भक्त धन्ना जाट
धन्ना जाट शालग्राम जी के बचपन से ही भक्त थे। इनका जन्म 1415 ईस्वी में दियोली शहर के नज़दीक गाँव धुआं में हुआ था। यह गाँव राजस्थान के टौंक जिले में है। उनके गुरु रामानन्द जी थे। शुरू में वह मूर्ति-पूजक थे, परन्तु बाद में वह निर्गुण ब्रह्म की आराधना में लग गए। बचपन में जैसे ब्राह्मण को उन्होंने शालग्राम जी की पूजा करते देखा था, अपनी समझ से वैसी ही पूजा करने का आयोजन वे करने लगे। धन्ना भगवान को रोटियों का भोग लगाते थे और भगवान प्रकट होकर उनका भोग ग्रहण करते थें।
धन्ना जाट के पिता एक साधुसेवी, सरलहृदय साधारण किसान थे। पढ़े-लिखे तो नहीं थे, पर थे श्रद्धालु। उनके यहाँ प्राय: विचरते हुए साधु-संत आकर एक-दो दिन रह जाते थे। धन्ना जी की उस समय पाँच वर्ष की अवस्था थी। उनके घर पर एक ब्राह्मण पधारे। उन्होंने अपने हाथों कुएँ से जल निकालकर स्नान किया और झोली में से शालग्राम जी को निकालकर उनकी तुलसी, चन्दन-धूप-दीप आदि से पूजा की। बालक धन्ना बड़े ध्यान से पूजा देख रहे थे। उन्होंने ब्राह्मण से कहा "पण्डित जी! मुझे भी एक मूर्ति दो। मैं भी पूजा करूँगा।" ब्राह्मण ने एक गोल मटोल पत्थर उठा कर देते हुए कहा "बेटा! यही तुम्हारे भगवान हैं। तुम इनकी पूजा किया करो।" बालक धन्ना को बड़ी प्रसन्नता हुई। अब वे अपने भगवान को कभी सिर पर रखते और कभी हृदय से लगाये घूमते। खेल-कूद तो वे भूल गए और लग गये भगवान की पूजा में। ब्राह्मण को जैसी पूजा करते उन्होंने देखा था, अपनी समझ से वैसी ही पूजा करने का आयोजन वे करने लगे।
बालक धन्ना ने बड़े सबेरे स्नान करके अपने भगवान को नहलाया। चन्दन तो पास में था नहीं, मिट्टी का तिलक किया। वृक्ष के हरे-हरे पत्ते चढ़ाये तुलसीदल के बदले। फूल चढ़ाये, कुछ तिनके जलाकर धूप कर दी और दीपक दिखा दिया। हाथ जोड़कर प्रेम से दण्डवत किया। दोपहर में माता ने बाजरे की रोटियाँ खाने को दीं। धन्ना ने वे रोटियाँ भगवान के आगे रखकर आँखे बंद कर लीं। बीच-बीच में थोड़ी आंखे खोलकर देखते भी जाते थे कि भगवान खा रहे हैं या नहीं। जब भगवान ने रोटीयाँ नहीं खायी, तब उन्होंने हाथ जोड़कर बहुत प्रार्थना की। इस पर भी भगवान को खाते न देख उन्हें बड़ा दु:ख हुआ। मन में आया कि "भगवान मुझसे नाराज हैं, इसी से मेरी दी हुई रोटी नहीं खाते।" भगवान भूखे रहें और स्वयं खा लें, यह उनकी समझ में नहीं आया रोटी उठाकर वे जंगल में फेंक आये।
कई दिन हो गये, ठाकुर जी खाते नहीं और धन्ना उपवास करते रहे। शरीर दुबला होता जा रहा था। माता-पिता को कुछ पता नहीं कि उनके लड़के को क्या हुआ, धन्ना को एक ही दु:ख है "ठाकुर जी उनसे नाराज हैं, उनकी रोटी नहीं खाते।" अपनी भूख-प्यास का उन्हें पता ही नहीं। कहाँ तक ऐसे सरल बालक से ठाकुर जी नाराज रहते। बाजरे की इतनी मीठी प्रेमभरी रोटियों को खाने का मन उनका कहाँ तक न होता।
एक दिन जब धन्ना ने रोटियाँ रखीं, वे प्रकट हो गये और लगे भोग लगाने। जब आधी रोटी खा चुके, तब हाथ पकड़ लिया बालक धन्ना ने, बोले "ठाकुर जी! इतने दिनों तक तो तुम आये नहीं। मुझे भूखा मारा और आज आये तो सारी रोटी अकेले ही खा जाना चाहते हो। मैं आज भी भूखा मरूँ क्या? मुझे क्या थोड़ी रोटी भी न दोगे?"
