Janabai in Hindi Spiritual Stories by Ankit books and stories PDF | जनाबाई

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जनाबाई

संत जनाबाई 

भक्तिमति जनाबाई सुविख्यात भक्तश्रेष्ठ श्री नामदेवजी के घर मे नौकरानी थी। घर मे झाड़ू देना, बर्तन माँजना, कपड़े धोना और जल भरना आदि सभी काम उन्हें करने पड़ते थे। ऋषि-मुनियों की सेवा में रहकर पूर्वजन्म में जैसे देवर्षि नारदजी भगवान् के परम प्रेमी बन गए थे, वैसे ही भक्तवर नामदेव जी के घर मे होने वाली सत्संगति तथा भगवत चर्चा के प्रभाव से जनाबाई के सरल हृदय में भी भगवत्प्रेम का बीज अंकुरित हो गया था और उनकी भगवन्नाम में प्रीति हो गयी। जिसमें जिसकी प्रीति होती है, उसे वह भूल नही सकता। इसी तरह जनाबाई भी भगवन्नाम को निरन्तर स्मरण करने लगी। ज्यों-ज्यों नाम स्मरण बढ़ा त्यों-ही-त्यों उनके पापपुञ्ज जलने लगे और प्रेम का अंकुर पल्लवित होकर दृढ़ वृक्ष के रूप में परिणत होने लगा तथा उसकी जड़ सब ओर फैलने लगी।

एकादशी का दिन है, नामदेवजी के घर भक्तो की मण्डली एकत्र हुई है, रात के समय जागरण हो रहा है। नामकीर्तन और भजन में सभी मस्त हो रहे है। कोई कीर्तन करता है, कोई मृदङ्ग बजाता है, कोई करताल और कोई झाँझ बजाता है। प्रेमी भक्त प्रेम में तन्मय है, किसी को तन-मन की सुधि नहीं है। कोई नाचता है, कोई गाता है, कोई आँसू बहा रहा है, कोई मस्त हँसी हँस रहा है। कितनी रात हो गयी, इस बात का भी किसी को खयाल नही है। जनाबाई भी एक कोने में खड़ी प्रेम में मत्त होकर झूम रही है। इस आनंदानुभूति में डूबे रात बहुत ही जल्दी बीत गयी। उषाकाल हो गया। लोग अपने-अपने घर गए। जनाबाई भी अपने घर आयी। घर आने पर जनाबाई जरा लेट गयी। प्रेम की मादकता अभी पूरी नही उतरी थी, वह उसी में मुग्ध हुई पड़ी रही। सूर्यदेव उदय हो गये। जनाबाई उठी और सूर्योदय हुआ देखकर बहुत घबराई। उन्होंने सोचा, मुझे बहुत देर हो गई। मालिक के घर झाड़ू बर्तन की बड़ी कठिनाई हुई होगी,  वह हाथ-मुँह धोकर तुरंत काम पर चली पड़ी।

बहुत देर हो चुकी थी, जना घबराई हुई जल्दी-जल्दी हाथ का काम समाप्त करने लगी। परंतु हड़बड़ाहट में काम पूरा नही हो पाता था। एक काम मे विलम्ब हो जाने से सिलसिला बिगड़ जाने के कारण सभी मे विलम्ब होता है, यहां भी यही हुआ। झाड़ू देना है, पानी भरना है, कपड़े धोने है, बर्तन माँजने है, और न मालूम कितने काम हैं।
     
 कुछ काम निपटाकर वह जल्दी-जल्दी कपड़े लेकर उन्हें धोने के लिए चंद्रभागा नदी के किनारे पहुँची। कपड़े धोने में हाथ लगा ही था कि एक बहुत जरूरी काम याद आ गया, जो इसी समय न होने से नामदेवजी को बड़ा कष्ट होता; अतएव वह नदी से तुरंत मालिक के घर की ओर चली। रास्ते में अकस्मात् एक अपरिचिता वृद्धा स्त्री ने प्रेम से पल्ला पकड़कर जना से कहा, “बाई जना !  घबरायी हुई क्यों दौड़ रही हो? ऐसा क्या काम है?” जना ने अपना काम उसे बता दिया। वृद्धा ने स्नेहपूर्ण वचनों से कहा, “घबराओ नही !  तुम घर के काम कर आओ, तब तक मैं तुम्हारे कपड़े धोये देती हूँ।” जनाबाई ने कहा, “नही माँ ! तुम मेरे लिए कष्ट न उठाओ, मैं अभी लौट आती हूँ।” वृद्धा ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया, “मुझे इसमे कोई कष्ट नही होगा, मेरे लिए कोई भी काम करना बहुत आसान है, मैं सदा सभी तरह के काम करती रही हूँ, इससे मुझे अभ्यास है। इस पर भी तुम्हारा मन न माने तो कभी मेरे काम मे तुम भी सहायता कर देना।” जनाबाई को घर पहुंचने की जल्दी थी, इधर वृद्धा के वचनों में स्नेह टपक रहा था, वह कुछ भी बोल न सकी और मन-ही-मन वृद्धा की परोपकार-वृत्ति की सराहना करती हुई चली गयी। उसे क्या पता था कि यह वृद्धा मामूली स्त्री नही, सच्चिदानंदमयी जगज्जननी है।

