> "बेटा, जब तू ये खत पढ़ रहा होगा... शायद मैं इस दुनिया में नहीं होऊँगी।"
बस यही एक लाइन थी उस खत की शुरुआत में, जिसे अरमान ने माँ के पुराने संदूक से निकाला था। संदूक वो था जो उसने पिछले 7 सालों से छुआ भी नहीं था — और उस दिन, ना जाने क्यों, उसका मन किया खोलने का।
वो संदूक, जो माँ की आखिरी निशानी थी।
वहीं रखी थी — कमरे के एक कोने में, धूल से भरा, चुपचाप।
अरमान ने धीरे से ढक्कन उठाया। पुरानी साड़ियां, एक टूटी हुई चूड़ियों की डिब्बी, और सबसे नीचे वो खत — हल्के पीले काग़ज़ पर माँ की लिखावट… जो अब भी वैसी ही थी, जैसे माँ आज भी यहीं हो।
अरमान आज एक सफल बिजनेसमैन है। मुंबई के सबसे ऊंचे टावर में उसका ऑफिस है, गाड़ी BMW, बंगलों की कतार और नाम ऐसा कि अख़बारों में आता है।
लेकिन अंदर कहीं एक खालीपन हमेशा से था… जो माँ के जाने के बाद और गहरा हो गया।
खत थमा था, पर अरमान का दिल कांप रहा था।
> "मैं जानती हूँ कि तू मुझसे नफ़रत करता है। और शायद तेरा गुस्सा भी जायज़ है। लेकिन कुछ सच ऐसे होते हैं जो वक्त से पहले बताना मुश्किल होता है…"
अरमान की आंखें भर आईं। उसने कभी अपनी माँ को माफ नहीं किया था। उसे लगता था कि माँ ने उसका बचपन बर्बाद किया…
एक ऐसी गलती की थी जो कभी सुधारी नहीं जा सकती थी।
जब वो 14 साल का था, उसके सबसे अच्छे दोस्त इमरान को अचानक उनके घर से निकाल दिया गया था। और अरमान को बताया गया कि अब वो उससे कभी नहीं मिल सकता। कोई वजह नहीं दी गई।
इमरान... वो सिर्फ दोस्त नहीं था, वो उसका भाई जैसा था।
स्कूल में एक-दूसरे के लिए लड़ना, टिफिन में आधा खाना बांटना, और सबसे बड़ी बात — वो अरमान के हर डर का जवाब था।
मगर उस दिन माँ ने दरवाज़ा बंद कर दिया। एक झटके में।
ना कोई जवाब, ना सफाई।
उसी दिन से अरमान ने माँ से बात करना बंद कर दिया था।
माँ ने बहुत समझाने की कोशिश की — रोई, चिट्ठियां छोड़ी, खाना नहीं खाया — लेकिन अरमान का दिल पत्थर बन चुका था।
वो सोचता रहा — "जो माँ मेरे दोस्त को मेरी ज़िंदगी से निकाल सकती है, वो माँ ही कैसी?"
और फिर… एक दिन, माँ चली गई।
कोई बीमारी नहीं थी, कोई चेतावनी नहीं थी। बस एक सुबह उठी ही नहीं।
अरमान घर आया… और बिना कुछ कहे माँ का अंतिम संस्कार कर दिया। कोई आंसू नहीं, कोई शब्द नहीं।
लेकिन आज, 7 साल बाद, माँ का ये खत जैसे उसके सीने में किसी छुपे हुए बम की तरह फट पड़ा।
खत अभी अधूरा था — आखिरी पेज फटा हुआ था।
> "जो तू नहीं जानता, वो ये है कि मैंने जो किया… वो तेरी ही सुरक्षा के लिए था। तेरे दोस्त इमरान के बारे में..."
यहीं पर खत खत्म हो गया था।
अरमान की आंखें उस फटे हुए कोने पर अटक गईं… शायद वही लाइन सब कुछ बदल सकती थी।
एक अधूरा सच, जो अब उसे बेचैन कर रहा था।
वो उठा, कमरे के कोने में जाकर माँ की तस्वीर को देखा — पहली बार उसकी आंखों से पश्चाताप टपक रहा था।
अब अरमान के पास दो ही रास्ते थे — या तो वो इस अधूरे खत को यूं ही छोड़ दे, जैसे उसने माँ की हर बात छोड़ दी थी...
या फिर सच को जानने के लिए उस गांव लौट जाए — जहाँ माँ की यादें, पुरानी बातें, और शायद इमरान अब भी उसका इंतज़ार कर रहा हो।
शायद वही इमरान... जो एक सच छुपाए हुए बैठा हो…
या शायद वही इमरान… जिसने कभी माँ को कोई ऐसा दर्द दिया हो, जो अरमान नहीं जानता…
वो तय कर चुका था — उसे अब हर जवाब चाहिए। चाहे जितना भी दर्द क्यों ना हो।
वो अब उस दरवाज़े की ओर बढ़ेगा — जो 7 साल पहले माँ ने बंद किया था…
अब वो जानना चाहता है कि माँ की नज़रों में इमरान क्या था…
और कहीं ऐसा तो नहीं कि अरमान अब तक गलतफहमी के साथ जीता रहा?
✅ To Be Continued… Part 2 – "वो दरवाज़ा जो कभी खुला ही नहीं..."