बची हुई रोटियाँ भगवान ने धन्ना को दे दीं। जिनको सुदामा के चावल द्वारका के छप्पनभोग से अधिक मीठे लगे, विदुर के शाक तथा विदुर पत्नी के केलों के छिलके के लोभ से दुर्योधन का सारा स्वागत-सत्कार जिन्होंने ठुकरा दिया था, भीलनी के बेर का स्वाद वर्णन करते हुए जो थकते नहीं थे, उनको-उन्हीं के प्रेम के भूखे ब्रज राजकुमार को धन्ना की रोटियों का स्वाद लग गया। अब नियमित रूप से वे धन्ना की रोटियों का नित्य भोग लगाने लगे।
बाल्यकाल समाप्त होने पर धन्ना जी में गम्भीरता आयी। भगवान ने भी इनके साथ अब बाल क्रीड़ा करना बंद कर दिया। परम्परा की रक्षा के लिये प्रभु ने इन्हें दीक्षा लेने का आदेश दिया। धन्ना जी वहाँ से काशी गये और वहाँ पर श्री रामानन्द जी से इन्होंने मंत्र ग्रहण किया। गुरुदेव की आज्ञा लेकर ये घर लौट आये।
अब धन्ना जी को सर्वत्र, सब में अपने भगवान के दर्शन होने लगे। वे उस हृदयहारी को सब कहीं देखते और उसकी स्मृति में मग्न रहते। एक दिन पिता ने इन्हें खेत में गेहूँ बोने भेजा। मार्ग में कुछ संत मिल गये। संतों ने भिक्षा माँगी। धन्ना तो सर्वत्र अपने भगवान को ही देखते थे। भूखे संत माँग रहे थे, ऐसा समय चूकने वाले धन्ना नहीं थे। जहाँ कोई दीन-दरिद्र भूख से पीड़ित होकर अन्न माँगते हैं, वहाँ स्वयं भगवान हमसे सेवा चाहते हैं, यह सदा स्मरण रखने की बात है। जो ऐसा अवसर पाकर चूक जाते हैं, उन्हें पश्चात्ताप करना पड़ता है। धन्ना ने समस्त गेहूँ संतों को दे दिया।
‘गेहूँ संतों को दे दिया यह जानकर माता-पिता असन्तुष्ट होंगे, उन्हें दु:ख होगा!' इस भय से धन्ना जी ने खेत में हल घुमाया और इस प्रकार खेत जोत दिया, जैसे गेहूँ बो दिया हो। घर आकर उन्होंने कुछ कहा नहीं। परंतु धन्ना ने भूमि के खेत में गेहूँ बोया हो या न बोया हो, उस खेत में तो बो ही दिया था, जहाँ बोये बीज का भण्डार कभी घटता नहीं। भक्त की प्रतिष्ठा रखने और उसका महत्त्व बड़ाने के लिये भगवान ने लीला दिखायी। कामदुघा पृथ्वी देवी ने धन्ना के खेत को गेहूँ के पौधों से भर दिया। चारों ओर लोग प्रशंसा करने लगे कि इस वर्ष धन्ना का खेत ऐसा उठा है, जैसा कभी कहीं सुना नहीं गया। पहले तो धन्ना जी को लगा कि लोग उनके सूखे खेत के कारण व्यंग्य करते हैं; पर अनेक लोगों से एक ही बात सुनकर वे स्वयं खेत देखने गये। जाकर जब हरा-भरा लहलहाता खेत उन्होंने देखा, तब उनके आश्चर्य का पार नहीं रहा। अपने प्रभु की अपार कृपा समझकर वे आनन्दनिमग्न होकर भगवान का नाम लेकर गाते हुए नृत्य करने लगे।