Nehru Files - 35 in Hindi Anything by Rachel Abraham books and stories PDF | नेहरू फाइल्स - भूल-35

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नेहरू फाइल्स - भूल-35

भूल-35 
चीन के साथ सीमा विवाद को नहीं निबटाना 

नेहरू चीन के साथ सीमाओं के शांतिपूर्ण समाधान तक पहुँचने में विफल रहे, जो भारत की सुरक्षा के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण था। यह देखते हुए ऐसा करना बिल्कुल भी कठिन नहीं था, क्योंकि चीन उस समय इतना अधिक मजबूत नहीं था और उसके पास निबटने के लिए कई अंदरूनी व बाहरी समस्याएँ थीं। इसलिए वह ‘आदान-प्रदान’ के लिए बिल्कुल तैयार था, विशेषकर ‘अक्साई चिन-मैकमहोन लाइन की अदला-बदली के लिए : मामूली समायोजन के साथ भारत द्वारा अक्साई चिन पर चीन के दावे को मान्यता के बदले मैकमहोन रेखा को चीन द्वारा मान्यता देना। 

स्वतंत्रता की समय-सीमा की स्थिति 
भारत की सीमाएँ तिब्बत के साथ थीं, लेकिन चीन के साथ नहीं। हालाँकि सन् 1950 में चीन द्वारा तिब्बत पर जबरन कब्जे और भारत द्वारा उसे मूक स्वीकृति प्रदान करने के बाद भारत-तिब्बत सीमाएँ भारत-चीन सीमाओं में बदल गईं। 

ब्रिटेन द्वारा रूस, जो एशिया में दक्षिण की ओर विस्तार कर रहा था, के साथ खेले जा रहे शह-मात के ग्रेट गेम के तहत ब्रिटेन ने उत्तर भारत को रूस और चीन से सुरक्षित रखने के लिए भारत की उत्तरी सीमाओं में कुछ समायोजन किया था—कुछ दूसरे पक्ष की सहमति के साथ और कुछ बिना सहमति के। ब्रिटेन द्वारा मानचित्रीय आक्रामकता, एकतरफा मानचित्रीय बदलाव और मानचित्रीय फ्लिप-फ्लॉप, अपनी सामरिक आवश्यकताओं के अनुरूप सीमाओं को समायोजित करते हुए, जो समय के साथ बदलता रहा। इसने भारत को विरासत के रूप में अस्पष्ट और विवादित सीमाओं के साथ छोड़ा। 

सन् 1950 के बाद भारत-तिब्बत सीमा या भारत-चीन सीमा 3,325 कि.मी. लंबी एक विशाल सीमा है, जिसमें चार निम्नलिखित खंड शामिल हैं— 
1. पश्चिमोत्तर खंड : लद्दाख-तिब्बत सीमा। 
2. पूर्वोत्तर खंड : अरुणाचल प्रदेश (पूर्व में NEFA—North-East Frontier agency)- तिब्बत सीमा, जिसे मैकमहोन रेखा के रूप में जाना जाता है, जो भूटान के पूर्व में है। 
3. मध्य खंड : जम्मूव कश्मीर के पूर्व और नेपाल के पश्चिम में हिमाचल प्रदेश-तिब्बत और उत्तराखंड-तिब्बत सीमा। 
4. सिक्किम-तिब्बत सीमा। 

लद्दाख-तिब्बत सीमा और अक्साई चिन 
इस क्षेत्र में भारत और चीन के बीच विवाद की प्रमुख जड़ अक्साई चिन है। अक्साई चिन (‘सफेद पत्थरों का रेगिस्तान’) लद्दाख के उत्तर में है। यह 17,000 से 19,000 फीट की ऊँचाई पर स्थित है। इसकी पूर्वी सीमा तिब्बत से लगती है और उत्तरी सीमा चीन के शिंजियांग प्रांत से लगती है। 

अक्साई चिन का संक्षिप्त सीमा इतिहास 
सन् 1842—1842 में जम्मूव कश्मीर के तत्कालीन महाराजा गलुाब सिंह और दलाई लामा के प्रतिनिधियों द्वारा हस्ताक्षरित की गई शांति संधि के अनुसार, तिब्बत और लद्दाख के बीच पुरानी स्थापित सीमाओं (पारंपरिक सीमाओं) को माना जाना था। यह एक शांति संधि थी, न कि सीमा समझौता; क्योंकि इसमें सिर्फ पारंपरिक सीमाओं को मानने की बात की गई थी। लकिे न वे पारंपरिक सीमाएँ वास्तव में कहाँ स्थित थीं, यह कहीं निर्दिष्ट नहीं किया गया था। इसी वजह के चलते ब्रिटेन ने आनेवाले वर्षों में एक सीमा को चिह्न‍ित करने और परस्पर सहमति का प्रयास किया, लकिे न उसे कोई सफलता नहीं प्राप्त हुई। 

सन् 1847—ब्रिटेन द्वारा गठित एक ‘सीमा आयोग’ को जम्मूव कश्मीर की पूर्वी सीमा का निर्धारण करने का काम सौंपा गया। आयोग को लद्दाख की पारंपरिक सीमाएँ बिल्कुल उचित लगीं—कराकोरम पर्वत शृंखला प्राकृतिक पूर्वी सीमा का निर्माण करती है। लेकिन उन्होंने डेमचोक की संभावित विवादित स्थिति पर ध्यान दिलवाया। 

ब्रिटेन ने बाद में एक दूसरा सीमा आयोग गठित किया, जिसके सदस्य थे—अलेक्जेंडर कनिंघम, थॉमस थॉमसन और हेनरी स्ट्रेची। उन्होंने जम्मूव कश्मीर और चीन के बीच सीमा को चिह्न‍ित करने के लिए चीन को भी आमंत्रित किया। हालाँकि, चीन की ओर से कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की गई, क्योंकि वह ब्रिटेन के इरादों को लेकर संदेह में था। पूर्व में उसे ब्रिटेन द्वारा जबरदस्ती हांगकांग को छोड़ने और 1842 में नानकिंग की संधि के जरिए विदेशी व्यापार के लिए बंदरगाहों को खोलने के लिए मजबूर किया जा चुका था। 

सन् 1865—डब्‍ल्यू.एच. जॉनसन के सन् 1865 के एक सर्वेक्षण के परिणामस्वरूप पूर्वी सीमा को कुएन लुन पर्वत-शृंखला को शामिल करने के लिए कराकोरम पर्वत-शृंखला के पार तक विस्तारित किया गया था, जिसके चलते शहीदुल्ला और अक्साई चिन इसमें शामिल हो गए। अक्साई चिन (‘सफेद पत्थरों का रेगिस्तान’) लद्दाख के उत्तर में है। यह 17,000 से 19,000 फीट के बीच की ऊँचाई पर स्थित है। इसकी पूर्वी सीमा तिब्बत से लगती है और उत्तरी सीमा चीन के शिंजियांग प्रांत से लगती है। इस आधार पर नया मानचित्र सन् 1868 में प्रकाशित हुआ था।

हालाँकि जॉनसन द्वारा प्रकाशित किए गए मानचित्र और सर्वेक्षण के नतीजे ब्रिटिश सरकार द्वारा अस्वीकार कर दिए गए थे। जम्मूव कश्मीर के महाराजा ने भी शहीदुल्ला से अपने सैनिक हटा लिये थे। 

सन् 1889—ब्रिटिश भारत के वायसराय लैंसडाउन ने सुझाव दिया कि ब्रिटेन को चीन को ब्रिटिश सीमा से आगे कराकोरम और लुएन कुन पर्वत-शृंखला के बीच के लावारिस पड़े स्थान (जिसमें अक्साई चिन भी शामिल है) तक आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए, उसे रूस से सुरक्षित रखने के लिए। उन दिनों ‘ग्रेट गेम’ खेलने में व्यस्त ब्रिटेन रूस को लेकर अधिक चिंतित था, जो दक्षिण में विस्तार करते हुए एशिया आने का प्रयास कर रहा था, न कि चीन को लेकर, जो एक कमजोर देश था, जिसे ब्रिटेन कई बार धमका चुका था। 

सन् 1892—चीन ने कराकोरम दर्रेपर एक शिलालेख के साथ एक सीमा चिह्न‍ बनाया कि यहाँ से चीनी क्षेत्र शुरू होता है और कराकोरम दर्रा, शहीदुल्ला और कुएन लुन पर्वतमाला एवं कराकोरम पर्वतमाला के बीच के क्षेत्र पर दावा किया, जिसमें अक्साई चिन भी शामिल था। ब्रिटेन पर कोई फर्क नहीं पड़ा। वे सिर्फ यह चाहते थे कि यह क्षेत्र रूसियों की पहुँच के बाहर रहे। अगर चीन उन स्थानों की सुरक्षा कर रहा है तो और भी बेहतर है, क्योंकि इससे ब्रिटेन के संसाधन बच रहे हैं। ब्रिटेन चीन को अपनी तरफ और रूस के खिलाफ चाहता था। अगर चीन उनके बचाव के लिए मुसीबत उठाने को तैयार था तो वे उन तमाम सीमावर्ती क्षेत्रों और तिब्बत को खुद नियंत्रित करने को लेकर जरा भी उत्सुक नहीं थे।

 इसके फलस्वरूप ब्रिटिश विदेश विभाग ने नोट किया—“...हमने हमेशा उम्मीद की थी कि वे (चीनी) शहीदुल्ला और कुएन लुन एवं कराकोरम पर्वत-शृंखला के बीच के क्षेत्र (जिसमें अक्साई चिन भी शामिल है) में अपने अधिकारों को प्रभावी तरीके से लागू करेंगे। हम किसी भी मौके पर सीमा स्तंभ के निर्माण को लेकर चीन के साथ प्रतिवाद नहीं करना चाहते। हम चीन द्वारा ‘लावारिस पड़े क्षेत्र’ को भर लेने के विचार का समर्थन करते हैं, जो भविष्य में सीमाओं के परिसीमन के अधीन होगा।” (डी.डब्‍ल्यू./54-55) 

सन् 1897—1894-95 के चीन-जापान युद्ध में चीन की हार के बाद ब्रिटेन सोच-विचार में पड़ गया। उसे लगा कि चीन कराकोरम दर्रे एवं अन्य क्षेत्रों को रूस से बचाने में सक्षम नहीं रहेगा और इसके चलते ब्रिटेन ने अपनी सीमा को उत्तर व पर्व ू की ओर उस क्षेत्र में विस्तारित करने के बारे में सोचा, जिसे वह पहले चीन के लिए छोड़ने की सोच रहा था, जैसे ब्रिटेन उस क्षेत्र का मालिक हो! 

