गाँव का नाम था — सूरजपुर। वहाँ एक बूढ़ी माँ रहती थी, नाम था सावित्री देवी। उनके तीन बेटे थे – राजेश, सुरेश और महेश। तीनों शादीशुदा थे और अलग-अलग रहते थे। माँ पहले सबके साथ रहती थीं, लेकिन धीरे-धीरे हर बेटे ने उन्हें "थोड़े समय" के लिए अपने घर से बाहर कर दिया।
अब माँ अकेली एक झोपड़ी में रहती थीं। कमज़ोर शरीर, धुंधली आँखें, और सूखी रोटियों में दिन कटते थे। गाँव के लोग देखकर अफ़सोस करते, पर बेटे व्यस्त थे – कभी ऑफिस, कभी बच्चे, कभी बीवी।
एक दिन गाँव के स्कूल में “संयुक्त परिवार और बुजुर्गों का सम्मान” पर नाटक होने वाला था। बच्चों ने गाँववालों को बुलाया। मंच पर दृश्य था – एक बूढ़ी माँ तीन बेटों से प्यार चाहती है, लेकिन सब उसे ठुकराते हैं। अंत में माँ भूख और अकेलेपन से मर जाती है।
नाटक खत्म हुआ और पूरा हॉल शांत हो गया। सामने की पंक्ति में बैठी सावित्री देवी की आँखें भर आईं। लेकिन सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात तब हुई जब राजेश, सुरेश, और महेश उठे और मंच पर चले गए। उन्होंने माइक उठाया और कहा:
"ये सिर्फ़ नाटक नहीं था, ये हमारी सच्चाई थी। आज हमने अपनी गलती समझी है। माँ, चलिए… अब हम सब एक ही थाली में खाना खाएंगे… हमेशा के लिए।”
पूरा गाँव तालियों से गूंज उठा। माँ की आँखों में अब आँसू नहीं, मुस्कान थी।
सीख:
“बुजुर्गों की सेवा और सम्मान सिर्फ़ एक ज़िम्मेदारी नहीं, हमारा धर्म है। जब हम उन्हें अकेला छोड़ देते हैं, हम अपने ही भविष्य को अंधेरे में डालते हैं
कहानी “एक थाली खाना” का दूसरा भाग, जो पहले भाग की आगे की भावनात्मक और सामाजिक यात्रा को दर्शाता है:
दूसरा भाग: "माँ का आँगन"
सावित्री देवी अब अपने बड़े बेटे राजेश के घर रहने लगी थीं। बेटों ने मिलकर फैसला किया था कि अब सब एक साथ रहेंगे — संयुक्त परिवार की तरह।
शुरुआत में सब कुछ बहुत अच्छा चला। माँ के लिए अलग कमरा बनाया गया, खाने-पीने का ध्यान रखा गया, और पोते-पोतियों ने भी दादी से कहानियाँ सुननी शुरू कर दीं।
पर जैसे-जैसे दिन बीतते गए, धीरे-धीरे वही पुरानी बातें फिर लौटने लगीं।कभी राजेश की पत्नी को लगता कि माँ पक्षपाती हैं,कभी सुरेश को लगता माँ ज़्यादा राजेश के घर में रहती हैं,और कभी महेश की पत्नी को लगता कि माँ उनके बच्चों को कम प्यार करती हैं।
माँ चुप थीं…बस हर शाम तुलसी के आगे दीपक जलातीं और भगवान से यही प्रार्थना करतीं —“हे ठाकुर… मेरे बच्चों का मन जोड़ दे।”
एक दिन सावित्री देवी ने सबको आँगन में बुलाया।वहाँ एक पुराना लकड़ी का झूला रखा था, जिस पर कभी तीनों बेटे झूला करते थे।
माँ बोलीं —
“इस झूले में एक खूबी थी… अगर कोई एक ज़्यादा ज़ोर से झूले तो दूसरा गिर जाता था। लेकिन जब तीनों मिलकर झूलते थे, तो सबसे ऊँचा झूला पड़ता था।
तुम भी वही झूला हो मेरे जीवन का… अलग-अलग झूलोगे तो मैं गिर जाऊँगी।लेकिन साथ झूलोगे तो मेरा आँगन फिर से खिल उठेगा।”
तीनों बेटे और बहुएँ शांत थे। कोई जवाब नहीं था… सिर्फ़ आँखों में पछतावे थे।
उसी दिन से घर में नया नियम बना –हर रविवार को “माँ का दिन” होगा। सभी बेटे-बहुएँ एक साथ खाना बनाएँगे, घर के आँगन में झूला झूलेंगे, और माँ को अपनी गोद में बिठाकर कहानियाँ सुनाएँगे।
माँ की आँखों में अब हर रोज़ दीपक जलता था –एक उम्मीद, एक आशीर्वाद, और एक सच्चा ‘घर’।
सीख (भाग 2):
"संयुक्त परिवार केवल साथ रहने से नहीं बनता,वह बनता है… मन के मेल और एक-दूसरे की परवाह से।"
अगर आप चाहें तो इसका तीसरा भाग भी लिखा जा सकती है, जिसमें आने वाली पीढ़ी यानी पोते-पोतियों की सोच को दिखाया जाएगा।
बताइए, आगे लिखूं?