✦ विषय सूची ✦
✦ प्राक्कथन
✦ अध्याय 1 : रमन - पढाई या दबाव
✦ अध्याय 2 : सुजल - प्रेम और पतन
✦ अध्याय 3 : अमृत - कर्ज या फ़र्ज
✦ अध्याय 4 : सौरभ - नशे में डूबती युवा आत्मा
✦ अध्याय 5 : सुनील - उम्मीदों का बोझ
✦ अंतिम पड़ाव
✦ लेखक के बारे में
✦ प्राक्कथन ✦
"कभी-कभी ज़िंदगी से भागने वाले, सबसे ज़्यादा ज़िंदा महसूस करने वाले होते हैं..."
यह उपन्यास एक प्रेम कथा नहीं है, न ही कोई रहस्यपूर्ण थ्रिलर। यह उन साँसों की कहानी है, जो लगातार टूटीं, थकीं, घिसीं — और फिर भी किसी एक रात, एक आखिरी कोशिश में किसी अनदेखे प्रकाश की ओर मुड़ गईं।
‘उज्जैन एक्सप्रेस’ सिर्फ एक ट्रेन का नाम नहीं है। यह प्रतीक है उस मोड़ का जहाँ जीवन और मृत्यु की रेलगाड़ियाँ आमने-सामने आती है ।
हर अध्याय एक नए युवक की पीड़ा है — पढ़ाई का दबाव, प्रेम की असफलता, कर्ज़ की चट्टान, नशे की दलदल, या परिवार की उम्मीदों का बोझ। और अध्याय में एक लड़की आती है — अचानक, रहस्यमयी, लेकिन सजीव — जो उस युवक को जीवन का कोई और पहलू दिखाने की कोशिश करती है।
यह उपन्यास सिर्फ ‘आत्महत्या’ के बारे में भी नहीं है। यह उन अनकहे दर्दों की गूँज है, जो हमारे आसपास के चेहरों में रोज़ छिपी होती हैं। यह बताता है कि हर मुस्कुराता इंसान ठीक नहीं होता, और हर समझाया गया दिल बच नहीं पाता।
क्योंकि सच यह है — समझाना आसान है, पर समझ पाना दुर्लभ। और कभी-कभी, मौत ज़िंदगी से ज़्यादा आसान लगने लगती है।
इस उपन्यास को पढ़ते हुए, शायद आप किसी को याद करें — कोई दोस्त, कोई भाई, कोई प्रेमिका... या शायद खुद को।
अगर इस कहानी से एक भी साँस कुछ पल और रुक जाए, तो शायद ये उपन्यास अपनी भूमिका निभा चुका होगा।
- लखन
✦✦✦ नोट : यहाँ केवल उपन्यास का शुरुवाती हिस्सा दिया गया हैं , अगर आप भी पढने के शौकीन हैं या पूरा उपन्यास समग्रता से पढना या प्राप्त करना चाहते हैं तो आप AMAZON अथवा AMAZON KINDLE से इसे प्राप्त कर सकते हैं। ✦✦✦
✦ अध्याय 1: रमन – पढ़ाई या दबाव ✦
"मैं कब हार गया था, ये याद नहीं... पर अब जीतने का मन नहीं करता।"
रात के तकरीबन साढ़े ग्यारह बज रहे थे। उज्जैन जंक्शन लगभग सूना पड़ा था, जैसे स्टेशन ने भी अब थककर चुप्पी ओढ़ ली हो। हल्की पीली रोशनी प्लेटफॉर्म की बेंचों पर बिखरी थी, और हवा में एक थका-थका सा सन्नाटा घुला था।
रमन, उस सूने प्लेटफॉर्म की एक बेंच पर बैठा था — आँखें रेल की पटरियों पर टिकी थीं और मन किसी पुराने रिज़ल्ट कार्ड पर अटका हुआ था। उसके कंधे झुके हुए थे, जैसे ज़िंदगी ने उसे पूरी तरह पीस डाला हो।
उसके हाथ में एक पुरानी कॉपी थी, जिसके कोने मुड़े हुए थे। वही कॉपी जिसमें कभी जेईई के नोट्स हुआ करते थे — और अब, वही कॉपी ‘अलविदा’ का खत बन चुकी थी।
उसने धीरे से पेन उठाया। हाथ काँप रहे थे, पर शब्द साफ थे।
"माँ... मुझे माफ़ करना। कोशिश की थी, सच में की थी... पर हर बार खुद से हार गया। इस बार और नहीं हो पाएगा। मैं थक गया हूँ माँ... अब और नहीं।"
किसी ने कभी नहीं पूछा था कि एक होनहार छात्र कब बोझ बन जाता है।
हर कोई कहता था — "और मेहनत करो। और सुधारो खुद को।"
पर कोई नहीं जानता था कि हर बार गिरने के बाद उठना, हर बार नाकाम होना और फिर भी उम्मीद रखने की कोशिश करना, अपने आप में एक जंग है — जो रोज़-रोज़ भीतर से इंसान को खा जाती है।
रमन को याद आया:
“तेरा बेटा इंजीनियर बनेगा…” – माँ ने मोहल्ले की औरतों से कहा था।
“बन गया न इंजीनियर? अब बोलो किस मशीन में ठुंसेगा?”