सन् 1899—ब्रिटेन द्वारा मैकार्टनी-मैकडोनाॅल्ड लद्दाख-तिब्बत रेखा चीन सरकार को प्रस्तावित की गई थी, जिसमें अक्साई चिन को तिब्बत के पास छोड़ दिया गया था। कराकोरम पर्वत-शखृं ला इस सीमा के लिए प्राकृतिक सरहद बनाती थी। इस रेखा को पीकिगं में ब्रिटिश मंत्री सर क्लाउड मैकडोनाॅल्ड द्वारा चीन को प्रस्तुत किया गया था। चीन ने उस नोट पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और अंग्जों ने इसे चीन की मौन सहमति माना। यह रेखा लगभग वैसी ही है, जैसी लद्दाख स्थित वास्तविक नियंत्रण रेखा है। 

वर्तमान स्थिति 
ब्रिटिश सरकार ने उपर्युक्त प्रस्ताव (जिसमें अक्साई चिन तिब्बत के हिस्से के रूप में शामिल है) को जारी रखा, इस बात कि पुष्टि सन् 1914 के शिमला अधिवेशन (अधिक जानकारी के लिए नीचे देखें) में संलग्न नक्शे से हो जाती है। (मैक्स/35) 

गौरतलब है कि सर्वे अ‍ॉफ इंडिया के मानचित्र उत्तरी सीमाओं को वर्ष 1954 तक ‘सीमा अनिर्धारित’ के रूप में प्रदर्शित किया जा रहा था, जैसाकि ब्रिटिशों द्वारा दिखाया जाता आ रहा था। ए.जी. नूरानी अपनी पुस्‍तक में उल्लिखित करते हैं कि माउंटबेटन की वाइसरॉयल्टी की रिपोर्ट में संलग्न मानचित्रों में इन सीमाओं को ‘सीमा अनिर्धारित’ के रूप में अंकित किया गया था। (नूर/210) 

सरदार पटेल के नेतृत्व वाले रियासती मंत्रालय द्वारा जुलाई 1948 में भारतीय राज्यों पर जारी किए गए श्वेत-पत्र के साथ संलग्न मानचित्र में भी इन सीमाओं को स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया गया था। (नूर/221) 

हालाँकि, जुलाई 1954 के बाद नेहरू की पहल पर मानचित्रों में एकतरफा बदलाव किए गए थे और उनमें स्पष्ट निर्धारित की गई सीमाएँ दिखाई जाने लगी थीं (जिनमें अक्साई चिन भी शामिल था), जिसे भारत ने एकतरफा तय किया था। 

ब्रिटेन ने कभी भी अक्साई चिन में भौतिक उपस्थिति दर्ज करवाने या फिर किसी भी रूप में वहाँ अपना अधिकार जमाने का प्रयास नहीं किया। स्वतंत्रता के बाद की भारत सरकार ने भी कराकोरम पर्वत-शृंखला से परे अक्साई चिन मैदानों में अपना नियंत्रण बढ़ाने के लिए कोई कदम नहीं उठाया। 

अक्साई चिन चीन के भौतिक कब्जे में था और उन्होंने सन् 1950 में तिब्बत को शिंजियांग (सिंकियांग) से जोड़ने के लिए एक राजमार्ग का निर्माण किया था, क्योंकि वहाँ पर दोनों को जोड़नेवाला कोई जमीनी रास्ता मौजूद नहीं था। अक्साई चिन पूरी तरह से निर्जन व बंजर था और भारत के लिए उसका कोई रणनीतिक या आर्थिक महत्त्व नहीं था। यह देखते हुए कि भारत का इस पर कानूनी रूप से कोई ठोस दावा नहीं है, इसलिए नेहरू का उसे लेकर जिद्दी होने का कोई फायदा नहीं था, विशेषकर तब, जब चीन उत्तर-पूर्व में स्थित मैकमहोन रेखा को लेकर अदला- बदली के लिए तैयार था।

जनरल थिमय्या ने सन् 1959 में खुद कहा था कि अक्साई चिन का भारत के लिए कोई रणनीतिक महत्त्व नहीं है। 

मैकमहोन रेखा 
मैकमहोन रेखा को सन् 1914 के शिमला अधिवेशन में अंतिम रूप दिया गया था। ब्रिटिशों द्वारा आयोजित शिमला अधिवेशन, जिसमें तिब्बत एवं चीन दोनों को ही आमंत्रित किया गया था और क्रमशः लॉञ्चन शास्त्र और इवान चेन द्वारा प्रतिनिधित्व किया गया था, के तहत 6 अक्तूबर, 1913 से लेकर 3 जुलाई, 1914 के बीच कुल आठ औपचारिक सत्र आयोजित हुए। सर हेनरी मैकमहोन, ब्रिटिश भारत के तत्कालीन विदेश सचिव, इस अधिवेशन के प्रमुख वार्त्ताकार और ब्रिटिश पूर्णाधिकार-युक्त थे और उनके सहायक थे चार्ल्स बेल। लॉञ्चन शास्त्र और इवान चेन को क्रमशः ल्हासा व नानजिंग से आदेश एवं स्पष्टीकरण लेने होते थे, जिसमें लंबी दूरी और अधिवेशन के संचार नेटवर्क के चलते काफी लंबा समय लगा। इसी वजह के चलते यह अधिवेशन इतना लंबा खिंचा—करीब दस महीने। 

चीन ने प्रारंभ में तो यह कहते हुए अधिवेशन में तिब्बत की उपस्थिति पर आपत्ति दर्ज करवाई कि उसकी कोई स्वतंत्र स्थिति नहीं है और वह चीन का ही एक हिस्सा है; लेकिन बाद में इस डर के चलते कि कहीं ब्रिटेन तिब्बत को लेकर एकतरफा वैसे ही आगे न बढ़ जाए, जैसे रूस ने मंगोलिया के मामले में चीन को दरकिनार करके किया था, उसने हामी भर दी। 

इस अधिवेशन में चीन को भीतरी तिब्बत पर नियंत्रण देने, जबकि बाहरी तिब्बत की स्वायत्तता को दलाई लामा के नेतृत्व में मान्यता प्रदान करने का प्रस्ताव रखा गया। बाहरी तिब्बत में पश्चिमी एवं मध्य तिब्बत शामिल थे, जिनमें ल्हासा, चमडो और शिगात्से शामिल हैं और साथ ही ब्रिटिश भारत की सीमा से लगनेवाले क्षेत्र भी; जबकि भीतरी तिब्बत में अमदो और खम का हिस्सा शामिल था। चीन एवं ब्रिटेन दोनों को तिब्बत की क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करना था और बाहरी तिब्बत के प्रशासन में हस्तक्षेप करने से दूर रहना था। इसके अलावा, बाहरी तिब्बत को चीन के प्रांत के रूप में परिवर्तित नहीं किया जा सकता था। 

इस अधिवेशन के दौरान पूर्वोत्तर भारत और तिब्बत के बीच की सीमा पर भी चर्चा हुई और तिब्बत एवं ब्रिटिश भारत के बीच इसे अंतिम रूप दे दिया गया, जिसे बाद में मैकमहोन रेखा के रूप में जाना गया। चीन को मैकमहोन रेखा पर चर्चा के लिए इसलिए आमंत्रित नहीं किया गया था, क्योंकि यह तिब्बत और भारत के बीच एक समझौता था, चीन और भारत के बीच नहीं। यह कोई गोपनीय वार्त्ता नहीं थी, चीन इसके बारे में जानता था—और उसने कोई आपत्ति नहीं जताई।

 इवान चेन ने 27 अप्रैल, 1914 को प्रारूप अधिवेशन को प्रारंभ किया। हालाँकि दो दिन बाद ही, 29 अप्रैल, 1914 को, चीन ने चेन की काररवाई का खंडन किया और पूर्ण हस्ताक्षर के साथ आगे जाने से इनकार कर दिया। यहाँ पर ध्यान देने योग्य बात यह है कि चीन ने पूर्ण हस्ताक्षर से इसलिए इनकार नहीं किया कि उसे भीतरी-बाहरी तिब्बत से परेशानी थी, बल्कि ऐसा वास्तव में इसलिए हुआ, क्योंकि चीन और तिब्बत अपने दोनों के बीच विभाजन रेखा से सहमत नहीं हो सकते थे। ब्रिटेन और तिब्बत ने 3 जुलाई, 1914 को समझौते पर हस्ताक्षर कर दिए। (एर्पी/126) यहाँ तक कि सन् 1947 में चीन ने, जो तब नेशनलिस्टों के अधीन था, तत्कालीन भारत सरकार को अवगत करवाया कि वे मैकमहोन रेखा को मान्यता नहीं देंगे। 

अधिवेशन के मसौदे या अंतिम अधिवेशन के टेक्स्ट में विशेष तौर पर या स्पष्ट रूप से भारत- तिब्बत सीमा या फिर मैकमहोन रेखा का लेशमात्र भी जिक्र नहीं था और रेखा सिर्फ संलग्न मानचित्र में दरशाई गई थी। अधिवेशन के अनुच्द-9 में स्पष्ट रूप से कहा गया है—‘वर्तमान अधिवेशन के उद्शदे्य के लिए तिब्बत की सीमाओं और भीतरी एवं बाहरी तिब्बत के बीच की सीमाओं को यहाँ पर संलग्न किए गए मानचित्र में क्रमशः लाल व नीले रंग से प्रदर्शित किया गया है।” 

मैकमहोन रेखा दो पृष्ठों वाले एक मानचित्र पर खींची गई एक मोटी लाल रेखा थी, इसलिए इसके त्रुटिपूर्ण होने के साथ अलग-अलग अर्थ निकाले जाने और विवादों में घिरने की पूरी आशंका है। चूँकि मुनासिब निरंतर प्रोटोकॉल, जिनमें एक संयुक्त सर्वेक्षण के माध्यम से जमीन पर सहमत रेखा के स्थान की पहचान करने के लिए कार्टोग्राफिक तकनीकों का प्रयोग किया जाना चाहिए था, को नहीं अपनाया गया, यह रेखा अनिश्चित बनी रही और विवादास्पद दावों की गुंजाइश भी बनी रही। भारतीय मानचित्र 1954 तक इसे डैश/टूटी हुई रेखा के रूप में दरशाते रहे, ताकि यह पता रहे कि यह मोटे तौर पर परिभाषित तो है, लेकिन अभी तक सीमांकित नहीं है, यानी इसे जमीनी सर्वेक्षण के आधार पर चिह्न‍ित नहीं किया गया है। हालाँकि, जुलाई 1954 के बाद भारतीय मानचित्र इसे एक वास्तविक रेखा के रूप में दरशाने लगे, जिससे पता चलता था कि यह अच्छे से सीमांकित है—नेहरू की पहल पर। 

मैकमहोन ने मैकमहोन रेखा के जरिए ब्रिटिश भारत की सीमाओं को उत्तर दिशा की ओर प्रभावी रूप से बढ़ा दिया था और इसमें 50,000 वर्ग मील का क्षेत्र जोड़ दिया था, जिस पर तब तक तिब्बत का प्रशासन था, जिसमें प्रसिद्ध बौद्ध मठों के लिए प्रसिद्ध तवांग भी शामिल था। तवांग व्यापार मार्ग पर स्थित था और ब्रिटिश उसे अपने नियंत्रण में लेना चाहते थे। हालाँकि अनिच्छा से ही सही, तिब्बत बाहरी तिब्बत पर अपने कब्जे के बदले ऐसा करने के लिए राजी हो गया। 

बाद में तिब्बतियों ने दावा किया कि वे तवांग सहित अन्य क्षेत्रों (जो तब तक उनके थे) के ब्रिटिश भारत का हिस्सा बनने के लिए—जो कि उसके हिसाब से मैकमहोन रेखा के दक्षिण में था—बेहद अनिच्छा के साथ सहमत हुए थे, वह भी ब्रिटेन के इसके बदले में अपनी बात पूरी करने के; यानी चीन को बाहरी भीतरी तिब्बत के लिए राजी करने और समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए मनाने के बदले। चूँकि चीन ने समझौते पर हस्ताक्षर करने से इनकार कर दिया था, तिब्बतियों का अधिकार न सिर्फ बाहरी और भीतरी दोनों तिब्बत पर था, बल्कि तवांग सहित उन क्षेत्रों पर भी दावा था, जिन्हें उन्होंने तब छोड़ दिया था। भारत की स्वतंत्रता के तुरंत बाद तिब्बत से भारत ने ब्रिटिशों द्वारा उसकी सीमाओं पर कब्जा किए गए क्षेत्रों को लौटाने को कहा था। 

