भूल-19
कश्मीर को लगभग खो ही दिया था
22 अक्तूबर, 1947 तक पाकिस्तानी हमलावर लगभग श्रीनगर के बाहरी क्षेत्रों तक पहुँच चुके थे और महाराजा ने निराशाभरी बेसब्री से भारत से मदद माँगी। अनिश्चितता की स्थिति को देखते हुए सरदार पटेल ने जम्मूव कश्मीर में भारतीय सेना को भेजने का प्रस्ताव रखा। हालाँकि माउंटबेटन ने इस बात पर जोर दिया कि जब तक जम्मूव कश्मीर द्वारा भारत के पक्ष में विलय के पत्र पर हस्ताक्षर नहीं हो जाते (नेहरू पूर्व में ही इस प्रस्ताव को अस्वीकार कर चुके थे (भूल#18) और इसकी सबसे अधिक संभावना है कि उन्होंने ऐसा माउंटबेटन के उकसाने पर किया था!), तब तक भारत को कश्मीर में सेना नहीं भेजनी चाहिए—और नेहरू राजी हो गए।
शुक्रवार, 24 अक्तूबर, 1947 को पाकिस्तानी हमलावरों ने मोहोर बिजलीघर पर हमला किया, जिसके चलते पूरे श्रीनगर में पूर्ण अंधकार छा गया। इसकी अगली सुबह शनिवार, 25 अक्तूबर, 1947 को भारत की रक्षा समिति की बैठक माउंटबेटन की अध्यक्षता में हुई और उसमें कश्मीर को बचाने के लिए कोई काररवाई करने के स्थान पर वी.पी. मेनन, सैम मानेकशॉ सहित कुछ अन्य शीर्ष सैन्य अधिकारियों को उसी दिन श्रीनगर जाने और प्रत्यक्ष स्थिति का जायजा लेने को निर्देशित किया। वास्तव में, यह माउंटबेटन की समय जाया करने की और भारत को जवाबी काररवाई करने से रोकने की एक चाल थी, ताकि पाकिस्तान बलपूर्वक मजबूत स्थिति में पहुँच जाए, जैसाकि ब्रिटिश चाहते थे; क्योंकि माउंटबेटन को पाकिस्तानी कमांडर-इन-चीफ से जरूर इस बात का पता चला होगा कि पाकिस्तान की योजना क्या है। (भारत और पाकिस्तान दोनों के कमांडर-इन-चीफ ब्रिटिश थे!)
वी.पी. मेनन और उनके साथ गए सैम मानेकशॉ तुरंत ही हवाई मार्ग से श्रीनगर पहुँचे और पाया कि स्थिति तो उससे भी कहीं बदतर है, जैसी बताई गई थी। उन्होंने महाराजा हरि सिंह को तुरंत सुरक्षित स्थान पर जम्मू चले जाने की सलाह दी। हरि सिंह उसी रात 200 किलोमीटर का सफर तय कर जम्मूपहुँचे। जम्मूव कश्मीर के प्रधानमंत्री एम.सी. महाजन, वी.पी. मेनन, सैम मानेकशॉ और उनके साथी अगली सुबह रविवार, 26 अक्तूबर, 1947 को श्रीनगर से दिल्ली लौटे एवं रक्षा समिति को वहाँ की नाजुक स्थिति के बारे में सूचित किया। उन्होंने बताया कि अगर सैनिकों को तुरंत हवाई मार्ग से वहाँ नहीं भेजा गया तो श्रीनगर और वहाँ के लोगों को बचाना संभव नहीं होगा। यहाँ तक कि श्रीनगर की हवाई पट्टी के भी हमलावरों के कब्जे में पहुँचने का खतरा था और ऐसा होने पर सैनिकों को वायु मार्ग से उतारने की इकलौती संभावना पर भी पानी फिर जाता।