वृद्धा ने बात ही बात में कपड़े धोकर साफ कर दिये। कपड़ो के साथ ही कपड़ो को पहनने और लाने वालो का कर्ममल भी धूल गया। थोड़ी देर में जनाबाई लौटी। धुले हुए कपड़े देखकर उनका हृदय कृतज्ञता से भर गया। उन्होंने वृद्धा से कहा, “माता! आज तुम्हे बड़ा कष्ट हुआ, तुम सरीखी परोपकारिणी माताएँ ईश्वर स्वरूप होती है।” 

जना तू भूलती है। यह वृद्धा ईश्वरस्वरूप नही है, साक्षात् ईश्वर ही है। तेरे प्रेमवश भगवान् ने वृद्धा का स्वांग रचा है।

वृद्धा ने मुस्कराते हुए कहा, “जना ! मुझे तो कोई कष्ट नही हुआ, काम ही कौन-सा था। लो अपने कपड़े, मैं जाती हूँ।” इतना कहकर वृद्धा वहां से चली गई। जना का हृदय वृद्धा के स्नेह से भर गया था, उन्हें पता ही नही लगा कि वृद्धा चली जा रही है। जना कपड़े बटोरने लगी, इतने में ही उसके मन मे आया कि वृद्धा ने इतना उपकार किया है, उसका नाम पता तो पूछ लूँ, जिससे कभी उसका दर्शन और सेवा-सत्कार किया जा सके।

वृद्धा कुछ ही क्षण पहले गयी थी। जना ने चारों ओर देखा, रास्ते की ओर दौड़ी, सब तरफ ढूंढा, वृद्धा का कही पता नहीं लगा, लगता भी कैसे?
         
जना निराश होकर नदी किनारे लौट आयी और वहां से कपड़े लेकर नामदेव जी के घर पहुँची। भक्त जना का मन वृद्धा के लिए व्याकुल था; वृद्धा ने जाते-जाते न मालूम क्या जादू कर दिया, जना कुछ समझ ही नही सकी। बात भी यही है। यह जादूगरनी थी भी बहुत निपुण।

सत्संग का समय था, संत मंडली एकत्र हो रही थी; जना ने वहां पहुंचकर अपना हाल नामदेव जी को सुनाना आरम्भ किया, कहते-कहते जना गद्गदकण्ठ हो गयी। भगवद्भक्त नामदेव जी सारी घटना सुनकर तुरंत लीलामय की लीला समझ गये और मन-ही-मन भगवान् की भक्तवत्सलता की प्रशंसा करते हुए प्रेम में मग्न हो गये। फिर बोले, “जना ! तू बड़भागिनी है। भगवान् ने तुझ पर बड़ा अनुग्रह किया। वह कोई मामूली बुढ़िया नहीं थी, वे तो साक्षात् नारायण थे, जो तेरे प्रेमवश बिना बुलाये ही तेरे काम मे हाथ बंटाने आये थे।” यह सुनते ही जनाबाई प्रेम से रोने लगी और भगवान् को कष्ट देने के कारण अपने को कोसने लगी। सारा संत समाज आनंद से पुलकित हो गया।

कहा जाता है कि इसके बाद भगवान् के प्रति जनाबाई का प्रेम बहुत ही बढ़ गया था और भगवान् समय-समय पर उसे दर्शन देकर कृतार्थ किया करते थे। जनाबाई चक्की पिसते समय भगवत्प्रेम के अभंग गाया करती थी, गाते-गाते जब वह प्रेमावेश में सुध-बुध भूल जाती, तब उनके बदले में भगवान् स्वयं चक्की पिसते और भक्तिमति जना के अभंगों को सुन-सुनकर प्रसन्न हुआ करते थे। महाराष्ट्र कवियों ने ‘जनी संगे दलिले’ यानी ‘जना के साथ चक्की पिसते थे।’ इस प्रकार गाया है। महाराष्ट्र-प्रान्त में जनाबाई का स्थान बहुत ही ऊँचा है।