भारत द्वारा इस बात पर राजी होने कि तिब्बत एक स्वतंत्र राष्ट्र नहीं है, बल्कि चीन का हिस्सा है, उन तमाम संधियों की वैधता पर प्रश्नचिह्न‍ लग जाता है, जिन पर तिब्बत ने सहमति व्यक्त की थी, चीन ने नहीं। भारत ने अपनी तिब्बत नीति से निश्चित ही आत्मघाती गोल किया—दलाई लामा ने बिल्कुल सही ध्यान दिलाया था कि जब सन् 1914 में मैकमहोन रेखा को स्वीकार किया गया था, तब तिब्बत की संप्रभु स्थिति को अस्वीकार करना खुद मैकमहोन रेखा की वैधता को अस्वीकार करना था। 

मध्य वृत्तखंड 
मध्य वृत्तखंड तिब्बत से लगती हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड की सीमाओं को संदर्भित करता है। हिमाचल-तिब्बत सीमा लगभग 260 किलोमीटर लंबी है, जबकि उत्तराखंड-तिब्बत सीमा लगभग 350 किलोमीटर है। ये सीमाएँ भी अच्छे से सीमांकित नहीं हैं, जिसके परिणामस्वरूप यहाँ भी सीमा-विवाद होते रहते हैं, हालाँकि वे अक्साई चिन या फिर मैकमहोन रेखा जितने विवादित नहीं होते। 

सिक्किम-तिब्बत सीमा 
सिक्किम खंड के पश्चिम में नेपाल और पूर्व में भूटान आता है। 
सन् 1890—ग्रेट ब्रिटेन और चीन के बीच 17 मार्च, 1890 को कलकत्ता में सिक्किम और तिब्बत को लेकर हुए समझौते, जिसे 27 अगस्त, 1890 को लंदन में मंजूरी दी गई, के प्रमुख बिंदु इस प्रकार थे— 

“सिक्किम और तिब्बत की सीमा उस पर्वत-शृंखला का शिखर होगा, जो सिक्किम तीस्ता और उसकी सहायक नदियों में बहनेवाले पानी को अलग करता है। यह स्वीकार किया जाता है कि ब्रिटिश सरकार, जिसका सिक्किम राज्य पर शासन यहाँ मान्य किया जा रहा है, का राज्य के आंतरिक प्रशासन और अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर प्रत्यक्ष और विशेष नियंत्रण होगा।” 

‘दार्जिलिंग भारत में 5 दिसंबर, 1893 को हस्ताक्षरित व्यापार, संवाद और चरागाहों के संबंध में संलग्नक नियमन...’ (उपर्युक्त) में स्पष्ट था—“सीमा के तिब्बती तरफ यातुंग में एक ट्रेड मार्ट स्थापित किया जाएगा और मई 1894 के पहले दिन से इसे सभी ब्रिटिश विषय-वस्तुओं के व्यापार के लिए खोल दिया जाएगा। भारत सरकार अपने अधिकारियों को यातुंग में रहने के लिए भेजने को स्वतंत्र है, ताकि वे वहाँ रहकर मार्ट में ब्रिटिश व्यापार की स्थितियों को देख सकें।” 

सबसे दिलचस्प बात यह है कि ब्रिटिशों ने उपर्युक्त समझौतों में तिब्बतियों को शामिल नहीं किया, क्योंकि उन्होंने निश्चित ही विरोध किया होता। इसलिए वे चीन के साथ एक प्रक्रिया में शामिल हुए। तिब्बती अधिकारियों ने इन संधियों की वैधता को स्वीकार करने से इनकार कर दिया और विरोध में समझौते के तहत तिब्बत व सिक्किम के बीच के सीमा-चिह्न‍ों को उखाड़ दिया। 

सन् 1904—कर्नल यंगहस्‍बैंड के नेतृत्व में ब्रिटिश सैन्य दल ने तिब्बत पर हमला किया और अगस्त 1904 में ल्हासा में प्रवेश करते हुए उसे व्यापारिक समझौता करने तथा तिब्बतियों को रूसियों से संबंध स्थापित करने से रोकने के लिए मजबूर किया, जो वे खुद को ब्रिटिश-चीन डिजाइन से बचाने के लिए करने का प्रयास कर रहे थे। ब्रिटिशों द्वारा तिब्बत पर सन् 1904 में ‘एंग्लो-तिब्बती संधि’ थोप दी गई, जिसके तहत तिब्बत को 1890 के एंग्लो-चीनी समझौते को स्वीकार करना था, सिक्किम-तिब्बत सीमा को मान्यता प्रदान करनी थी, ब्रिटिश और भारतीय व्यापारियों को स्वतंत्र रूप से यात्रा करने की अनुमति प्रदान करना, भारत के साथ व्यापार पर सीमा-शुल्क नहीं लेना, क्षतिपूर्ति के रूप में ब्रिटेन को 25 लाख रुपए का भुगतान करना और बिना ब्रिटिश अनुमति के किसी विदेशी शक्ति के साथ संबंध नहीं स्थापित करना शामिल था। 

संयोग से, चीन ने सिक्किम को मान्यता प्रदान कर दी, जिसे भारत ने सन् 1975 में अपने राज्य के रूप में मिला लिया था। अब सिक्किम को लेकर कोई विवाद नहीं है, न ही तिब्बत-चीन की उसकी सीमा पर। 

संक्षेप में, सिक्किम-तिब्बत सीमा का सीमांकन किया गया है। इस दावे को चीन ने स्वीकार कर लिया है। कोई विवाद नहीं है। 

स्वतंत्रता के बाद सीमा की स्थिति 
स्वतंत्रता के बाद क्या किया जाना चाहिए था 
भारत को तिब्बत, जो चीन के साथ एक बफर स्टेट था, को एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में गायब नहीं होने देना चाहिए था। उस भूल (भूल#33) के हो जाने के बाद समझदारी भरे निम्नलिखित कदम उठाए जाने चाहिए थे— 
कदम-1: भारत और चीन दोनों को ही विवादित सीमाओं की वास्तविकता का जायजा लेना चाहिए था और दोनों ही देशों की जनता को उपर्युक्त के बारे में जानने देना चाहिए था, ताकि कोई गलत धारणा, दुष्प्रचार और अनुचित राजनीति न हो सके। 
कदम-2: दोनों देशों के विशेषज्ञों से युक्त एक टीम को जमीनी सर्वेक्षण करना चाहिए था और सीमाओं को परिभाषित करने का प्रयास करना चाहिए था। 
कदम-3: विशेषज्ञ दल जिन क्षेत्रों को हल करने में विफल रहे, उन्हें उच्‍च स्तर पर अग्रिम चर्चा के लिए छोड़ा जा सकता था, जहाँ उन्हें आदान-प्रदान की भावना के साथ हल किया जा सकता था। 

लेकिन क्या ऊपर दरशाए गए समझदारी भरे कदमों को उठाया गया था? दुर्भाग्यवश, नहीं! उम्मीदों के बिल्कुल विपरीत, कोई भी यह जानकर हैरान रह जाएगा कि चीन तो इन समझदारी भरे कदमों के लिए राजी था, भारत नहीं था! नेहरू की योजना कुछ और ही थी—विषम, बेशर्म और अनुचित! कृपया नीचे देखें। 

चीन का रुख और रजामंदी वाले एक समझौते के प्रति सम्मति 
जैसाकि ऊपर स्पष्ट किया गया है कि चीन ने ऐतिहासिक दृष्टि से भारत के साथ किसी भी सीमा पर सहमति नहीं जताई थी और किसी भी सीमा समझौते पर हस्ताक्षर नहीं किए थे, सिर्फ सिक्किम के साथ सीमाओं को छोड़कर। 

सन् 1949 के बाद से पीपुल्स रिपब्लिक अ‍ॉफ चीन का रुख यह था कि वे ब्रिटिश साम्राज्यवादी अपमान के उस दाग को हटाना चाहते थे, जिसका चीन ने सीमाओं एवं अन्य मामलों के संबंध में सामना किया था और इसके साथ ही ब्रिटिशाें द्वारा अन्यायपूर्ण और गैर-कानूनी तरीके से खींची गई सीमाओं को स्वीकार करने के बजाय उन्होंने न्यायसंगत और पारस्परिक रूप से स्वीकार्य तरीके से सीमाओं को निपटाने के लिए विचार-विमर्श, वार्त्ता और संयुक्त जमीनी सर्वेक्षण करने की राह को चुना, न कि ऐसे क्षेत्र को हथियाने के, जिसके वे हकदार नहीं थे। इसके अलावा, वे ब्रिटिशों द्वारा रखे गए नामों को भी हटाना चाहते थे और सीमाओं को नए भारतीय-चीनी नाम देना चाहते थे। 

सन् 1949 में सत्ता तक पहुँचनेवाले चीनी कम्युनिस्ट एक सुलझी हुई सीमा की चाह रखते थे, विशेषकर इसलिए, क्योंकि उनके पास पहले से ही कई समस्याएँ थीं (आंतरिक समस्याएँ, कोरिया, ताइवान, तिब्बत एवं एक लड़ाकू अमेरिका) और वे इनमें इजाफा नहीं करना चाहते थे। 

चीन ने अन्य देशों के साथ शांतिपूर्वक सीमा का निर्धारण किया 
जैसा कि उपर्युक्त चीन द्वारा 1960 में बर्मा (म्याँमार) के साथ किए गए समझौते से साबित हो गया—बर्मा एवं चीन की नई सीमा करीब-करीब मैकमहोन रेखा के साथ ही है और दोनों पक्षों ने कुछ समायोजनों के साथ इसे स्वीकार कर लिया। चीन ने बातचीत के जरिए नेपाल और पाकिस्तान के साथ भी अपनी सीमाओं का सौहार्दपूर्वक समझौता किया और सीमा समझौतों पर हस्ताक्षर किए। सिर्फ भारत अपवाद बना रहा।

 “तिब्बत पर हमला करने और कब्जे के बाद चीन ने तत्परता के साथ चीन-नेपाल सीमा को तय करने और उसका सीमांकन करने का काम शुरू किया। नेपाल के राजा और माओ द्वारा 5 अक्तूबर, 1961 को सीमा समझौते पर हस्ताक्षर किए गए और इसके बाद भौतिक रूप से वास्तविक सीमा रेखा का सीमांकन किया गया। संयुक्त सीमा सीमांकन के दौरान लगभग 32 बिंदुओं पर दावे और जवाबी दावे थे। चीनियों ने इन्हें बहुत तेजी से निबटाया, जो उस समय के लगभग ही नेपाल और म्याँमार के साथ सीमा समझौतों की दिशा में आगे बढ़ रहे थे, ताकि वे दुनिया को यह दिखा सकें कि वे कितने तर्कसंगत थे! माउंट एवरेस्ट की बात करें तो इस विवाद का निबटारा तब हुआ, जब काठमांडू दौरे पर गए प्रधानमंत्री झोउ एनलाई ने घोषणा की कि ‘माउंट एवरेस्ट नेपाल का है’।” (एस.के.वी./एल-1620) 