इस नाजुक स्थिति के बावजूद और यह जानते हुए भी कि अगर तुरंत सहायता नहीं भेजी गई तो कश्मीरी मुसलमान और श्रीनगर के हिंदू—दोनों ही पाकिस्तानी हमलावरों द्वारा बेरहमी से काट दिए जाएँगे और कश्मीर घाटी पाकिस्तान के कब्जे में चली जाएगी, माउंटबेटन ने इस बात पर जोर दिया कि पहले विलय के अनुबंध पर भारत के पक्ष में हस्ताक्षर किए जाएँ। नेहरू अपने गुरु माउंटबेटन के कहे में चले। माउंटबेटन और नेहरू को यह गैर-कानूनी नहीं लगा कि पाकिस्तानी सेना द्वारा समर्थित हमलावरों ने जम्मूव कश्मीर पर हमला कर दिया है, जिसने पाकिस्तान के पक्ष में किसी भी प्रकार के विलय को रजामंदी नहीं दी है; लेकिन उनकी नजरों में लोगों को लुटने, इज्जत खोने और काट डाले जाने से बचाने के लिए भारतीय सेना को भेजना अवैध लगा।
उम्मीद के मुताबिक, वी.पी. मेनन उसी दिन रविवार, 26 अक्तूबर, 1947 को महाराजा हरि सिंह से विलय के अनुबंध पर हस्ताक्षर करवाने के लिए हवाई मार्ग से जम्मू के लिए रवाना हुए और उन्होंने ऐसा ही किया। हरि सिंह द्वारा रविवार, 26 अक्तूबर, 1947 को हस्ताक्षर किया गया और वी.पी. मेनन द्वारा उसी दिन वापस लाया गया विलय का अनुबंध माउंटबेटन द्वारा सोमवार, 27 अक्तूबर, 1947 को स्वीकार किया गया। इस अनुबंध के हस्ताक्षर होने और स्वीकार किए जाने के बाद जम्मूव कश्मीर कानूनी रूप से भारत का हिस्सा बन गया और भारत के लिए अपने क्षेत्र की रक्षा करना और हमलावरों को बाहर निकाल फेंकना आवश्यक हो गया।
सोमवार, 27 अक्तूबर, 1947 को रक्षा समिति की हुई बैठक में सैम मानेकशॉ ने सदस्यों को सैन्य स्थिति से अवगत करवाया। उन्होंने कहा कि हमलावर श्रीनगर से बमुश्किल 7 से 9 किलाेमीटर दूर हैं और अगर सेना को तुरंत ही हवाई मार्ग से नहीं भेजा गया तो श्रीनगर से हाथ धो बैठेंगे; क्योंकि सड़क मार्ग से जाने में कई दिन का समय लगेगा। एक बार हवाई अड्डा और श्रीनगर हमलावरों के कब्जे में आ गए तो सेना को हवाई मार्ग से वहाँ भेजना संभव नहीं होगा। उन्होंने आगे यह भी बताया कि हवाई अड्डेपर सबकुछ बिल्कुल तैयार है और एक बार आदेश जारी किए जाते ही सेना को तुरंत हवाई मार्ग से वहाँ भेजा जा सकता है।
हालाँकि माउंटबेटन, जो पाकिस्तान-समर्थक ब्रिटिश हितों की पूर्ति कर रहे थे, ने यह कहते हुए कि अब बहुत देर हो चुकी है और हमलावर पहले ही श्रीनगर के दरवाजे तक पहुँच चुके हैं, भारतीय सेना के भेजे जाने को टालने का पूरा प्रयास किया। लेकिन इसे सबसे पहले विलंबित किसने किया—माउंटबेटन ने खुद! नेहरू ने हमेशा की तरह टाल-मटोल की।
इसके अलावा, जब तत्काल काररवाई करना बिल्कुल जरूरी हो गया तो “माउंटबेटन ने अपना मत किसी भी अविलंबित काररवाई के खिलाफ रखा और अधिक जानकारी की आवश्यकता पर जोर दिया। सी. दासगुप्ता अपनी पुस्तक ‘वॉर ऐंड डिप्लोमेसी इन कश्मीर, 1947-48’ में ऐसा लिखते हैं (डी.जी./45)। यहाँ तक कि वी.पी. मेनन और सैम मानेकशॉ के जरिए अधिक जानकारी मिलने के बाद भी, जिन्हें विशेष रूप से सिर्फ इसी काम के लिए 25 अक्तूबर, 1947 को हवाई मार्ग द्वारा श्रीनगर भेजा गया था और जिन्होंने सैनिकों को तत्काल हवाई मार्ग से भेजने की सलाह दी थी, तो भी माउंटबेटन ने अनिच्छा जताई। दासगुप्ता लिखते हैं— “...माउंटबेटन द्वारा समर्थित सैन्य प्रमुख (सभी ब्रिटिश) ने मंत्रियों को हवाई मार्ग के विचार से इस आधार पर रोकने का प्रयास किया कि ऐसा करने में बड़े जोखिम और खतरे शामिल हैं।” (डी.जी./47)
