके राजवंशीय शासन को बनाए रखने के लिए जरूरी है।
आप इतिहास और उसके सबकों को अपने खुद के जोखिम पर नजरअंदाज करते हैं; इसलिए हार के भविष्य के लिए उपयोगी सबक सीखने के लिए असहज सवालों को उठाना भी आवश्यक है—
सीमा विवाद की प्रकृति क्या थी? वार्त्ता के माध्यम से समस्या का समाधान क्यों नहीं किया गया? भारत ने सन् 1954 में पंचशील समझौते पर हस्ताक्षर करने के समय ही इसका समाधान क्यों नहीं किया? क्या भारतीय धारणा न्यायोचित थी? क्या चीनी तर्कों में दम था? भारत ने सन् 1954 में अपने मानचित्र क्यों बदले? किस आधार पर? क्या भारत के पास अपने रुख पर अडिग रहने के लिए ठोस आधार थे? मैकमहोन रेखा और अक्साई चिन पर अदला-बदली का चीनी प्रस्ताव क्यों स्वीकार नहीं किया गया? अग्रवर्ती नीति क्यों अपनाई गई? भारतीय रक्षा तैयारी इतनी खराब क्यों थी? क्या सेना का राजनीतिकरण हुआ था? युद्ध में भारतीय प्रदर्शन इतना दयनीय क्यों था? भविष्य के लिए भारत का रुख क्या होना चाहिए? विवाद को कैसे सुलझाया जाए? भारत की रक्षा को कैसे मजबूत किया जाए?...
जवाबदेही तय की जानी चाहिए थी और दोषियों को उनके किए की सजा जरूर मिलनी चाहिए थी। जाँच के निष्कर्षों को भविष्य की रणनीति के साथ सार्वजनिक किया जाना चाहिए था। यही लोकतंत्र है!
सन् 1962 का भारत-चीन युद्ध वास्तव में स्वतंत्र भारत की सबसे दर्दनाक और अब तक की सबसे खराब बाह्य सुरक्षा विफलता थी। किसी भी लोकतांत्रिक देश ने अपना पूरा जोर लगाकर इस पराजय के तमाम पहलुओं को तलाशने के लिए विस्तृत जाँच प्रारंभ की होती। लेकिन व्यवहार में क्या हुआ? कुछ भी नहीं! सरकार एक व्यापक जाँच न करवाने को लेकर पूरी तरह से निर्लज्ज थी। अपनी गलतियों को सामने क्यों आने दिया जाए? खुद को सजा क्यों दें? इस्तीफा देने को मजबूर क्यों हों? अपने पद को क्यों छोड़ा जाए? लोगों को जानने का हक नहीं है! यह एक निरंकुश लोकतंत्र था। ‘राष्ट्र-हित’ का बहाना लें और सच्चाई को छिपाएँ। हालाँकि यह राष्ट्र-हित तो नहीं था, लेकिन शुद्ध रूप से स्वार्थ था, जिसने यह निर्णय लेने को मजबूर किया। जो भी पेश नहीं किया जा सकता, उसे कालीन के नीचे छिपा दो। सारा दोष सिर्फ चीन और कुछ बलि के बकरों के सिर मढ़ दो।
उपर्युक्त निम्नलिखित से स्पष्ट होगा। युद्ध में ठहराव (24 अक्तूबर, 1962 से 13 नवंबर, 1962 तक) के दौरान नेहरू ने 9 नवंबर, 1962 को राज्यसभा में कहा, “20 अक्तूबर के बाद घटित हुई घटनाओं को लेकर, विशेषकर कुछ शुरुआती दिनों की ओर, हमने जिस हार का सामना किया, उससे लोग सदमे में हैं। हम सभी सदमे में हैं। इसलिए, मुझे इस बात की उम्मीद है कि क्या गलतियाँ या त्रुटियाँ हुई हैं और उनके लिए कौन जिम्मेदार है, का पता लगाने के लिए जाँच होगी।” शांतिकाल के दौरान भारत अपनी तैयारियाँ कर रहा था और वे, जो दिल्ली में सत्ता में बैठे थे, उन्हें इस बात का यकीन था कि भारत चीन को करारा जवाब देगा। लेकिन इसके बाद 14 से 20 नवंबर के बीच हुआ युद्ध और भी विनाशकारी साबित हुआ। अपने ऊपर इसके नतीजों को देखते हुए नेहरू आसानी से जाँच की बात को भूल गए।