भारत ने जुलाई 1954 में नक्शों में एकतरफा बदलाव किया 
1 जुलाई, 1954 को विदेश मंत्रालय के महासचिव और विदेश सचिव के नाम भेजे मेमो में नेहरू के निर्देश थे (वर्ग कोष्ठक के भीतर इटैलिक्स में लेखक की टिप्पणी)—(जे.एन.एस.डब्‍ल्यू./ खंड-26/481-2) 

“6. हमें भविष्य में कुछ ऐतिहासिक संदर्भों को त्याग देना चाहिए, विशेषकर मैकमहोन रेखा या किसी अन्य सीमांत रेखा को तिथि के आधार पर या अन्यथा छोड़ देना चाहिए। हमें बस, अपने सीमांत को देखना चाहिए, बल्कि मैकमहोन नाम का प्रयोग ही बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है और यह हमें ब्रिटिशों के विस्तार के दिनों में वापस ले जाता है।” 

(लेकिन उस समय नेहरू साम्राज्यवादी/विस्तारवादी ब्रिटेन की औपनिवेशिक मैकमहोन रेखा को खारिज करने के बाद स्वतत्रं भारत और चीन के बीच परस्पर सहमति से एक नई, औचित्यपूर्ण, सिर्फ रेखा/सीमा के विषय में बात नहीं कर रहे थे। उनका मकसद था, सिर्फ औपनिवेशिक रूप से बनाई गई मैकमहोन रेखा जैसी रेखाओं को मान्यता तो देना। लेकिन ब्रिटिश नामों की विरासत को ही जीवित नहीं रखना, जो उन्हें नकारात्मक और विस्तारवादी दिखते थे।) 

“7. इस सीमा से संबंधित हमारे सभी पुराने मानचित्रों की जाँच बेहद सावधानी के साथ करनी चाहिए और जहाँ आवश्यक हो, वापस ले लिये जाने चाहिए। नए नक्शे छापे जाने चाहिए, जिनमें हमारी उत्तरी और उत्तर-पूर्वी सरहदों को किसी भी ‘रेखा’ द्वारा संदर्भित नहीं किया जाना चाहिए। इसके अलावा, इन नए नक्शों में यह भी नहीं प्रदर्शित होना चाहिए कि कोई असीमांकित क्षेत्र है। इन नए नक्शों को दुनिया भर के हमारे दूतावासों को भेजा जाना चाहिए और इन्हें जनता के लिए भी आम कर देने के साथ-साथ स्कूलों व कॉलेजों आदि में भी प्रयोग किया जाना चाहिए। 

“8. हमारी नीति के अनुसार और साथ ही चीन के साथ हमारे समझौते के परिणामस्वरूप (कौन सा समझौता?), इस सरहद को दृढ़ और निश्चित माना जाना चाहिए, जो किसी के भी साथ वार्त्ता या चर्चा के लिए खुली न हो। चर्चा के बेहद मामूली बिंदु हो सकते हैं। यहाँ तक कि ये भी हमारे द्वारा नहीं उठाए जाने चाहिए। यह भी आवश्यक है कि पूरी सीमा पर चेक-पोस्ट की प्रणाली को फैलाया जाए। विशेषतः हमें ऐसे स्थानों पर चेक-पोस्ट जरूर तैयार करने चाहिए, जिन्हें विवादित क्षेत्र माना जा सकता है। 

“9. ...चेक-पोस्ट न केवल यातायात को नियंत्रित करने और अवैध घुसपैठ को रोकने के लिए, बल्कि भारतीय सरहद के प्रतीक के रूप में भी आवश्यक हैं। जैसे डेमचोक को चीन द्वारा विवादित क्षेत्र के रूप में माना जाता है। हमें वहाँ चेक-पोस्ट बनानी चाहिए; बिल्कुल ऐसे ही त्सांग चोकला में भी।” (जे.एन.एस.डब्‍ल्यू./खंड-26/481-2) 

नेहरू का यह फैसला पूरी तरह से जोखिमों से भरा हुआ था, क्योंकि सन् 1954 के नए मानचित्र भारत को उन मानचित्रीय स्थानों के लिए सार्वजनिक रूप से प्रतिबद्ध करते थे, जिन्हें अस्पष्ट उद्गम स्थल माना जाता है। नेहरू ने खुद को उत्तरी सीमाओं पर अधिकांशतः ब्रिटिशों की स्थिति के साथ जोड़ा; चाहे वे पर्वू में चीन और तिब्बत को मंजूर रहे हों या नहीं, उन्हें अच् से छे निर्धारित भारतीय सीमाओं के रूप में घोषित किया, यहाँ तक कि वहाँ भी, जहाँ ब्रिटिशों ने सीमा को खुद अपरिभाषित के रूप में दरशाया था। नेहरू ने एक ऐसी नीति भी तैयार की, जिसमें सीमा संबंधी मुद्दों पर किसी भी प्रकार की बातचीत या चर्चा या वार्त्ता को प्रोत्साहित नहीं किया जाना था। हमने नए नक्शों में भी गलतियाँ कीं। 

‘बियॉण्ड द लाइंस’ में कुलदीप नैयर कहते हैं—“भारत की निराशा के लिए हमारे नक्शे हमारे ही कुछ भूभाग को चीन के हिस्से के रूप में दिखा रहे थे। गृह मंत्रालय ने राज्यों को लिखा कि वे इन नक्शों को जला दें या फिर कम-से-कम चीन से लगनेवाली असम की ओर की सीमा को धब्बेदार कर दें, ताकि वह वास्तव में भारतीय सीमा जैसी न लगे। चीन ने हमारे भ्रम का लाभ उठाया और हमारे दावे पर सवाल उठाने के लिए हमारे ही नक्शे का उपयोग किया।” (के.एन.) 

अगर कोई सिर्फ कहने के लिए ही यह मान ले कि नए भारतीय नक्शों को ऐतिहासिक तथ्यों और पारंपरिक सीमाओं को सुनिश्चित करने के बाद उचित देखभाल के साथ तैयार किया गया था और भारत के पास उसके पक्ष में पर्याप्त समर्थन था, जिसका उसने अपनी सीमा के रूप में दावा किया था, तो सबसे महत्त्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या दूसरे पक्ष ने सीमाओं के लिए रजामंदी दिखाई थी? क्या भारत के पास अपने दावे को साबित करने के लिए आवश्यक समझौते, दस्तावेज और नक्शे थे? अगर नहीं, तो क्या भारत को चीन के साथ चर्चा करके उन्हें भारत की स्थिति से अवगत करवाने का प्रयास नहीं करना चाहिए था? भारत बातचीत शुरू करने के लिए अधिकत्म माँग ने की स्थिति तो ला ही सकता था; लेकिन भारत को बातचीत तो करनी ही चाहिए थी। 

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एकतरफा तैयार किया गया नक्शा सिर्फ एक मानचित्रीय दावा है, यह जमीन का मालिकाना हक नहीं है। इससे कुछ नहीं सुलझता है। इसकी कोई कानूनी या अंतरराष्ट्रीय स्वीकृति नहीं हो सकती, जब तक कि दूसरे पक्ष द्वारा इसके लिए सहमति न प्रदान की जाए। सीधे शब्दों में कहें तो सीमा तय करने के लिए दो पक्ष होने चाहिए।
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 नेहरू का अनुचित रुख और बातचीत करने के प्रति अनिच्छा 
चीन ने अपनी तरफ से कई अवसरों पर बातचीत के जरिए भारत-चीन के बीच की सीमा को तय करने का प्रयास किया और इस दिशा में अपने कदम भी आगे बढ़ाए; लेकिन वास्तव में जो होना चाहिए था (बातचीत के जरिए होनेवाला शांतिपूर्ण समझौता); वह नहीं हुआ; क्योंकि नेहरू की अपनी सोच थी, जैसे—एकतरफा नक्शों को बदलना (जिसके बारे में ऊपर विस्तृत रूप से बताया जा चुका है), यह दावा करना कि सीमाओं का तो पहले ही निर्धारण हो चुका है और बातचीत करने से इनकार करना। 

भारत का दोष-युक्त दृष्टिकोण 
नेविल मैक्सवेल की पुस्तक ‘इंडियाज चाइना वॉर’ को जरूर पढ़ा जाना चाहिए, हालाँकि, यह चीन की तरफ अपेक्षाकृत पक्षपातपूर्ण और भारत के खिलाफ पक्षपाती है। इस बात को साबित करने के लिए मैक्सवेल के लेख के कुछ चुनिंदा अंश यहाँ पर प्रस्तुत हैं—(मैक्स2)

 “भारत की स्वतंत्रता के प्रारंभिक दौर से ही यह तय हो चुका था कि अंग्रेजों ने जाते हुए चीन-भारत की सीमाओं को अनिर्धारित छोड़ दिया था और चीन के साथ क्षेत्रीय विवाद भारत की विरासत का ही एक हिस्सा थे। चीन के बाकी के पड़ोसियों को भी ऐसी ही समस्याओं का सामना करना पड़ा और सदी के आगामी दशकों के दौरान उनमें से लगभग सभी को अपनी सीमाओं को बीजिंग के साथ राजनयिक बातचीत की सामान्य प्रक्रिया के जरिए संतोषजनक तरीके से सुलझाना था।... 

“नेहरू सरकार ने इसके बिल्कुल विपरीत रास्ते को अपनाने का फैसला किया। भारत अपने खुद के शोध के माध्यम से चीन-भारत की सीमाओं के उचित संरेखण (alignment) करने तथा अपने प्रशासन को उन्हें जमीनी स्तर पर ठीक साबित करने के लिए भेजेगा और फिर नतीजे पर बातचीत करने से इनकार कर देगा। समझ में न आनेवाले को पीछे छोड़ते हुए—कि बीजिंग भारत को चीन की सीमाओं को एकतरफा तरीके से लागू करने और अपनी इच्छा से क्षेत्र पर कब्जा करने की अनुमति देगा—नेहरू की रणनीति ने बिना पूर्वानुमान लगाए ही संघर्ष का रास्ता खोला।...

 “बीजिंग वर्ष 1958 तक गश्ती झड़पों को रोकने के लिए तत्काल एक यथास्थिति करार करने और सीमा के निर्धारण के लिए बातचीत करने का दबाव बना रहा था। भारत ने किसी भी प्रकार के यथास्थिति करार को करने से स्पष्ट इनकार कर दिया, क्योंकि ऐसा करना अभीष्ट बढ़त को बाधित करता और जोर देकर कहा कि बातचीत के लिए कुछ भी नहीं है तथा भारत-चीन की सीमाएँ तो पहले ही भारत द्वारा प्रच्छन्न ऐतिहासिक प्रक्रियाओं के जरिए दावा किए गए संरेखणों के माध्यम से तय की जा चुकी हैं। इसके बाद उसने चीन पर भारतीय दावों के समक्ष आत्मसमर्पण करने से इनकार कर ‘आक्रामकता’ दरशाने का आरोप लगाना प्रारंभ कर दिया।...12 अक्तूबर, 1962 को नेहरू ने चीन को भारत के दावे वाले क्षेत्रों से खदेड़ने के भारतीय इरादों की घोषणा की। अगर नेहरू ने हमला करने की अपनी मंशा जाहिर की होती तो चीन अपने ऊपर आक्रमण होने का इंतजार करनेवालों में से नहीं है।... 

