भूल-26
जम्मू व कश्मीर के लिए अनुच्छेद-35ए :
एक बार फिर नेहरू के चलते
नेहरू और जम्मू व कश्मीर के तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला के बीच हुए ‘1952 के दिल्ली समझौते’ के बाद अनुच्छेद-35ए को भारतीय संविधान में बेहद जल्दबाजी दिखाते हुए (बिना संसद् के माध्यम से पेश किए हुए, जैसाकि अनुच्छेद-368 के तहत आवश्यक है), नेहरू के नेतृत्ववाली केंद्र सरकार की सलाह पर सन् 1954 में राष्ट्रपति के आदेश के जरिए (अनुच्छेद-370 द्वारा प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करते हुए) जोड़ दिया गया, जिसके परिणामस्वरूप जम्मूव कश्मीर राज्य को अपने राज्य के ‘स्थायी निवासियों’ (पी.आर.) को परिभाषित करने का अधिकार मिल गया और उन्हें ऐसे अधिकार व विशेषाधिकार प्राप्त हो गए, जो भारत के अन्य नागरिकों को प्राप्त नहीं हैं।
उपर्युक्त प्रावधानों के तहत जम्मूव कश्मीर के स्थायी निवासियों को ‘स्थायी निवासी प्रमाण- पत्र’ (पी.आर.सी.) जारी किए जाते हैं। पी.आर.सी. से वचिं त भारतीय नागरिकों के लिए इन कमजोर और भेदभावपर्णू प्रावधानों का सबसे बड़ा नुकसान यह है कि वे इनके बिना जम्मूव कश्मीर में कोई अचल संपत्ति नहीं रख सकते। वे जम्मूव कश्मीर सरकार में कोई नौकरी नहीं पा सकते। वे जम्मूव कश्मीर सरकार द्वारा संचालित किसी कॉलेज में प्रवेश नहीं पा सकते और न ही किसी भी प्रकार की छात्रवृत्ति का लाभ उठा सकते हैं। इसके अलावा, अगर कोई पी.आर.सी. धारक महिला किसी ऐसे पुरुष से विवाह करती है, जिसके पास पी.आर.सी. नहीं है तो उसके बच्चे और उसका पति राज्य में किसी भी अधिकार का प्रयोग नहीं कर सकते। वे पी.आर.सी. के हकदार नहीं होंगे; साथ ही वे जम्मूव कश्मीर में किसी अचल संपत्ति पर उत्तराधिकार का दावा भी नहीं कर सकते।
जम्मू व कश्मीर के भारत में पर्णू एकीकरण की राह में सबसे बड़ी बाधा यह अनुच्छेद-35ए छे और साथ ही अनुच्छेद-370 रहे हैं; साथ ही यह क्षेत्र के विकास में भी बाधा उत्पन्न करता है, क्योंकि इस क्षेत्र में निवेश करने के लिए बाहरी लोगों के हाथ बाँध दिए गए थे।
इस अनुच्छेद को कई मजबूत बुनियादों के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई है, जिनमें से कुछ निम्नलिखित हैं—(क) चूँकि इसे संसद् के जरिए उचित और निर्धारित प्रक्रिया (अनुच्द-368 के तहत) का छे पालन किए बिना भारतीय संविधान में जोड़ा गया था, इसलिए यह पूरी तरह से अवैध है। (ख) यह अनुच्छेद-14 ( छे विधि के समक्ष समानता के अधिकार) का उल्घन लं करता है। (ग) यह महिला के अपनी पसंद से विवाह करने के अधिकार का हनन करता है।
यह कितनी बड़ी विडंबना है कि अनुच्छेद-35ए को अनुच्छेद-35 का विस्तार माना जाता है, जो मौलिक अधिकारों की बात करता है, जबकि 35ए वास्तव में बहुसंख्य आबादी के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है! दिलचस्प बात यह है कि 35ए को संविधान में अनुच्छेद-35 के तहत सूचीबद्ध नहीं किया गया है, बल्कि उसे परिशिष्ट में शामिल किया गया है।
अनुच्छेद-35ए के दुष्परिणामों का सबसे जीता-जागता उदाहरण उन 200 वाल्मीकि परिवारों की दुर्दशा का है, जिन्हें सन् 1950 में ‘सफाई कर्मचारियों’ के रूप में पी.आर.सी. दिलवाने के वादे के साथ जम्मूव कश्मीर में लाया गया था। हालाँकि कई दशक बीत जाने के बाद भी पी.आर.सी. न तो उन्हें और न ही उनके बच्चों को प्रदान की गई है। इनमें से कई, जो इसके बाद से आवश्यक शैक्षिक योग्यता भी प्राप्त कर चुके हैं, पी.आर.सी. न होने के चलते सरकारी नौकरियों के लिए आवेदन भी नहीं कर सकते हैं। वे लोकसभा चुनाव में तो अपने मताधिकार का प्रयोग कर सकते हैं, लेकिन जम्मूव कश्मीर विधानमंडल के लिए या स्थानीय निकायों के लिए नहीं। उनकी कॉलोनी को भी नियमित नहीं किया गया है। एक और दर्दनाक उदाहरण है उन करीब 2 लाख हिंदू-सिख शरणार्थियों का, जो सन् 1947 में विभाजन के बाद पश्चिमी पाकिस्तान से जम्मूव कश्मीर आए। इनमें से किसी को भी पी.आर.सी. नहीं मिली है और वे न तो जम्मूव कश्मीर में अचल संपत्ति प्राप्त कर सकते हैं, न ही जम्मूव कश्मीर में शैक्षिक या अन्य सुविधाएँ हासिल कर सकते हैं और न ही सरकारी नौकरी पा सकते हैं! वे भारतीय नागरिक तो हैं, लेकिन जम्मूव कश्मीर राज्य के नागरिक नहीं हैं। न्याय की उनकी गुहार दशकों से अनसुनी ही रही है।
इस अनुच्छेद से जुड़ी सबसे खराब बात यह थी कि हालाँकि इसे 14 मई, 1954 को पारित किया गया था, 14 मई, 1944 से अतीतलक्षी तरीके से लागू किया गया था—आजादी के बहुत पहले से। पाकिस्तान के हिंदू सन् 1947 में विभाजन के बाद जम्मू आए थे, इसलिए उनके हाथ बँध गए थे इस अध्यादेश के चलते—यह दिखाता है कि नेहरू उनकी व्यथा को लेकर कितने असंवेदनशील थे! अगर वे मुसलमान होते तो नेहरू का रुख बिल्कुल ही अलग और सामंजस्यपूर्ण होता, जैसाकि पूर्वी बंगाल के मुसलमानों के मामले में था।
यहाँ यह ध्यान रखना भी बहुत आवश्यक है कि शेख अब्दुल्ला ने सन् 1952 में उत्तर- पश्चिमी चीन के शिंजियांग के हजारों उईगर मुसलमानों को नागरिकता प्रदान की और 1959 में बख्शी गुलाम मोहम्मद ने हजारों तिब्बती मुसलमानों को नागरिकता दी; जबकि विभाजन से त्रस्त हिंदू बिना राज्य के शरणार्थी बने रहे और भारतीय पारिस्थितिकी तंत्र, मीडिया, नेहरू और कांग्रेस मूक गवाह बने रहे। (यू.आर.एल.89)
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, गृह मंत्री अमित शाह, एन.डी.ए. और भाजपा ने आखिरकार 5 अगस्त, 2019 को अनुच्छेद-35ए के साथ इस अन्यायपूर्ण अनुच्छेद-370 को पूरी तरह से खत्म कर दिया।