हालाँकि, भारतीय मंत्रिमंडल या फिर सरकार द्वारा कोई जाँच नहीं स्थापित की गई, लेकिन नए थलसेनाध्यक्ष जनरल जे.एन. चौधरी ने एक संचालन समीक्षा समिति की स्थापना की, जिसकी अगुवाई लेफ्टिनेंट जनरल टी.बी. हेंडरसन ब्रूक्स उर्फ भारतीय सेना के एच.बी. (जो अॉस्ट्रेलिया में पैदा हुए दूसरी पीढ़ी के अंग्रेज प्रवासी थे, जिन्होंने 1930 के दशक में ब्रिटिश रहने के बजाय भारतीय होना चुना) और सदस्य के रूप में भारतीय सैन्य अकादमी के तत्कालीन कमांडेंट ब्रिगेडियर प्रेमेंद्र सिंह भगत, विक्टोरिया क्रॉस शामिल थे।
हालाँकि, समिति के संदर्भ की शर्तें कभी प्रकाशित नहीं हुईं; उसके पास गवाहों की जाँच करने या दस्तावेजों को प्राप्त करने की कोई शक्ति नहीं थी और इसे कोई उचित कानूनी अधिकार भी नहीं प्राप्त था। इसका उद्देश्य सिर्फ यह सुनिश्चित करना था कि यह एक ऐसे व्यापक तथ्यान्वेषी मिशन में शामिल न हो, जिससे सरकार को शर्मिंदगी का सामना करना पड़े। खबरों के मुताबिक, इसके संदर्भ की शर्तें शायद सिर्फ 4 कोर के संचालन तक नियमबद्ध थीं।
एस.के. वर्मा ने ‘1962: द वॉर दैट वाज’न्ट’ में लिखा—
“घटनाओं के आधी सदी बाद भी भारतीय मीडिया का एक बड़ा धड़ा हेंडरसन ब्रूक्स- भगत रिपोर्ट को लेकर आसक्त है, जो आज भी वर्गीकृत है; जबकि केंद्र में एक से अधिक बार गैर-कांग्सरे ी सरकारें रह चुकी हैं। सन् 1962 के तत्काल बाद सरकार ने एक चतुराई भरी चाल चलते हुए सारा दोष खुद से हटाकर सेना पर मढ़ दिया। जैसाकि हम जानते हैं कि जनरल पी.एन. थापर के इस्तीफे के बाद नेहरू ने लगातार क्षुद्र राजनीतिक खेल खेलना जारी रखा, जिसमें जे.एन. चौधरी को थल सेनाध्यक्ष के रूप में नियुक्त तो किया गया, लकिे न ऐसा करने के क्रम में उनकी चार-सितारा पद पर पदोन्नति को रोक दिया गया।”
“चौधरी ने युद्ध के स्वतंत्र विश्लेषण के लिए लेफ्टिनेंट जनरल हेंडरसन ब्रूक्स और ब्रिगेडियर पी.एस. भगत को नियुक्त करने का बीड़ा उठाया था। चौधरी द्वारा ब्रूक्स और भगत को दिया गया प्रारंभिक दिशा-निर्देश इसी दायरे में सिमटा हुआ था। लेकिन चीफ को बहुत तेजी से अपने कदम पीछे खींचने पड़े, जब डी.एम.ओ., ब्रिगेडियर डी.के. उनके संज्ञान में यह बात लाए कि ऐसा होने पर इन दोनों अधिकारियों को सरकारी नीतिगत निर्णयों से संबंधित सभी फाइलों तक पहुँचने की अनुमति मिल जाएगी। निश्चित रूप से अगर हेंडरसन ब्रूक्स-भगत रिपोर्ट को प्रामाणिक होना था तो उसके स्तर को सेना मुख्यालय से ऊपर उठाया जाना चाहिए था। इस मामले को जब नए रक्षा मंत्री वाई.बी. चव्हाण के समक्ष लाया गया तो सरकार ने यह स्पष्ट किया कि ‘वह उच्च स्तरीय नीतियों और निर्णयों की जाँच करवाने की इच्छुक नहीं है।’ इसलिए समिति के दायरे को बढ़ाने के लिए इसे अपग्रेड करने के बजाय यह वैसी ही बनी रही, जैसा इसे मूल रूप से बनाया गया था; जबकि इसके संदर्भ की शर्तों को बदल दिया गया था। दोनों अधिकारियों को सिर्फ 4 कोर के संचालन का विश्लेषण करने तक सीमित रहने के आदेश दे दिए गए थे।