“चीन ने 20 अक्तूबर को, कमजोरों को चौंकाते हुए, सीमाओं पर औचक हमला करना शुरू किया; लकिे न अपने प्रयास में उसे भारतीय सैनिकों के प्रतिरोध का सामना करना पड़ा और वह पर्वी ू क्षेत्र में कुछ दूरी तक आगे बढ़ने में कामयाब रहा। बीजिगं ने 24 अक्तूबर को भारत से बातचीत के लिए तैयार होने की शर्त पर युद्धविराम और चीनी सैनिकों के वापस आने की पेशकश की; लकिे न नेहरू ने इस प्रस्ताव को आधिकारिक तौर पर प्राप्त करने से पहले ही ठुकरा दिया। दोनों पक्षों के बीच अगले तीन हफ्तों तक तनातनी की स्थिति बनी रही और भारत ने 15 नवंबर को एक स्थानीय जवाबी हमला शुरू किया, जिसके बाद भारत में जीत की नई उम्मीदें जगीं।...इसके बाद चीनियों ने भी अपने हमले को तेज किया। भारतीय चौथी डिवीजन की कई यूनिटें बिना लड़े ही मिट्टी में मिल गईं और 20 नवंबर तक विवादित क्षेत्रों में भारत की ओर से कहीं भी कोई संगठित प्रतिरोध नहीं बचा था। उस दिन बीजिगं ने एकतरफा युद्धविराम और अपनी सेनाओं को वापस बुलाने का इरादा जाहिर किया; इस बार नेहरू ने चुपचाप स्वीकार कर लिया।” 

नेहरू का आत्म-अभिमानी दृष्टिकोण : ‘सीमाएँ पहले ही निश्चित हैं—
बातचीत के लिए कुछ नहीं है!’ 
जुलाई 1952 में चीन ने बातचीत के जरिए तिब्बत में भारत के विरासती अधिकारों एवं संपत्तियों और उनसे जुड़े मुद्दों, जिनमें निश्चित ही सीमाएँ भी शामिल थीं, पर समझौते की पेशकश की। हालाँकि नेहरू और उनकी मंडली ने एक बार भी सीमा संबंधी मुद्दों को नहीं उठाने का फैसला किया। क्यों? इससे भानुमती का पिटारा खुल सकता था और वार्त्ताओं के लिए पूरी सीमा ही खुल सकती थी। अब क्या रास्ता था? वास्तविक सीमा निश्चित की जा चुकी थी, इसलिए बातचीत के लिए कुछ भी था ही नहीं! 

चीन में भारतीय राजदूत के.एम. पणिक्कर ने सलाह दी थी, “(अगर) चीन यह मुद्दा उठाता है (मैकमहोन रेखा का) तो हम सीधे तौर पर इसे दोबारा खोलने को मना कर सकते हैं और इस रुख को अपना सकते हैं, जो हमारे प्रधानमंत्री ने अपनाया था (अपने सार्वजनिक बयान में) कि मैकमहोन के इस ओर का क्षेत्र हमारा है और इस बारे में बात करने के लिए कुछ भी नहीं है।” (मैक्स/77) 

यह नेहरू और उनकी मंडली की आत्म-मुग्धता से भरा दृष्टिकोण ही था कि उन्होंने सन् 1954 में चीन के साथ किए ‘सिर्फ दे-दे और कुछ न ले-ले’ वाले पंचशील समझौते पर हस्ताक्षर करते समय न तो सीमा मुद्दों पर चर्चा करने और उन्हें न सुलझाने का फैसला किया। हालाँकि विदेश मंत्रालय में प्रधान सचिव रह चुके गिरिजा शंकर वाजपेयी उपर्युक्त रुख से जरा भी सहमत नहीं थे। उन्होंने इस बात पर ध्यान आकर्षित करवाया कि चीन ने सिर्फ लंबित समस्याओं के निबटारे की बात की है और यह भी कि “चीनियों ने यह कभी नहीं माना है कि मैकमहोन रेखा भारत और तिब्बत के बीच सरहद है। इसलिए वे इस सरहद को कभी सुलझा हुआ नहीं मान सकते। स्वाभाविक रूप से वे इसे तब तक नहीं उठाएँगे, जब तक कि यह उनकी सुविधा के अनुरूप न हो।” (मैक्स/77) 

नेहरू ने 3 दिसंबर, 1953 को विदेश मंत्रालय के प्रमुख सचिव को सलाह दी थी, “हमें सीमा के संबंध में जो रवैया अपनाना चाहिए, मैं उससे सहमत हूँ। हमें इस सवाल को (सीमाओं के) नहीं उठाना चाहिए। अगर चीनी इस मसले को उठाते हैं तो हमें आश्चर्य व्यक्त करना चाहिए और यह दिखाना चाहिए कि यह (सीमाओं का मुद्दा) एक सुलझा हुआ मुद्दा है।” (जे.एन.एस.डब्‍ल्यू./खंड-24/598) नेविल मैक्सवेल की पुस्तक ‘इंडिया’ज चाइना वॉर’ के अनुसार—
 “भारत ने एक बार फिर इस बात को दोहराया कि चीन के साथ उसकी सीमाएँ वार्त्ता का मुद्दा नहीं हो सकतीं और साथ ही यह दावा किया कि ‘अग्रिम या औपचारिक परिसीमन की आवश्यकता के बिना’ इस बात पर अड़े हैं। चीन ने जवाब दिया कि ‘यह रवैया’ बातचीत से इनकार करना और एकतरफा तरीके से संरेखण को लागू करने का दावा करने का प्रयास करना वास्तव में सीमा से संबंधित सवालों को निबटाने से इनकार करना है। साथ ही उसने चेतावनी दी कि अगर भारत उसी स्थिति को बनाए रखता है और अपनी ‘अनुचित पेचीदगियों’ को जारी रखता है तो चीन अपने रुख से एक इंच भी पीछे नहीं हटेगा। चीन अपने पड़ोसियों के साथ गंभीरतापूर्वक और समान रूप से अपनी सीमाओं को तय कर रहा था और इस बात ने भारत की स्थिति पर बुरा प्रभाव डाला। बीजिंग ने उस दुखती हुई रग को उकसावा दिया—“जब बर्मा और नेपाल की सरकारें चीन के साथ अपने सीमा संबंधी विवादों का निबटारा बातचीत के जरिए दोस्ताना तरीके से कर सकती हैं और जब पाकिस्तान की सरकार भी सीमा समझौते पर बातचीत करने के लिए सहमत हो गई है।...तो फिर ऐसा क्यों हो रहा है कि भारत सरकार बातचीत नहीं कर सकती और सीमा संबंधी विवादों का समाधान नहीं कर सकती। ...” (मैक्स/214) 

भारत ने नेहरू के फैसले के बाद चीन के साथ सीमा संबंधी मुद्दे को उठाने से परहेज किया; यहाँ तक कि सन् 1954 में पंचशील पर हस्ताक्षर किए जाने के समय भी और बाद में 25 व 27 जून, 1954 के बीच झोउ एनलाई और नेहरू के बीच हुई पाँच दौर की चर्चा के दौरान भी। (जे.एन.एस. डब्‍ल्यू./खंड-26/365-406) 

हाथ से जाने दिए गए मौके 
आजादी के बाद, एक दशक से भी अधिक समय तक, नेहरू ने झोउ एनलाई से इस दुनिया के हर मुद्देपर बात की, लेकिन सिर्फ सीमा के मुद्दे को छोड़ दिया। इस विषय पर कई पुस्तकों में उद्‍‍धृत दस्तावेजों से स्पष्ट होता है कि चीनी प्रीमियर झोउ एनलाई ने नेहरू के सामने कई बार सीमा संबंधी मामले को उठाया; लेकिन भारत ने या तो उसे महत्त्व नहीं दिया या फिर मामले को टाल दिया। चीन ने भी बहुत अधिक जोर नहीं डाला। चीन की ओर से किसी आपत्ति या फिर विरोध के न होने को यह मान लिया गया कि उन्हें हमारी स्थिति से कोई ऐतराज नहीं है। इसलिए एक ‘रणनीति’ के रूप में भारत ने चुप्पी साधे रखी और इस मुद्देपर अपना मुँह सिले रखा। 
यह कुलदीप नैयर की ‘बियॉण्ड द लाइंस’ से है— 
“मैं गृह मंत्रालय का सिर्फ एक सूचना अधिकारी था और मेरे पास कोई आधिकारिक अधिस्थिति (locus standi) नहीं थी, लेकिन यह स्पष्ट था कि पोलिश राजदूत एक अभियान पर आए हुए थे। उन्होंने मुझे अपने कार्यालय में बातचीत के लिए आमंत्रित किया और मुझसे अपेक्षा की कि उन्होंने मुझसे जो कुछ कहा, मैं जाकर वह (गोविंद बल्लभ) पंत (नेहरू के गृह मंत्री) से कहूँ। उन्होंने बातचीत के प्रारंभ में ही कहा कि उनके द्वारा प्रस्तुत किए जा रहे प्रस्ताव को सभी कम्युनिस्ट देशों का समर्थन प्राप्त होगा और उन्होंने विशेष रूप से सोवियत संघ का उल्लेख किया। उनका प्रस्ताव था कि भारत को एक पैकेज राजनीतिक सौदे को स्वीकार कर लेना चाहिए, जिसके तहत लद्दाख (अक्साई चिन) के कुछ हिस्सों का नियंत्रण चीन को सौंपकर उसके बदले मैकमहोन रेखा को मान्यता ले लेनी चाहिए। उन्होंने कहा कि माँगे गए क्षेत्रों को कभी मानचित्र में शामिल नहीं किया गया है और इसलिए कोई नहीं कह सकता कि इन पर किसका अधिकार है। जिसके भारत का होने का दावा किया जा रहा था, वह वो था, जिस पर यू.के. ने जबरन कब्जा कर लिया था। कोई भी शक्ति ‘साम्राज्यवादी मार्ग’ का सम्मान नहीं कर सकती और न ही भारत को ऐसा करने पर जोर देना चाहिए। चाहे जो भी हो जाए, पर चीन कभी भी अपनी बनाई हुई सड़क से अपना नियंत्रण नहीं जाने देगा। उन्होंने तर्कदिया कि वह सिंकियांग और चीन के अन्य भागों के बीच जीवन-रेखा जैसी थी। मैंने पंत को उनके प्रस्ताव के बारे में जानकारी दी, जिन्होंने मुझे कोई प्रतिक्रिया नहीं दी—न तो अपनी और न ही सरकार की ओर से।” (के.एन.) 

