अध्याय 2: ख़ामोशी की ज़मीन पर खड़ी होती औरत
वो औरत अब भी गिरती थी। कभी अपनी भावनाओं से, कभी उम्मीदों से।
लेकिन हर बार गिरने के बाद उठने में जो ख़ामोशी होती थी, वो किसी चीख़ से कम नहीं थी।
वो कुछ ज़्यादा नहीं कहती थी। बस दुनिया की आवाज़ों से हटकर, खुद के भीतर उतर जाती थी।
वहीं, जहां कोई नहीं पहुंचता। जहां सिर्फ खुदा होता था, और वो।
कभी-कभी ऐसा लगता कि अब और नहीं होगा — जैसे अंदर की दीवारें ढह रही हों।
फिर भी वो खड़ी रहती, टूटी-फूटी सही, मगर खड़ी।
जैसे कोई पेड़, जो आँधी में झुका तो हो, मगर जड़ से उखड़ा नहीं।
उसकी खामोशी ने उसे देखा — सबसे सच्चा।
वो बोलती नहीं थी, मगर उसकी आंखें बोलती थीं।
उन आंखों में बरसों की धूप भी थी, और वो चांदनी भी
जिसे किसी ने कभी महसूस नहीं किया।
अब उसका रिश्ता किसी इंसान से नहीं था।
वो खुदा से बातें करती, और खुद को सुनती।
वो हर दिन जैसे अपनी ही राख से दोबारा बन रही थी।
वो कोई चमत्कार नहीं कर रही थी — बस खुद को जोड़ रही थी, टुकड़ों से।
कभी कोई सपना जग जाता, तो वो डर जाती।
क्योंकि अब उसे सपनों से नहीं, उनके टूटने से डर लगता था।
लेकिन फिर भी, दिल के किसी कोने में एक रौशनी जलती रहती —
जैसे खुदा कह रहा हो, "चल, फिर से कोशिश कर। इस बार मैं साथ हूँ।"
हर दिन वो थोड़ी सी और गहराई से समझने लगी खुद को।
उसे अब कोई साबित नहीं करना था कि वो क्या है।
उसे बस होना था — जैसे धरती होती है,
जैसे नदी बहती है, जैसे चाँद चुपचाप चमकता है।
उसने अपने अंदर एक मंदिर बनाया था —
बिना मूर्ति के, बिना मंत्रों के।
वहाँ बस उसकी आत्मा थी — नंगी, सच्ची, और रोशन।
कई बार दुनिया ने कहा — “कमज़ोर है।”
लेकिन वो जानती थी,
कमज़ोर तो वो होते हैं जो खुद से भाग जाते हैं।
वो तो हर दिन खुद से मिलने जाती थी।
कभी रोते हुए, कभी मुस्कुराते हुए — मगर जाती ज़रूर थी।
वो अब भी पूरी नहीं थी।
लेकिन अब अधूरी रहना भी उसे मंज़ूर था —
क्योंकि वो जानती थी,
कि खुदा अधूरी चीज़ों से भी मुकम्मल रचनाएं बना सकता है।
सच्चा साहस कोई बड़ी बात कह देना नहीं,
बल्कि चुप रहकर भी
खुद से लड़ते रहना होता है।
अब वो किसी से कम नहीं —
ना खुद की नजरों में, ना खुदा की।
जिसने खामोश रहकर दुनिया झेली है,
वो जब बोलेगी —कई रूहें जाग उठेंगी।
जो औरत सालों तक दूसरों के लिए जीती रही,वो अब खुद के लिए सांस लेना सीख चुकी थी।कभी किसी की बेटी, बहू, पत्नी, माँ...अब बस एक इंसान —जो अपने नाम की तलाश में नहीं,बल्कि अपने अस्तित्व की पहचान में थी।अब वो हारती नहीं,क्योंकि अब वो खुद को खोती नहीं।वो जान चुकी थी कि सबसे बड़ी उड़ान वही होती है,जो अंदर से भरी जाती है। अब वो रोज़ सुबह खुद से कहती है —"जो बीता, वो मुझे बनाने आया था, मिटाने नहीं।"और ये जानकर ही वो हर दिन,थोड़ा और निखरती है, थोड़ा और खिलती है। उसने खुद को वो सहारा दिया,जो उसे कभी किसी से नहीं मिला।अब वो औरत नहीं थी जो किसी की परछाई थी —अब वो खुद अपने ही प्रकाश में जीती थी।
_Mohiniwrites