“इसके बाद चव्हाण ने थोड़ी हाथ की सफाई का प्रदर्शन किया, जो लोकतंत्रों में बिल्कुल आम बात है, जहाँ सत्ता में बैठे लोगों को अपने कारनामों पर परदा डालने की आवश्यकता पड़ती है। एक बार जाँच पूरी होने के बाद रिपोर्ट को ताले में बंद कर दिया गया और मंत्रिमंडल के बाहर के सिर्फ कुछ चुनिंदा लोगों को ही इसे देखने की अनुमति प्रदान की गई। इसके बाद संसद् में दिए एक बयान में चव्हाण ने नेफा (NEFA) की पराजय का सारा ठीकरा ‘पूरी तरह से सैन्य कमांडरों की विफलता और मौके पर मौजूद सैनिकों के रणनीतिक रूप से गलत तरीके से इस्तेमाल करने’ पर फोड़ दिया। रक्षा मंत्री ने ऐसा करके नेहरू सरकार की होनेवाली किसी भी आलोचना का रुख पूरी तरह से मोड़ दिया; साथ ही यह धारणा भी बना दी कि हेंडरसन ब्रूक्स-भगत रिपोर्ट पूरे चीन-भारत विवाद की एक निर्णायक समीक्षा थी; जबकि वास्तव में ऐसा था नहीं।” (एस.के.वी./एल-6864)
हालाँकि अगर इस बात पर ध्यान दें कि एक बेहद कमजोर बना दी गई समिति द्वारा दी गई यह रिपोर्ट, जिसे हेंडरसन ब्रूक्स रिपोर्ट या हेंडरसन ब्रूक्स-भगत रिपोर्ट या एच.बी.-बी रिपोर्ट (अप्रैल 1963 में प्रस्तुत) कहा जाता है और जिसे आज भी वर्गीकृत एवं अति गोपनीय की श्रेणी में रखा जाता है, इस बात की द्योतक है कि समिति अपनी संदर्भ की शर्तों से कहीं आगे चली गई। इसने कुछ बेहद अच्छा काम किया और मूल कारणों का पता लगाने में सफल रही, जिसे सत्तारूढ़ शक्तियाँ रहस्य ही बनाए रखना चाहती थीं। हो सकता है कि अगर एच.बी. रिपोर्ट को सार्वजनिक किया जाता तो नेहरू को अपने पद से इस्तीफा देना पड़ता।
कुलदीप नैयर ‘बियॉण्ड द लाइंस’ में लिखते हैं (के.एन.)—
“सितंबर 1970 में (जनरल) थापर (जिन्होंने युद्ध के समय सेना का नेतृत्व किया था) ने इंदिरा गांधी से संपर्क किया, ताकि उन्हें (एच.बी.) रिपोर्ट देखने की अनुमति प्रदान की जाए; लेकिन उन्होंने उनका अनुरोध स्वीकार नहीं किया। मैं जब सन् 1996 में राज्यसभा का सदस्य था, तब भी मैंने इस रिपोर्ट को सार्वजनिक करने की माँग की थी। सरकार ने ‘जनता के हित’ में ऐसा करने से इनकार कर दिया। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि इस रिपोर्ट में नेहरू की इतनी कड़ी आलोचना की गई है कि सरकार, यहाँ तक कि भाजपा की अगुवाई वाली भी, जनता के बीच पैदा होनेवाली नाराजगी का सामना नहीं करना चाहती। मैंने वर्ष 2008 में आर.टी.आई. का उपयोग करके भी हेंडरसन-ब्रूक्स जाँच रिपोर्ट पाने का प्रयास किया (लेकिन असफल रहा)।” (के.एन.)