झोउ एनलाई के पत्र 
23 जनवरी, 1959 को एक पत्र के जरिए झोउ एनलाई (या चाऊ एन लाई) ने नेहरू को इस आशय की स्थिति स्पष्ट की कि चीन-भारत सीमाओं को कभी भी औपचारिक रूप से परिसीमित ही नहीं किया गया (लेखक की टिप्पणी—तो फिर, भारत के सन् 1954 के अपने मानचित्रों में दृढ़, परिसीमित सीमाएँ दिखाने का दावा कहाँ हवा हो गया); चीन द्वारा सन् 1956 में निर्मित किया गया सिंकियांग-तिब्बत राजमार्ग (अक्साई चिन) चीनी सीमाओं के भीतर था; मैकमहोन रेखा साम्राज्यवादी मानचित्रीय आक्रमण की ब्रिटिश चालाकी का नतीजा थी और इसे कानूनी नहीं माना जा सकता था; और चीन जमीनी सर्वेक्षण तथा भारत सहित संबंधित अन्य देशों के साथ बातचीत के बाद अपने नक्शों में बदलाव करेगा। यहाँ पर उस पत्र के कुछ अंश दिए गए हैं—(यू.आर.एल.20) 
“सबसे पहले तो मैं यह बात स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि चीन-भारत सीमा का कभी औपचारिक रूप से परिसीमन नहीं किया गया है। ऐतिहासिक रूप से चीन-भारत की सीमा को लेकर चीनी केंद्र सरकार और भारत सरकार के बीच कभी कोई संधि या समझौता भी नहीं हुआ है। जहाँ तक वास्तविक स्थिति का संबंध है, सीमा के मुद्दे को लेकर दोनों ही पक्षों के बीच कुछ मतभेद हैं। बीते कुछ वर्षों में, चीनी और भारतीय दोनों ही पक्षों की ओर से एक से अधिक बार राजनयिक माध्यमों के जरिए इस बात पर सवाल खड़े किए गए कि चीन-भारत सीमा के दोनों ओर स्थित कुछ चुनिंदा क्षेत्र किसके क्षेत्र में आते हैं। ताजा मामला चीन के सिंकियांग उइगर स्वायत्त क्षेत्र के दक्षिणी हिस्से के एक क्षेत्र से संबंधित है, जो हमेशा से चीनी अधिकार-क्षेत्र में रहा है। चीनी सरकार के सीमा प्रहरी लगातार उस क्षेत्र में गश्ती कार्य करते आ रहे हैं। और सन् 1956 में हमारे देश द्वारा बनाया गया सिंकियांग-तिब्बत राजमार्ग इसी क्षेत्र से होकर गुजरता है। फिर भी, हाल ही में भारत सरकार द्वारा ऐसा दावा किया गया कि वह क्षेत्र भारतीय क्षेत्र था। यह सब दिखाता है कि चीन और भारत के बीच सीमा विवाद मौजूद हैं। 
“यह बात पूरी तरह से सच है कि सन् 1954 में जब चीन व भारत के बीच चीन के तिब्बत क्षेत्र एवं भारत के बीच व्यापार और परस्पर व्यवहार के समझौते को लेकर बातचीत जारी थी, तब भी सीमा के मुद्दे को नहीं उठाया गया। ऐसा इसलिए था, क्योंकि स्थितियाँ इसके समाधान के लिए अनुकूल नहीं थीं और चीनी सरकार की ओर, अपनी तरफ से, इस मुद्दे का अध्ययन करने का समय नहीं था। चीनी सरकार हमेशा से ही ऐसा मानती रही है कि सीमा के विवाद को चीन-भारत के मैत्रीपूर्ण संबंधों के विकास को जरा भी प्रभावित नहीं करना चाहिए। हमारा मानना है कि पहले से चले आ रहे इस विवाद को उचित तैयारियों के बाद शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के पाँच सिद्धांतों के आधार पर मैत्रीपूर्णवार्त्ता के जरिए निश्चित रूप से सुलझाया जा सकता है। ऐसा करने के लिए चीनी सरकार ने तैयारियाँ करने की दिशा में कदम उठाने प्रारंभ कर दिए हैं। 
“भारत-चीन सीमा से संबंधित एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा तथाकथित मैकमहोन रेखा से जुड़ा हुआ विवाद है। मैंने इस पर आपके साथ-साथ प्रधानमंत्री सू नु (बर्मा के) के साथ भी चर्चा की। मैं एक बार फिर से चीनी सरकार के रवैए से आपको अवगत करवाना चाहूँगा। जैसाकि आपको विदित है, मैकमहोन रेखा चीन के तिब्बत क्षेत्र के विरुद्ध ब्रिटिशों की आक्रामक नीति का नतीजा थी और इसने चीनी जनमानस में आक्रोश पैदा किया। न्यायिक तौर पर भी इसे विधिक नहीं माना जा सकता। मैं आपको बता चुका हूँ कि चीन की केंद्र सरकार ने इसे कभी भी मान्यता नहीं प्रदान की है। यद्यपि संबंधित दस्तावेजों पर चीन के तिब्बत क्षेत्र के स्थानीय अधिकारियों के एक प्रतिनिधि द्वारा हस्ताक्षर किए गए थे, वास्तव में तिब्बत के स्थानीय अधिकारी एकतरफा रूप से खींची गई इस रेखा से असंतुष्ट थे; और मैंने उनके असंतोष के बारे में आपको औपचारिक रूप से भी बताया है। वहीं दूसरी तरफ, कोई भी निश्चित तौर पर महान् और प्रोत्साहक बदलावों का संज्ञान लेने में असफल नहीं रह सका—भारत और चीन, जो इस रेखा से संबंधित हैं, क्रमशः स्वतंत्रता प्राप्त कर चुके हैं और चीन के मित्र देश बन गए हैं। ऊपर वर्णित किए गए विभिन्न जटिल कारकों के मद्देनजर चीनी सरकार एक ओर तो ऐसा आवश्यक समझती है कि मैकमहोन रेखा को लेकर उसे कम या ज्यादा यथार्थवादी रवैया अपनाना चाहिए और वहीं दूसरी तरफ, सावधानी से कदम उठाए बिना नहीं रह सकती और उसे इस मुद्दे से निबटने के लिए समय की आवश्यकता होगी। और मैं आपको इस विषय में एक से अधिक मौकों पर अवगत करवा चुका हूँ। हालाँकि, हमारा मानना है कि चीन और भारत के मैत्रीपूर्ण संबंधों के आलोक में सीमा रेखा के इस हिस्से को लेकर अंततः एक मैत्रीपूर्ण समझौता तलाशा जा सकता है। 
“चूँकि दोनों देशों के बीच सीमा को अभी तक औपचारिक रूप से परिसीमित नहीं किया गया है और कुछ मतभेद अभी भी मौजूद हैं, दोनों पक्षों के संबंधित मानचित्रों पर खींची गई सीमा रेखाओं में विसंगतियाँ होना पूरी तरह से अपरिहार्य है...सीमा के मुद्दे के समाधान के साथ-साथ, जैसाकि हमारी सरकार ने बार-बार दोहराया है, सर्वेक्षण और आपसी परामर्श की भी आवश्यकता है और मानचित्रों पर सीमा रेखा खींचने की समस्या भी हल हो जाएगी। 
“हाल के वर्षों के दौरान चीन और भारत के बीच सीमा पर कुछ मामूली झड़पें हुई हैं और सीमा के औपचारिक परिसीमन के लंबित रहने तक इनसे बच पाना शायद मुश्किल है। सीमा के औपचारिक परिसीमन से पहले ऐसी घटनाओं से जितना अधिक संभव हो, उतना अधिक बचने के लिए हमारी सरकार भारत सरकार को यह प्रस्ताव प्रस्तुत करना चाहती है कि एक अनंतिम उपाय के रूप में दोनों पक्ष अस्थायी रूप से यथास्थिति को बनाए रखें, जिसके कहने का तात्पर्य यह है कि प्रत्येक पक्ष फिलहाल के लिए सीमावर्ती क्षेत्रों में अपने अधिकार-क्षेत्र में रहें और उनसे आगे न आएँ।...चीनी सरकार को इस बात की उम्मीद है कि भारत सरकार द्वारा दोनों पक्षों के बीच सीमा की वर्तमान स्थिति के अस्थायी निर्वहण के उपर्युक्त प्रस्ताव को अनुमोदित किया जाएगा।...” (यू.आर.एल.20) 
22 मार्च, 1959 को अपने उत्तर में नेहरू ने सभी क्षेत्रों में भारत के दावे को न्यायसंगत ठहराया। यहाँ पर उस पत्र के कुछ चुनिंदा अंश दिए गए हैं— 
“7. मुझे इस बात की पूरी आशा है कि पूर्ववर्ती अनुच्छेदों के अध्ययन से आपको इस बात का विश्वास हो जाएगा कि न सिर्फ हमारी सीमा का परिसीमन, जैसाकि हमारे मानचित्रों में प्रकाशित है, प्राकृतिक और भौगोलिक विशेषताओं पर आधारित है, बल्कि यह परंपरा के साथ भी मेल खाता है और अंतरराष्ट्रीय समझौतों द्वारा इसके एक बड़े हिस्से की पुष्टि भी होती है।...हमने सोचा कि आपकी सरकार ने हमारी स्थिति को स्पष्ट रूप से समझा और स्वीकार किया है।...”
नेहरू द्वारा 26 सितंबर, 1959 को लिखे गए एक लंबे पत्र के जवाब में झोउ एनलाई ने 7 नवंबर, 1959 को लिखा—(यू.आर.एल.21) 
“ ...चूँकि चीन-भारत की सीमा का कभी भी परिसीमन नहीं किया गया है और यह काफी लंबी है तथा यह दोनों देशों के राजनीतिक केंद्रों से बहुत दूर या तुलनात्मक रूप से बहुत दूर है, मुझे इस बात का डर है कि अगर दोनों सरकारों द्वारा कोई पूरी तरह से उचित समाधान नहीं निकाला जाता है तो सीमा पर संघर्ष, जिन्हें दोनों ही देश दोबारा नहीं देखना चाहते, भविष्य में दोबारा हो सकते हैं। और एक बार ऐसी कोई झड़प होने के बाद, चाहे वह मामूली सी ही क्यों न हो, उसका उपयोग उन लोगों द्वारा किया जाएगा, जो नहीं चाहते कि हमारे दोनों देशों की मित्रता हो, ताकि वे अपने उद्देश्यों को पाने में सफल रहें।... 
“आप महामहिम के 26 सितंबर के पत्र में कई ऐसे नजरिए हैं, जिनसे चीनी सरकार कभी सहमत नहीं हो सकती।... 
“दोनों देशों के बीच की सीमा की यथास्थिति को प्रभावी तरीके से बनाए रखने के लिए, सीमा क्षेत्रों में शांति सुनिश्चित करने के लिए और सीमा संबंधी विवाद के एक मित्रतापूर्ण समाधान के लिए अनुकूल माहौल बनाने के लिए चीनी सरकार का प्रस्ताव है कि चीन और भारत दोनों के ही सशस्त्र बल पूर्व में एक ही बार में तथाकथित मैकमहोन रेखा से 20 किलोमीटर पीछे और पश्चिम में उस रेखा से, जहाँ तक प्रत्येक पक्ष वास्तविक नियंत्रण रखता है, पीछे चले जाएँगे और यह भी कि दोनों ही पक्ष अपने सशस्त्र सैन्यकर्मियों को फिर से उन क्षेत्रों में तैनात करने या फिर गश्त करने से बचने का वचन दें, जहाँ से उन्होंने अपने सशस्त्र बलों को पीछे भेजा है; लेकिन इसके बावजूद प्रशासनिक कर्तव्यों के निवर्हण और विधि एवं व्यवस्था को बनाए रखने के लिए नागरिक प्रशासनिक कर्मियों और निहत्थी पुलिस को बनाए रख सकते हैं।...संक्षेप में, बातचीत के जरिए हमारे दोनों देशों के बीच सीमा के औपचारिक परिसीमन से पहले और बाद में चीनी सरकार हमारे दोनों देशों के बीच सबसे शांतिपूर्ण और सबसे सुरक्षित सीमा क्षेत्र बनाए रखने को हर संभव प्रयास करने को तैयार है, ताकि हमारे दोनों देशों के बीच सीमा विवाद को लेकर कोई आशंका न रहे या फिर कोई झड़प न हो। अगर भारत सरकार को चीनी सरकार का यह प्रस्ताव स्वीकार है तो इसके कार्यान्वयन के लिए ठोस कदमों को लेकर चर्चा की जा सकती है और राजनयिक माध्यमों के जरिए दोनों सरकारों द्वारा अविलंब फैसला लिया जा सकता है।... 
“चीनी सरकार का प्रस्ताव है कि सीमा संबंधी सवालों और दोनों देशों के बीच के संबंधों से जुड़े अन्य सवालों के बारे में और अधिक चर्चा करने के लिए निकट भविष्य में दोनों देशों के प्रधानमंत्री बातचीत करें।...” (यू.आर.एल.21) 