– पिता ने उसी शाम रिपोर्ट कार्ड देखकर कहा था।
बचपन में जो किताबें उसकी दोस्त थीं, वही अब दुश्मन बन चुकी थीं। रमन ने तीन साल कोशिश की थी – कोचिंग, ट्यूशन, नोट्स, दिन-रात की पढ़ाई... पर 12वीं में लगातार तीसरी बार फेल होना, उसके आत्मसम्मान को आखिरी बार तोड़ गया था।
अब घर में कोई बात नहीं करता था। माँ की आँखें चुप हो चुकी थीं, पिता का गुस्सा स्थायी हो गया था। दोस्त अपने-अपने कॉलेज निकल गए थे, और सोशल मीडिया अब एक आईना बन गया था जिसमें रमन हर दिन खुद को और नाकाम देखता था।
हर सुबह एक अपराधबोध के साथ शुरू होती थी — जैसे वो ज़िंदा रहकर ही सबके सपनों की तौहीन कर रहा हो। कभी-कभी उसे लगता था कि वो बस एक संख्या बनकर रह गया है — जिस पर सबकी उम्मीदें चढ़ाई गईं थीं, और अब वही उम्मीदें उसकी साँसों पर बोझ बन चुकी थीं।
“आज कुछ खत्म करना है...” उसने खुद से बुदबुदाया।
ट्रेन की सीटी दूर से सुनाई दी। उज्जैन एक्सप्रेस... वही ट्रेन, जिसे आज उसका आखिरी पड़ाव बनना था।
उसने बैग उठाया, जिसमें अब किताबें नहीं थीं... बस एक कॉपी, एक खत और एक टूटी हुई उम्मीद थी।
वो प्लेटफॉर्म के आखिरी छोर की ओर बढ़ा। अंधेरा ज़्यादा था वहाँ, और सीसीटीवी कैमरे कम। शायद इसलिए, वो जगह आत्महत्या के लिए ‘सही’ थी।
लेकिन जैसे ही वो आखिरी पायदान के पास पहुँचा, एक आवाज़ ने उसके कदम रोक दिए:
"इतनी रात को अकेले... मरने का इरादा है क्या?"
