अलका 'राज़' अग्रवाल ✍️✍️
अलका "राज़" अग्रवाल ,✍️✍️
****ग़ज़ल***
याद मुझको आए वो हर बात में।
जाने क्या मैं कहगई जज़्बात में।।
खिल गया दिल चाँदनी सा रात में।
खो गई उनकी मैं हरिक इक बात में।।
सारा कुछ तो दे दिया मैंने तुम्हें।
और क्या दूँ मैं तुम्हें सौग़ात में।।
क्या हुवा आख़िर ज़रा बतलाइये।
दिल में है नफ़रत पली किस बात में।।
भीगने का ख़ूब आएगा मज़ा।
हमसफ़र बन कर चलें बरसात में।।
आईना दिखलाने जो हमको चले।
वो ज़रा अपनी रहें औक़ात में।।
देना हो तो दीजिये कोई ख़ुशी।
ग़म हमारे पास हैं इफ़रात में।।
फूल ख़ुशियोँ के खिले हैं चार सू।
जब ख़ुशी और ग़म मिले हैं रात में।।
वक़्त इक दिन "राज़" बदले गा ज़रूर।
मुस्कुराएं हम हरिक हालात में।।
अलका 'राज़ ' अग्रवाल ✍️✍️
.***ग़ज़ल***
जैसे मुश्किल से डर गई हूँ मैं।
टूट कर फिर बिखर गई हूँ मैं।।
बन के ख़ुशबू बिखर गई हूँ मैं।
सब के दिल में उतर गई हूँ मैं।।
ज़िन्दगी किस तरह तुझे जीती।
मौत से क़ब्ल मर गई हूँ मैं।।
उसकी तस्वीर थी मेरे दिल में।
जिसके अंदर उतर गई हूँ मैं।।
उसकी आँखें थीं झील सी गहरी।
इन में डूबी उभर गई हूँ मैं।।
एक तस्वीर थी मैं बे रंग सी।
इश्क़ के रंग से भर गई हूँ मैं।।
"राज़" जिसने किया मुझे बर्बाद।
उसकी यादों में मर गई हूँ मैं।।
*****ग़ज़ल*****
1212 .......1122.........1212....22/112
कहाँ से लाऊँगा ख़ुशियाँ में ग़म का मारा हुआ।
तुम्हारा ग़म मिरे जीने का अब सहारा हुआ।।
मुझे न ग़ैर ना अपनों का ही सहारा हुआ।
मैं वो हूँ जिसको मुनाफ़े में भी ख़सारा हुआ ।।
बिछा के पलकें मैं बैठी थी राह में कब की।
मुझे कभी नहीं दीदार क्यूँ तुम्हारा हुआ।।
अबस ही फ़िक्र क्यूँ पाले हुवे हो तुम दिल में।
तुम्हारा दर्द भी सब यार अब हमारा हुआ।।
तुम्हारी याद में आँसू बहाए हैं इतने।
के बहता हुवा कोई आबशारा हुआ।।
कहीं भी इसकी जगह है नहीं ज़माने में।
कहाँ पे जाए तिरे दर का अब नकारा हुआ।।
किसी ने "राज़" बहाए हैं अश्क फ़ुर्क़त में।
तमाम पानी जो दरिया का आज खारा हुआ।।
अलका राज़ अग्रवाल ✍️✍️
*****ग़ज़ल****
निकला झुका के सर जो बग़ल से किधर गया।
वो मेरे दिल को दोस्तों बेताब कर गया।
ज़ालिम था कौन कौन उसे मिस्मार कर गया।
सहने चमन वो कितना था प्यार किधर गया।।
कितने ही ऐसे देखे हैं औरों के ज़ोर पर।
बरसात थम गई है तो दरिया उतर गया।।
आया जो भूके बच्चों का अपने उसे ख़याल।
मज़दूर देखो कान के अंदर उतर गया।।
आया है कौन लेके गुलों सा बदन यहाँ।
महफ़िल को आज कौन ये ख़ुशबू से भर गया।।
दस्तक जो अपने आने की सूरज ने दी फ़क़त।
देखो वो काली रात का चेहरा निखर गया।।
जोशे जुनू ने "राज़" ये खोले हैं किस क़दर।
मैं बैठे बैठे सेकड़ों मन्ज़िल गुज़र गया।।
अलका ' राज़ ' अग्रवाल ✍️✍️
****ग़ज़ल***
तिरी ख़ुशबू से ही महकी फ़ज़ा है।
चमन में हर तरफ़ बस ये सदा है।।
हुनर है ये के उसका हौसला है ,
फ़लक को भी ज़मीं से छू रहा है।।
रखा है दिल पे अपने हमने पत्थर।
मगर आँखों में इक दर्या छुपा है।।
दुखों के क़ाफ़िले हर-इक क़दम पर ,
अजब ये हादिसों का सिलसिला है।।
किसी की बे रुख़ी का क्या गिला हो।
मुक़द्दर मुझसे जब रूठा हुवा है।।
लगे हैं दाग़ जो दामन पे मेरे।
यहाँ पर कौन बतला पारसा है।।
नहीं है चैन इक पल ज़िन्दगी में।
सुकूँ के वास्ते बस मयकदा है।।
खंडहर वीरान हैं चाहत के कितने।
मचलता हसरतों का क़ाफ़ला है।।
तअक़क़ूब "राज़" छोड़ो इस जहाँ का।
ख़ुदा की बन्दगी में ही भला है।।