कई घटनाओं और दोनों देशों के बीच स्थिति को सँभालने के लिए पत्रों के आदान-प्रदान के बाद चीन ने दिसंबर 1959 में पत्र के जरिए सीमा को लेकर अपने रुख को दोहराया; लेकिन साथ ही सुझाव दिया कि सीमा के औपचारिक परिसीमन तक यथास्थिति को बनाए रखा जाए और दोनों ही पक्षों द्वारा अपने सशस्त्र बलों को 20 किलोमीटर वापस बुलाया जाए और सुरक्षा बलों की गश्त को भी रोका जाए। पता नहीं क्यों, नेहरू ने यह मानना जारी रखा कि सीमाओं को सुलझाया जा चुका है और बातचीत करने के लिए कुछ शेष नहीं है। 

सीमाओं को तय करने के लिए चीनी प्रतिनिधिमंडल का दौरा
चीन ने अपने पड़ोसियों के साथ सीमा विवादों को सुलझाने की कवायद शुरू कर दी। चीनी टीम यंगून (रंगून) गई और बर्मा (म्याँमार) के साथ मोटे तौर पर मैकमहोन रेखा के साथ अपनी सीमा तय की। इसके आगे की काररवाई के रूप में चीन और बर्मा ने अक्तूबर 1960 में एक संधि पर हस्ताक्षर किए और अपनी सीमाओं के विवादों को शांतिपूर्ण तरीके से निबटा लिया।

झोउ एनलाई, मार्शल चेन यी, विदेश मंत्री और एक बड़े आधिकारिक चीनी प्रतिनिधिमंडल ने सीमा विवाद को सुलझाने के लिए 1960 में भी दिल्ली का दौरा किया। चीन का रुख बिल्कुल वही था, जैसा झोउ ने पहले भी कई मौकों पर भारत को लिखित में दिया था। 

हालाँकि, चीन कथित तौर पर पूर्व में मैकमहोन रेखा को सीमा के रूप में स्वीकार करने को तैयार था—संभवतः कुछ समायोजनों तथा एक नए नाम के साथ—जैसाकि वे बर्मा (म्याँमार) के साथ सफलतापूर्वक कर चुके थे और बदले में भारत को अक्साई चिन पर अपने दावे को छोड़ना था। एक बार इस व्यापक ढाँचे पर आम सहमति बन जाने के बाद दोनों देशों के अधिकारी एक सर्वेक्षण कर सकते थे और सीमाओं के सटीक परिसीमन का निर्धारण कर सकते थे। 

दुर्भाग्य से, अपनी निश्चित स्थिति का पालन करते हुए, नेहरू ने इनकार कर दिया। रुकावट के बारे में पता लगने पर झोउ ने दिसंबर 1959 में अपने पत्र में सुझाए गए कदमों को अपनाने का सुझाव दिया, जिससे एक सौहार्दपूर्ण समझौता हो जाने तक स्थिति को काबू में रखा जा सके। इनमें से कुछ भी नहीं हुआ। 

यहाँ पर झोउ एनलाई द्वारा अपनी सात दिवसीय यात्रा के अंत में दिए गए लिखित बयान के अंश दिए गए हैं—(एर्पी 7) 
“प्रधानमंत्री नेहरू के निमंत्रण पर मैंने 19 से 25 अप्रैल, 1960 तक भारत की एक मैत्रीपूर्ण यात्रा की है।...इस (आतिथ्य) के लिए उप-प्रीमियर चेन यी और मैं तथा साथ ही मेरे अन्य सहयोगी भी आपका हार्दिक आभार व्यक्त करना चाहते हैं।... 
“ ...हमारे दोनों देशों के बीच कोई बुनियादी व्यक्तिगत हितों का संघर्ष नहीं है। हमारे दोनों देशों के पास आनेवाले हजारों और दसियों हजार वर्षों तक एक-दूसरे के साथ मैत्रीपूर्ण बने रहने का हर कारण है। बीते एक या दो वर्षों के दौरान हालाँकि दोनों देशों के बीच इतिहास के बचे हुए सीमा संबंधी सवालों के चलते कुछ विवाद हुए हैं, फिर भी हमारे दोनों देशों के लोगों ने एक-दूसरे के प्रति मित्रवत् रहने की इच्छा को लगातार बल ही दिया है।... 
“सात दिनों की बातचीत के बाद हालाँकि हमारी अपेक्षा के बिल्कुल उलट सीमा विवाद के समाधान के लिए किसी समझौते तक नहीं पहुँचा जा सका... 
“दोनों पक्षों के लिए समान बिंदुओं या निकटता के बिंदुओं को खोजना असंभव नहीं है, जो मेरे खयाल से संक्षेप में निम्नलिखित छह बिंदुओं में प्रस्तुत किया जा सकता है—
• दोनों पक्षों के बीच सीमा को लेकर विवाद है। 
• दोनों देशों के बीच एक वास्तविक नियंत्रण रेखा मौजूद है, जिस तक दोनों ही पक्ष प्रशासनिक अधिकार का प्रयोग करते हैं। 
• दोनों देशों के बीच सीमा निर्धारित करने में वाटरशेड, नदी-घाटियाँ और पर्वतीय दर्रों जैसे कुछ भौगोलिक सिद्धांत सीमा के सभी क्षेत्रों पर समान रूप से लागू होने चाहिए। 
• दोनों देशों के बीच सीमा संबंधी विवाद का समाधान करते समय हिमालय और कराकोरम पर्वतों के प्रति दोनों देशों के लोगों की राष्ट्रीय भावनाओं का भी ध्यान रखा जाना चाहिए। 
• विचार-विमर्श के जरिए दोनों देशों के बीच सीमा विवाद का समाधान पूर्ण होने तक दोनों पक्षों को वास्तविक नियंत्रण रेखा का सम्मान करना चाहिए और पूर्वापेक्षा के रूप में क्षेत्रीय दावों को सामने नहीं रखना चाहिए लेकिन व्यक्तिगत समायोजन किया जा सकता है। 
• सीमा पर शांति सुनिश्चित बनाने के क्रम में, जिसके परिणामस्वरूप चर्चा को सुविधाजनक बनाया जा सके, दोनों ही पक्षों को सीमा के सभी क्षेत्रों में गश्त करने से भी दूर रहना चाहिए। 

“उपर्युक्त छह बिंदुओं को लेकर अभी भी हमारे और भारत सरकार के बीच एक निश्चित दूरी बनी हुई है। हालाँकि, मेरा ऐसा मानना है कि जब तक दोनों पक्ष परामर्श जारी रखते हैं, तब तक इस दूरी को कम करना और खत्म करना इतना अधिक मुश्किल नहीं होगा।...यहाँ से प्रस्थान की पूर्व संध्या पर मैं एक बार फिर से इस बात को दोहराना चाहूँगा कि चीन की सरकार चीन-भारत सीमा संबंधी विवादों के समाधान तथा दोनों देशों के बीच मित्रता को मजबूत करने को लेकर दृढ़ संकल्पित है और यह भी कि वह इस दिशा में अथक प्रयास करती रहेगी।” (एर्पी 7) 

झोउ बर्मा के साथ सीमा संबंधी विवादों का निबटारा करने के बाद बड़ी उम्मीदें लेकर भारत आए थे; लेकिन वे बेहद निराश हुए। उन्होंने रवाना होने से पूर्व दिल्ली में एक संवाददाता सम्मेलन में चीनी स्थिति को सामने रखा और अपनी निराशा को व्यक्त किया। इसके बाद उनका प्रतिनिधिमंडल नेपाल गया और उसके साथ भी सौहार्दपूर्ण तरीके से सीमा विवादों का निबटारा किया। झोउ ने कथित तौर पर अक्साई चिन को लेकर नेहरू के अड़ियल रुख को कई कारणों से व्याख्या न करने योग्य और अप्रत्याशित पाया— 
(क) अक्साई चिन पर कभी भी न तो भारत का कब्जा था, न ही उसने कभी वहाँ शासन किया और न ही अपने पाँव जमाए; (ख) चीन की राय में, भारत के पास उस पर दावा करने का कोई वैध और कानूनी आधार नहीं था; (ग) वह पूरी तरह से बंजर था और वहाँ पर कुछ भी नहीं उगता था; (घ) उस स्थान का भारत के लिए कोई रणनीतिक महत्त्व नहीं था; खबरों के अनुसार, जनरल थिमय्या ने सन् 1959 में खुद कहा था कि अक्साई चिन का भारत के लिए कोई रणनीतिक महत्त्व नहीं था, न ही इसका कोई आर्थिक महत्त्व था; और इस क्षेत्र के भारत का हिस्सा होने को लेकर भी स्थिति स्पष्ट नहीं है। 

वहीं दूसरी ओर, शिनजियांग (सिंकियांग) और तिब्बत को जोड़नेवाली सड़क के चलते अक्साई चिन चीन के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण था। झोउ ने नेहरू को यह बात समझाने की बहुत कोशिश की कि चूँकि सिर्फ यही एक ऑल-वेदर रूट है, इसलिए शिनजियांग-तिब्बत चीन के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण है। हालाँकि, इस मामले को लेकर नेहरू के हठ के चलते चीन को इस बात का शक होने लगा कि भारत तिब्बत में चीन को कमजोर करना चाहता है। 

अपने असंगत रुख पर अड़े रहे नेहरू 
वॉल्टर क्रॉकर ने ‘नेहरू : ए कंटेंपरेरीज एस्टीमेट’ में लिखा— 
“तमाम मौकों पर, वर्ष 1956-57 तक चीनियों को भारत को लेकर हद से अधिक संदेह था। भारतीय अग्रिम नीति के लॉञ्च होने तक तो वे छल और बदनीयती को लेकर आश्वस्त हो चुके थे...इस बात के प्रमाण मौजूद हैं कि वर्ष 1954 और 1955 में तथा उसके बाद 1956 में तेजी से और 1960 में एक बार फिर नेहरू से बातचीत के बाद झोउ एनलाई को यह बात समझ आ गई थी कि नेहरू के साथ उनकी सहमति नहीं बन पा रही है और यह भी कि नेहरू स्पष्ट नहीं हैं। नेहरू के तौर-तरीकों और बहानेबाजी से आजिज आनेवाले वे कोई पहले वार्त्ताकार नहीं थे और उनसे पहले के कई वार्त्ताकार भी इसका अनुभव कर चुके थे।...एक पश्चिम एशियाई देश के विदेश मंत्री के अनुसार, चीन-भारत सीमा विवाद के बारे में बोलते हुए झोउ एनलाई ने उन्हें बताया था कि नेहरू के साथ बातचीत करना पूरी तरह से असंभव था, क्योंकि वे पूरी तरह से अविश्वसनीय थे और उन्हें कुछ भी समझाना नामुमकिन था।...” (क्रॉक/85) 