रमन चौंक गया। पीछे मुड़कर देखा। एक लड़की खड़ी थी — एकदम शांत, एकदम अपरिचित। सफेद सलवार-कुर्ती, खुले बाल, आँखों में अजीब सी ठंडी चमक , चेहरे पर स्थिरता थी, जैसे वो जानती हो कि यहाँ क्या होने वाला है।
। वो डरावनी नहीं थी, लेकिन सामान्य भी नहीं।
"तुम... कौन हो ?" रमन की आवाज़ काँप रही थी।
मीरा मुस्कुराई । तुमसे ज़्यादा मुश्किल सवाल तो मैंने खुद से पूछे हैं। चलो, बैठो। आखिरी बात करते हैं ज़िंदगी से।"
रमन चुपचाप बैठ गया। पहली बार किसी ने उसे रोकने की कोशिश की थी... बिना सलाह दिए, बिना ताने मारे।
कुछ देर दोनों चुप बैठे रहे। सिर्फ ट्रेन की दूर आती आवाज़ सुनाई देती रही।
"तुम थक गए हो न?" मीरा ने धीरे से पूछा।
रमन की आँखें भर आईं। "बहुत ज़्यादा... हर कोई कहता है कोशिश करो... पर कोई ये नहीं समझता कि हर सुबह बिस्तर से उठना भी कितना भारी होता है जब तुम्हें पता हो कि फिर नाकामी मिलेगी। जब हर दरवाज़ा बंद लगे, और हर सपना धुँधला। और सबसे बुरा ये कि जब तुम खुद से भी नज़र नहीं मिला पाते।"
मीरा की आवाज़ नर्म थी, पर उसमें अजीब सी पकड़ थी। "मैं जानती हूँ। हारने का डर सिर्फ परीक्षा में नंबर लाने का नहीं होता... ये डर आत्मा तक उतर जाता है, जहाँ तुम खुद से नज़र नहीं मिला पाते। जहाँ हर साँस एक सज़ा लगती है। लेकिन ये भी सच है कि दर्द कभी भी स्थायी नहीं होता। इंसान को बदलने के लिए एक गिरना काफी होता है, लेकिन फिर उठने के लिए बस एक शब्द, एक इंसान, एक पल भी बहुत होता है।"
"मैं अकेला नहीं हूँ... मैं खाली हूँ। मेरे अंदर अब कुछ नहीं बचा। न आत्मविश्वास, न इच्छा, न भविष्य। बस एक बोझ बचा है।" रमन की आवाज़ टूटी हुई थी।"
खालीपन सबसे बड़ी शुरुआत होती है। जब सब कुछ गिर जाता है, तब ही तो कुछ नया उगता है। अगर अभी कूद गए, तो तुम्हें कभी पता नहीं चलेगा कि इस अंधेरे के उस पार क्या था। शायद तुम्हारा वही रूप जो खुद पर गर्व करता, वो तुम्हारा इंतज़ार कर रहा हो।"
रमन कुछ नहीं बोला। लेकिन उसकी आँखों में हलचल थी।
मीरा ने उसकी ओर देखा और कहा, "तुम्हारे जैसे कई लोग हैं, रमन। जो चुपचाप मुस्कुराते हैं, पर अंदर से रो रहे होते हैं। तुम उनके लिए ज़िंदा रहो। कोई तो होगा जो तुम्हें देख कर कहे – अगर ये लड़का रुक सकता है, तो मैं भी रुक सकता हूँ। और फिर, सोचो ज़रा, अगर तुम ज़िंदा रहे, और कभी किसी को बचा सके... तो क्या तुम्हारी हार, किसी और की जीत नहीं बन जाएगी?"
"क्या तुम्हें सच में लगता है, मैं कुछ बदल सकता हूँ?"
"तुम पहले ही बदल चुके हो। क्योंकि तुमने आज पहली बार किसी से बात की है... अपनी हार स्वीकार की है। ये बहुत बड़ी बात है। अब अगर तुम एक कदम पीछे हट जाओ, तो शायद आने वाले सालों में तुम्हें खुद पर गर्व हो। या कम से कम पछतावा नहीं।"
ट्रेन की सीटी पास आ रही थी।
रमन की आँखें भीग चुकी थीं। वो कुछ कह नहीं पाया। लड़की अब दिखाई नहीं दे रही थी।
वो अकेला खड़ा था — वही कॉपी, वही खत, वही अधूरी साँसें लिए। उसके चेहरे पर अब भी थकावट थी, पर आँखों में कोई हल्की सी चमक थी... जैसे किसी ने अंदर की दरारों में एक दिया रख दिया हो।
कहीं दूर से आती हवा के झोंके में कॉपी का पन्ना फड़फड़ाया। शायद ज़िंदगी ने रमन को एक और मौका दिया था — खुद से मिलने का।
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