22 अक्तूबर, 2012 को ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ में शीर्षक ‘चीन के दिए गए गलत नक्शे थे 1962 के युद्ध का कारण’ के तहत छपी खबर के अनुसार—“...भारत ने ’50 के दशक में और वर्ष 1960- 61 में चीन को मैकमहोन रेखा के विरोधाभासी नक्शेदिए, जो अंततः 1962 में चीन के साथ युद्ध का कारण बने। यह रहस्योद्घाटन पर्व ू मुख्य सूचना आयुक्त (सी.आई.सी.) वजाहत हबीबुल्लाह द्वारा किया गया, जो रक्षा सचिवों से इतर शायद इकलौते आम नागरिक हैं, जिन्होंने आधिकारिक तौर पर अति गोपनीय हेंडरसन ब्रूक्स-भगत रिपोर्ट को देखा है। “हमने चीन को मैकमहोन रेखा के ले-आउट पर गंभीर विरोधाभासी नक्शेदिए थे। इससे चीनियों को यह लगने लगा कि पर्ूवोत्तर में हमारी सेनाओं द्वारा नियंत्रित की जा रही पिकेटों में से एक उनकी है—उनके द्वारा हमें दिए गए नक्शों में से एक के अनुसार,” हबीबुल्लाह ने चीन की सीमा से लगती अरुणाचल प्रदेश की उस चौकी का नाम खोलने से इनकार करते हुए कहा। इसके बाद 20 अक्तूबर, 1962 को चीन की सेना उस पिकेट पर कब्जा करने के लिए सीमा पार कर गई, जिससे तल्खी और अधिक बढ़ गई। हबीबुल्लाह को इस रिपोर्ट को देखने की अनुमति तक मिली, जब पत्रकार कुलदीप नैयर ने आर.टी.आई. अधिनियम के तहत 2005 (या फिर शायद 2008?) में इसकी प्रति पाने के लिए अपील दाखिल की।” (यू.आर.एल.63)
क्लाउड एर्पी ने लिखा—“दुर्भाग्य से, इतिहासकारों और शोधकर्ताओं को आजादी के बाद के परेशानी भरे वर्षों के दौरान नेहरू के नेतृत्व के बारे में लिखने के लिए कभी भी मूल सामग्री तक पहुँचने की अनुमति प्रदान ही नहीं की गई। यह बेहद दुःख का विषय है कि प्रसिद्ध ‘नेहरू पपर्से ’ को बेहद उत्साहपर्व ूक साथ नेहरू मेमोरियल लाइब्रेरी में ताले में बंद करके रखा गया है। क्या वे वास्तव में उनके परिवार की संपत्ति हैं? मुझे यह और भी अधिक अफसोसजनक लगता है कि एन.डी.ए. सरकार ने भी अपने छह साल के शासनकाल के दौरान, जिस पर अकसर इतिहास से छेड़छाड़ के आरोप लगते रहे हैं, ने भी इस विसंगति को सुधारने की दिशा में कोई कदम नहीं उठाया। हो सकता है कि उनकी दिलचस्पी हालिया इतिहास में न हो!... इसका नतीजा है कि आज की तारीख में इतिहास- प्रेमियों और गंभीर शोधकर्ताओं के पास काम करने के लिए जवाहरलाल नेहरू के चुनिंदा कामों के सिर्फ 31 प्रकाशित खंड (वर्ष 1946 से 1955 की अवधि को कवर करनेवाले) ही उपलब्ध हैं। इसे नेहरू पेपर्स के आंशिक विवर्गीकरण के रूप में देखा जा सकता है, सिवाय इस तथ्य के कि संपादन का काम हमेशा नेहरूवादी इतिहासकारों द्वारा किया जाता है, जो चयन को कई बार दागी बना देता है। एक और समस्या ये है कि यह खंड सिर्फ नेहरू के लेखन (या कहें) को ही कवर करते हैं; अन्य अधिकारियों या फिर गण्यमान्य व्यक्तियों के लिखे पत्रों या नोट्स, जिनके नेहरू ने जवाब दिए, को संक्षिप्त रूप से सिर्फ फुटनोट्स में ही समेट दिया गया है।” (एर्पी2)