संभवतः, ‘बुद्धिमान’ और ‘अंतरराष्ट्रीय मामलों के स्वघोषित विशेषज्ञ’ नेहरू ने सोचा हो कि भारत ने अपनी सीमाओं को लेकर जो एकतरफा फैसला किया है, हो सकता है कि ‘उससे कम बुद्धिमान’ चीन अंततः झुक जाए और भारत के एकतरफा दावों से सहमत हो जाए! इस बात के कोई मायने नहीं थे कि भारत के पास अपने एकतरफा दावे का समर्थन करने के लिए कोई अविवादित मानचित्र या फिर परस्पर सहमति वाले कोई दस्तावेज मौजूद नहीं थे। नेहरू की हठधर्मिता और अपनी बात पर अड़े रहना पूरी तरह से गलत था। उन्हें ऐसा रवैया तिब्बत का मुद‍्दा निबटाते समय प्रदर्शित करना चाहिए था। (भूल 33) 

1962 के भारत-चीन युद्ध के बावजूद कोई बातचीत/समझौता नहीं 
यहाँ तक कि सिर्फ चार दिनों तक चले सन् 1962 के भारत-चीन युद्ध के पहले दौर (20 से 23 अक्तूबर, 1962) के बाद चीन ने एक बयान जारी किया और झोउ ने भी 24 अक्तूबर, 1962 को नेहरू को पत्र लिखकर सीमा विवाद के शांतिपूर्ण समाधान की शर्तें तय कीं—दोनों पक्ष वास्तविक नियंत्रण रेखा से 20 किलोमीटर पीछे जाएँगे और संपर्क तोड़ लेंगे। दोनों देशों के प्रधानमंत्री विवाद के मैत्रीपूर्ण समाधान में जुटें। भारत ने इस बात पर सवाल उठाया कि वास्तविक नियंत्रण रेखा से चीन का क्या मतलब है और वह उसे 8 सितंबर, 1962 वाली स्थिति में चाहता है, जबकि चीन ने 4 नवंबर, 1962 की अपनी प्रतिक्रिया में इस बात को स्पष्ट कर दिया कि उसका मतलब 7 नवंबर, 1959 वाली स्थिति से है, जो कि पूर्वी क्षेत्र में स्थित मैकमहोन रेखा है (हालाँकि, चीन ने उस रेखा को स्वीकार नहीं किया था) और बाकी के क्षेत्रों में पारंपरिक रेखाएँ हैं और साथ ही इस बात पर भी जोर दिया कि चीनी प्रस्ताव ने ‘सभ्यता, गरिमा एवं आत्मसम्मान’ की भारत की शर्तों को पूरा किया है और वह किसी भी पक्ष के दावों पर पक्षपात नहीं करेगा, जिन्हें बातचीत के जरिए सुलझाया जाएगा। इसका मतलब यह भी था कि चीन सन् 1962 के भारत-चीन युद्ध के पहले चरण के बाद कब्जा किए गए क्षेत्रों का गलत फायदा नहीं उठा रहा था। 

भारत ने इस बात को दोहराया कि वास्तविक नियंत्रण रेखा पर 8 सितंबर, 1962 वाली स्थिति होनी चाहिए और सहमत नहीं हुआ। हालाँकि, यह 8 सितंबर, 1962 की भारतीय स्थिति पूरी तरह से अस्वीकार्य थी, जिसे चीन अपना क्षेत्र मानता था, जिसके चलते सबसे पहले 20 अक्तूबर, 1962 का संघर्षप्रारंभ हुआ और भारत की इस बात को स्वीकार कर लेने का सीधा सा मतलब यह होता कि चीन ने जिन चौकियों को अवैध मानकर ध्वस्त किया, उसका यह कदम गलत था।

भारत अपनी बात पर अड़ा रहा। चीन ने भारत के रुख को पूरी तरह से अनुचित माना। 
चार दिनों (20 से 23 अक्तूबर, 1962) की प्रारंभिक लड़ाई के बाद 13 नवंबर, 1962 तक लगभग तीन सप्ताह तक युद्ध की स्थिति में शांति रही। इस बीच भारतीय सेनाएँ एक बार फिर इकट्ठा हुईं और उन्होंने 14 नवंबर, 1962 को चीनी चौकियों पर हमला कर दिया। चीन ने भी जवाबी हमला किया और 20 नवंबर, 1962 (एक सप्ताह के भीतर) तक पूरा नेफा (NEFA) चीनी कब्जे में था और वे असम के दरवाजे पर खड़े थे। 

चीन ने 21 दिसंबर, 1962 को एकतरफा युद्धविराम की घोषणा की। सभी देश, जिसमें निश्चित रूप से भारत भी शामिल था, इस अचानक और अप्रत्याशित कदम से आश्चर्यचकित थे। युद्धविराम की शर्तें बिल्कुल वही थीं, जो चीन ने 20 अक्तूबर, 1962 को शुरू हुए चार दिनों के युद्ध के पहले दौर के बाद 24 अक्तूबर, 1962 को सामने रखी थीं। हालाँकि, सबसे बड़ा अंतर यह था कि इस बार यह एकतरफा था—चीन ने इस बात की घोषणा की कि वह इकरारनामे के अपने हिस्से को पूरा करेगा, भले ही भारत सहमत हो या न हो, जिसका मतलब है कि वह अपनी सेना को 7 नवंबर, 1959 वाली वास्तविक नियंत्रण रेखा से 20 किलोमीटर पीछे ले जाएगा। हालाँकि, उसने भारत के पलटकर हमला करने या फिर वास्तविक नियंत्रण रेखा को पार कर उन क्षेत्रों पर कब्जा करने का प्रयास करने, जो उसके कब्जे में नहीं है, की स्थिति में हमला करने का अधिकार सुरक्षित रखा। 

भारत ने भी यह जानते हुए युद्धविराम के लिए हामी भर दी कि वह युद्ध जारी रखने की स्थिति में नहीं है। हालाँकि, अपने पुराने रुख पर ही कायम रहते हुए भारत सहमत नहीं हुआ और न ही उसने वार्त्ताओं एवं बातचीत के जरिए सीमा विवाद को एक ही बार में हमेशा के लिए सुलझाने के लिए प्रयास किया, जिसके लिए चीन पूरी तरह से राजी था! 

नेहरू ने अपनी गलती मानी थी, लेकिन फिर... 
नेहरू ने सन् 1959 में खुद संसद् में यह स्वीकार किया था, “सात या आठ वर्ष पहले मुझे चीन सरकार के साथ सीमा विवाद को लेकर चर्चा करने का कोई कारण ही नहीं दिखाई दिया, क्योंकि हो सकता है कि यह बात आपको बेवकूफाना लगे, मुझे लगा कि इसमें चर्चा के लिए कुछ भी नहीं है।” (ए.एस./154) इसके बावजूद उन्होंने सन् 1959 के बाद बातचीत करने और इस मुद्दे को सुलझाने की पहल की? अफसोस, नहीं की! 

मौजूदा स्थिति 
सीमा को लेकर अभी तक भी कोई समझौता नहीं हुआ है; हालाँकि, सीमा पर शांति बनाए रखने के लिए कई बार चीन-भारत विश्वास-बहाली के उपाय (सी.बी.एम.) और समझौते हुए हैं। 

दोनों ही देशों से उम्मीद की जाती है कि वे 7 नवंबर, 1959 की उस वास्तविक नियंत्रण रेखा (एल.ए.सी.) का सम्मान करें, जिसे चीन ने 21 नवंबर, 1962 को एकतरफा युद्धविराम की घोषणा के समय प्रस्तावित किया था। पूर्व में मैकमहोन रेखा और अन्य क्षेत्रों में पारंपरिक सीमा को एल.ए.सी. माना जाता है—लद्दाख क्षेत्र में यह लगभग मेकार्टनी-मैकडॉनल्ड लाइन के समान है। चूँकि, इनमें से किसी का भी उचित तरीके से परिसीमन नहीं किया गया है, कई उपखंडों में एल.ए.सी. की स्थिति को लेकर प्रत्येक पक्ष द्वारा अलग-अलग दावे किए जाते हैं, जिसके परिणामस्वरूव समय-समय पर ‘घटनाएँ’ या ‘घुसपैठ’ या ‘टकराव’—अधिकांश मामूली—और परिणामी विरोध होते रहते हैं। एक असहज-सी शांति बनी हुई है। 

50 और 60 के दशक में चीन जिन बातों के लिए राजी था, आज की तारीख में वे उसे स्वीकार्य नहीं हैं। अब, जब तिब्बत पूरी तरह से चीन का हिस्सा हो चुका है, वह उन सभी अधिकारों और क्षेत्रों पर अपना दावा पेश कर रहा है, जिन पर कभी तिब्बत करता था, जिसमें मैकमहोन रेखा के दक्षिण का क्षेत्र भी शामिल है। उदाहरण के लिए, चीन ने तवांग पर इस आधार पर अपना दावा ठोका है कि चूँकि वह छठे दलाई लामा का जन्म-स्थान है, इसलिए वह तिब्बती बौद्ध धर्म का केंद्र है; जैसेकि चीन को तिब्बत या फिर बौद्ध धर्म की बहुत अधिक परवाह हो! ऐसे कमजोर आधार पर तो चीन मंगोलिया पर भी अपना दावा प्रस्तुत कर सकता है—चौथे दलाई लामा का जन्म मंगोलिया में हुआ था! 

हर काम का एक नियत समय होता है और हमने 50 तथा 60 के दशकों में मौके को अपने हाथों से जाने दिया था। चीन तब मैकमहोन रेखा और अक्साई चिन पर ‘ईस्ट-वेस्ट लेन-देन स्वैप पैकेज’ के लिए तैयार था। यह दोनों के लिए ही अच्छा था। भारत को इस पर सहमत हो जाना चाहिए था। 

दोनों ही देशों के लिए अब उचित यह रहेगा कि वे एक ऐसे पैकेज डील पर सहमत हों, जो उसे कानूनी मान्यता प्रदान करे, जो क्षेत्र दोनों देशों के कब्जे में हैं, जिसमें (क) पश्चिम में सन् 1899 की तिब्बत-लद्दाख मेकार्टनी-मैकडॉनल्ड रेखा, जो अक्साई चिन को चीन के पास छोड़ देगा; (ख) पूर्व में सन् 1914 की तिब्बत-अरुणाचल प्रदेश मैकमहोन रेखा, जो पूरे अरुणाचल प्रदेश पर भारत के दावे को मजबूती प्रदान करेगा; और (ग) मध्य क्षेत्र में एल.ए.सी. या पारंपरिक सीमा को उचित समायोजन के साथ स्वीकार किया जाए, वह भी लेन-देन की भावना के साथ। संशोधित सीमाओं को बिल्कुल नए भारतीय-चीनी नाम दिए जाने चाहिए। 

सीमा विवाद के स्थायी समाधान के रास्ते में आनेवाली सबसे बड़ी रुकावट है—आर्थिक और सैन्य महाशक्ति के रूप में चीन का पूरी तरह से नाटकीय उभार। चीन जैसे-जैसे मजबूत होता है, उसे लगता है कि वह खुद को सौदेबाजी के लिए बेहतर स्थिति में पाता है। इसके अलावा, अतीत के बिल्कुल उलट, उसे विवाद को निबटाने की कोई जल्दी नहीं है और वह भारत को पटरी से उतारे रखने तथा उसे चिंता में डाले रखने के इरादे से सीमा विवाद को बनाए रखना चाहता है। भारत को बातचीत के विकल्प खुले रखने के अलावा अब मजबूत, हथियारों से लैस, मुखर और दृढ़ होना होगा, जिससे चीन को इस बात का अहसास हो कि नेहरूवादी-कांग्रेस के दिन और तरीके अब बीते दिनों की बात हो चुके हैं—चीन सिर्फ शक्तिशाली का ही सम्मान करना जानता है।