आखिरकार, सरदार पटेल ने हस्तक्षेप किया। सैम मानेकशॉ, जो बाद में भारतीय सेना के पहले फील्ड मार्शल बने, ने प्रेम शंकर झा के साथ अपने एक साक्षात्कार में कहा (झा1)—
“उन्होंने (वी.पी. मेनन/पटेल) सुबह की बैठक में वह चीज (विलय) सौंप दी। माउंटबेटन पीछे पलटे और कहा, ‘आइए मानेकजी (वे मुझे ‘मानेकशॉ’ के बजाय ‘मानेकजी’ कहते थे), सैन्य स्थिति क्या है?’ मैंने उन्हें सैन्य स्थिति की जानकारी दी और उनसे कहा कि अगर हम सैनिकों को तुरंत हवाई मार्ग से नहीं भेजते हैं तो हम श्रीनगर से हाथ धो बैठेंगे और एक बार कबाइलियों के हवाई अड्डे एवं श्रीनगर में घुस जाने के बाद हम अपने सैनिकों को हवाई मार्ग से नहीं भेज सकेंगे। हवाई अड्डेपर सबकुछ बिल्कुल तैयार है। नेहरू ने हमेशा की तरह संयुक्त राष्ट्र, रूस, अफ्रीका, सर्वशक्तिमान ईश्वर, हर किसी के बारे में तब तक बात की, जब तक कि सरदार पटेल अपना आपा नहीं खो बैठे। वे बोले, ‘जवाहरलाल, क्या आप कश्मीर चाहते हैं या फिर इससे हाथ धो बैठना चाहते हैं?’ वे (नेहरू) बोले, ‘बेशक, मैं कश्मीर चाहता हूँ।’ इसके बाद वे (पटेल) बोले, ‘कृपया अपने आदेश दें।’ और इससे पहले कि वे कुछ बोलते, सरदार पटेल मेरी ओर मुड़े और कहा, ‘आपको अपने आदेश मिल गए हैं।’ मैं वहाँ से बाहर निकला और हमने सैनिकों को हवाई मार्ग से भेजना शुरू कर दिया।” (झा 1/135)
इसके अलावा, ऐसा भी बताया जाता है कि जम्मूव कश्मीर के प्रधानमंत्री मेहर चंद महाजन ने तो भारत द्वारा जम्मूव कश्मीर के लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित करने में असफल रहने पर कराची का रुख करने और जिन्ना को कश्मीर की पेशकश करने की धमकी भी दी थी। कई व्यावहारिक जटिलताओं, तैयारी की कमी और थोड़ी देर पहले की ही सूचना होने के बावजूद भारतीय सेना ने अपनी योग्यता साबित की और हमलावरों को घाटी से बाहर खदेड़ दिया। यहाँ पर लिखकर रख लेनेवाली एक सच्चाई यह भी है कि अगर भारतीय सेना समय से श्रीनगर नहीं पहुँची होती तो श्रीनगर और उसके आसपास के क्षेत्रों में पाकिस्तानी हमलावरों द्वारा बड़े पैमाने पर नर-संहार और मार-काट की गई होती, जिसकी पूरे भारत में प्रतिक्रिया होने की पूरी संभावना थी। लेकिन माउंटबेटन और ब्रिटिशों की नजर में भारतीयों की जान की कोई कीमत नहीं थी। ब्रिटिश सिर्फ पाक-समर्थक ब्रिटिश हितों की पूर्ति कर रहे थे। लेकिन नेहरू? अगर सरदार पटेल ने कदम नहीं उठाया होता और इस काम को नेहरू व माउंटबेटन के जिम्मे छोड़ दिया गया होता तो पूरा कश्मीर पाकिस्तान के हवाले हो गया होता और फिर स्थानीय लोगों को काटकर फेंक दिया गया होता।